माननीय अन्ना,
जन लोकपाल कानून बनाने से जुड़ी मांग पूरी हुई । देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो गुस्सा है वह इस जायज मांग के समर्थन में कमोबेश प्रकट हुआ । आपने इसके समर्थन में अनशन किया और भ्रष्टाचार से त्रस्त तरुणों की जमात ने उसका स्वत:स्फूर्त समर्थन किया ।
अनशन की शुरुआत में जब आपने इस लड़ाई को ’दूसरी आजादी की लड़ाई’ कहा तब मुझे एक खटका लगा था । मेरी पीढ़ी के अन्य बहुत से लोगों को भी निश्चित लगा होगा। जब जनता को तानाशाही और लोकतंत्र के बीच चुनाव का अवसर मिला था तब भी लोकनायक ने जनता से कहा था ,’जनता पार्टी को वोट दो , लेकिन वोट देकर सो मत जाना’ । जनता की उस जीत को ’दूसरी आजादी ’ कहा गया । जाने – अन्जाने उस आन्दोलन के इस ऐतिहासिक महत्व को गौण नहीं किया जाना चाहिए ।
’भ्रष्टाचार करेंगे नहीं , भ्रष्टाचार सहेंगे नहीं ’ का संकल्प लाखों युवा एक साथ लेते थे । ’भ्रष्टाचार मिटाना है , भारत नया बनाना है ’ के नारे के साथ जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार , फिजूलखर्ची और दो तरह की शिक्षा नीति के खिलाफ लगातार कार्यक्रम लिए जाते थे। संघर्ष वाहिनी के साथियों ने पटना के एक बडे होटल में बैठक में जाने से जेपी को भी रोक दिया था ।फिजूलखर्ची , शिक्षा में भेद भाव और दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा से भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है , यह समझदारी थी। हजारों नौजवानों ने बिना दहेज ,जाति तोड़कर शादियाँ की। सितारे वाले होटलों और पब्लिक स्कूलों के खिलाफ प्रदर्शन होते थे । टैक्स चुराने वाले तथा पांच सितारा संस्कृति से जुड़े तबकों को जन्तर –मन्तर में देखने के बाद यह स्मरण करना लाजमी है ।
उस दौर में हमें यह समझ में आया कि तरुणों में दो तरह की तड़प होती है । ’मैं इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूँ ’ – पहली किस्म की तड़प ।मात्र इस समझदारी के होने पर जिन्हें नौकरी मिल जाती है और भ्रष्टाचार करने का मौका भी, वे तब शान्त हो जाते हैं । ’ यह व्यवस्था अधिकांश लोगों को नौकरी दे ही नहीं सकती इसलिए पूरी व्यवस्था बदलने के लिए हम संघर्ष करेंगे ’– इस दूसरे प्रकार की समझदारी से यह तड़प पैदा होती है ।
प्रशासन के ढाँचे में भ्रष्टाचार और दमन अनर्निहित हैं । सरकारी अफसर , दरोगा , कलेक्टर,मजिस्ट्रेट और सीमान्त इलाकों में भेजा गए सेना के अधिकारी आम नागरिक को जानवर जैसा लाचार समझते हैं । रोजमर्रा के नागरिक जीवन में यह नौकरशाही बाधक है । प्रशासन का ढांचा ही गलत है इसलिए घूसखोरी ज्यादा होती है ।
समाजवादी नेता किशन पटनायक कहते थे,’यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । पुलिस,मंत्री,जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ़ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । जिस समाज में न्याय होगा उसकी उत्पादन क्षमता और उपार्जन क्षमता बढ़ जाएगी इसलिए निश्चित समय में फैसले के लिए जजों की संख्या बढ़ाने का बोझ सहा जा सकता है।’
अन्ना , सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के बरसों बाद नौजवानों का आक्रोश समाज को उल्टी दिशा में ले जाने के लिए प्रकट हुआ था,मण्डल विरोधी आन्दोलन से । मौजूदा शिक्षा व्यवस्था श्रम के प्रति असम्मान भर देती है ।सामाजिक न्याय के लिए दिए जाने वाले आरक्षण के संवैधानिक उपाय को रोजगार छीनने वाला समझ कर वे युवा मेहनतकश तबकों के प्रति अपमानजनक तथा क्रूर भाव प्रकट करते रहे हैं । रोजगार के अवसर तो आर्थिक नीतियों के कारण संकुचित होते हैं । आपके आन्दोलन में इन युवाओं का तबका शामिल है तथा इस बाबत उनमें प्रशिक्षण की जिम्मेदारी नेतृत्व की होगी । कूएँ में यदि पानी हो तब सबसे पहले प्यासे को देने की बात होती है । यदि कूँए में पानी ही न हो तब उसका गुस्सा प्यासे पर नहीं निकालना चाहिए । उम्मीद है कि भ्रष्टाचार विरोधी युवा यह समझेंगे ।
मौजूदा प्रधानमंत्री जब वित्तमंत्री थे तब शेयर बाजार की तेजी से उत्साहित हो वे वाहवाही लूट रहे थे , दरअसल तब हर्षद मेहता की रहनुमाई में प्रतिभूति घोटाला किया जा रहा था। इस मामले की जाँच के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने पाया था कि चार विदेशी बैंकों चोरी का तरीके बताने में अहम भूमिका अदा की थी । उन बैंकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई । उदारीकरण के दौर का वह प्रथम प्रमुख घोटाला था । तब से लेकर अभी कुछ ही समय पूर्व अल्युमिनियम की सरकारी कम्पनी नाल्को के प्रमुख ए.के श्रीवास्तव तथा उनकी पत्नी चाँदनी के १५ किलोग्राम सोने के साथ पकड़े जाने तक भ्रष्टाचार के सभी प्रमुख मामले उदारीकरण की नीति की कोख से ही पैदा हुए हैं। इन नीतियों के खिलाफ भी जंग छेड़नी होगी ।
अंतत: किन्तु अनिवार्यत: नई पीढ़ी को साधन-साध्य शुचिता के विषय में भी बताना होगा ।आप से बेहतर इसे कौन समझा सकता है ? लोकपाल कानून के दाएरे में सरकारी मदद पाने वाले स्वयंसेवी संगठन तो शायद आ जाएंगे । आवश्यकता इस बात की है विदेशी पैसा लाने के लिए सरकार से विदेशी सहयोग नियंत्र्ण कानून (एफ.सी.आर.ए.) का प्रमाण पत्र लेने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं पर भी लोकपाल कानून की निगरानी तथा पारदर्शिता के लिए सूचना के अधिकार के प्रावधान भी लागू किए जाने चाहिए ।
इस व्यवस्था ने योग्य नौजवानों के समूह को भी रिश्वत देनेवाला बना दिया है । चतुर्थ श्रेणी की नौकरी पाने के लिए भी मंत्री , दलाल और भ्रष्ट अधिकारियों को घूस देनी पड़ती है । भ्रष्टाचार के खिलाफ बनी जागृति के इस दौर में आप तरुणों की इस जमात से घूस न देने का संकल्प करवायेंगे इस उम्मीद के साथ ।
(साभार : जनसत्ता , १२ अप्रैल,२०११ )
५, रीडर आवास,जोधपुर कॉलोनी ,काशी विश्वविद्यालय , वाराणसी – २२१००५.
अफलू भाई। आपकी बात से असहमत होने का प्रश्न ही नहीं। फर्क केवल यह लग रहा है कि आप जड से शुरु करना चाह रहे हैं और फिलहाल उपचार फुनगियों से हो रहा है। लगभग वही अन्तर है जो आयुर्वेदिक और एलोपेथिक पध्दतियों के उपचार में हैं। ऐलोपेथी तत्काल राहत देती और धैर्य तथा परहेज के श्रम से बचाती है – आयोडेक्स मलिए, काम पर चलिए। आयुर्वेदिक पध्दति रोग का समूल नाश करती है किन्तु वह प्राणलेवा धैर्य और परहेज मॉंगती है। हर कोई जानता है कि अन्तिम निदान वही है किन्तु धैर्य रखने ओर परहेज करने को कोई तैयार नहीं। फिर, बात जब हमारे ‘अवतार की प्रतीक्षा में बैठे’ समाज की हो तो कठिनाई और बढती है।
गॉंधी को सच साबित होने में पूरी एक पीढी का समय लगा था। आज गॉंधी को प्रासंगिक तो सभी मानते हैं किन्तु वैसा धैर्य रखने और खुद कुछ खोने को कोई भी तैयार नहीं है। सब चाह रहे हैं कि गॉंधी, ऐलोपेथिक दवाई की तरह असर करे। यही होगा भी। जेपी भी इसीलिए अल्पकालिक प्रभावी रहे और अण्णा के साथ भी यही होगा। ‘अण्णा प्रभाव’ कुछ ही समय तक रहेगा। उसके बाद एक बार फिर हम किसी अण्णा की प्रतीक्षा में बैठ जाऍंगे – अण्णा के असफल होने का स्यापा करते हुए।
जरूरी बात…
badhai achchhe lekh ke liye. anna hajare ke baad ke bayaan nirash karate hain.
sunil
आप अन्ना हजारे को याद दिलाकर क्या कराना चाहते हैं? आजादी के छ: दशक बाद लोगों की सोच नहीं बदली तो क्या एक लेख से अन्ना की सोच बदल पायेगी?
आपके सारे सवाल लेख में आ गये हैं । बधाई ।
धन्यवाद . ’अन्ना के नाम’ पढ़वा कर सुना . बहुत सही लिखा है . तबीयत ठीक नहीं चल रही . दमे का प्रकोप है . – राही.
गुरुजी प्रणाम, हांलाकि मैं अन्ना के बारे में बहुत कुछ नही जानता लेकिन जन्तर-मन्तर पर जो कुछ दिखा उसे देख कर वहां जाने का मन नहीं किया . मुझे वह सादगी नहीं दिखी जो मैंने युनिवर्सिटी के दिनो में देखी थी . लेकिन अन्ना सफल हों,ये मेरी दुआ है.इसी भावना से हमने उअनके आन्दोलन का अच्छा कवरेज कराया था . एक सहक्र्मी का कहना है ,’मेरे एक सहकर्मी का कहना है,’ जन्तर-मन्तर अन्ना पर्यटन बन गया था.’
It’s Kahshi Hindu University….u rotten egg.
@ अदिति राव ,
क्या करूं मेरी स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधियों के शुभंकर (monogram) में काशी विश्वविद्यालय और अंग्रेजी में Banaras Hindu University लिखा है ! मेरे मां-बाप अंग्रेज नहीं इसलिए मैंने हिन्दी नाम चुना ।
अदिति राव ने अभद्रता का परिचय दिया है। सवाल और शंकाएँ इस अन्दाज में। घटिया हरकत।
aflatoon sir, ab ek naye patr ki zaroorat hai.
anna movement ke aaj ke kadm ne yah siddh kar diya ki ek gair rajniitik aandolan se koi bada parivartan sambhav nahin. ‘sampoorn kranti’ andolan ka ek aalochnatmak adhyayn aur vartman rajnitik paridrishy me ek vaikalpik andolan kii rooprekha par gambhirta se kaam hona chahiye.