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Archive for the ‘administrative structure’ Category


गत दो वर्षों में देश में कई घोटाले सामने आए हैं । सभी घोटालों का सरकार की मौजूदा नीति से स्पष्ट सम्बन्ध है । भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम के पक्ष में एक माहौल भी बना है । इसके बावजूद न तो मुहिम चलाने वाले और न ही सरकार यह कह रही है कि जवाबदेही-विहीन औपनिवेशिक प्रशासनिक ढाँचे से भ्रष्टाचार का नालबद्ध नाता है ।पोर्ट ब्लेयर से अत्यन्त निकट यह नन्हा-सा टापू है । रॉस नामक किसी अंग्रेज के नाम पर । अण्डमान – निकोबार द्वीप समूह का प्रशासनिक काम-काज यहीं से होता था। दूसरे विश्वयुद्ध में जापानियों ने १९४२-४५ तक कब्जा कर लिया था । इन तीन सालों में भी द्वीपों की जनता पर बेइंतहा जुल्म ढाए गए। नेताजी इसी दौरान जापानियों की सरपरस्ती में सेल्युलर जेल और इस टापू पर तिरंगा फहरा कर गए । अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति के बारे में नेताजी की धारणा के गलत परिणाम का नमूना जापानियों का अंडमानवासियों पर जुल्म था। वे जापान-इटली-रूस के सहयोग को उचित मान रहे थे ।
बहरहाल,रॉस टापू पर विजय के बावजूद अंग्रेजों ने उसे छोड़ दिया । तमाम दफ़्तर पोर्ट ब्लेयर ले जाए गए ।
इस टापू पर अंग्रेजों की प्रशासनिक ईमारतों की मौजूदा हालत को देखते वक्त मुझे रोमांच-सा हुआ । एक कल्पना से प्रेरित रोमांच । क्या गुलाम बनाने और बनाए रखने के लिए अंग्रेजों ने जो प्रशासनिक ढाँचा बनाया था उसे भी इसी तरह आजादी का वृक्ष जकड़ सकता है ?
आजादी मिलने के तुरन्त बाद एक बार सरदार पटेल ने ’इंडियन सिविल सर्विसेस’ की प्रशंसा की । इससे एक व्यक्ति चौंके थे , गाँधी । संविधान सभा वयस्क मताधिकार से नहीं चुनी गई थी । अंग्रेजों ने जो सीमित मताधिकार दिया था उससे बनी थी । डॉ. लोहिया ने इस कमजोरी की ओर ध्यान आकृष्ट किया था । अंग्रेजों के प्रशासनिक ढ़ाँचे के बारे में गांधी की राय बिना किसी लाग-लपेट के प्रकट थी । उनकी धारणा से परिचित होने के लिए दिनांक २७ मार्च , १९३० के यंग इंडिया  में लिखे इस लेख को देखें

अंग्रेज शासन के भग्नावशेषों को बरगद और पकड़ी के पेड़ों जिस प्रकार अपने पाश में बाँध लिया है उससे देश भर में इस ढाँचे के विनाश की रूमानी ही सही कल्पना जागृत हुई ।

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साझा संस्कृति मंच

वाराणसी

माननीय श्री अण्णा हजारे ,

कबीर , तुलसी और रैदास की बनारस की इस कर्मभूमि में हम आपका हृदय से स्वागत करते हैं । वाराणसी के सामाजिक सरोकारों के संगठनों का यह साझा मंच आप से यह नम्र निवेदन कर रहा है :

राज्य व्यवस्था भ्रष्टाचार और हिंसा को नियंत्रित करने के लिए बनी हुई है । आज भ्रष्टाचार एक केन्द्रीय समस्या बन गया है क्योंकि उसके कारण एक औसत नागरिक के लिए सामान्य ढंग से ईमानदारी का जीवन जीना मुश्किल हो गया है । भ्रष्टाचार का शिकार हुए बगैर रोजमर्रा का काम नहीं चल पा रहा है इसलिए भ्रष्टाचार से मुक्त होने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है । सामान्य अवस्था में भ्रष्टाचार सिर्फ लोभी और बेशर्म आदमियों तक सीमित रहता है और अधिकांश घटनाओं में लोग आश्वस्त रहते हैं कि दोषी दण्डित होंगे । मौजूदा समय में नेक आदमी भी भ्रष्टाचार करने लगा है और कोई आदमी ईमानदारी से अपना काम करता है तो उसकी हालत दयनीय हो जाती है ।

भ्रष्टाचार को जड़ से समझने के लिए निम्नलिखित आधारभूत विकृतियों को समझना होगा:

(१) प्रशासन के ढांचे की गलतियां – जवाबदेही की स्पष्ट और समयबद्ध प्रक्रिया का न होना भारतीय शासन प्रणाली का मुख्य दोष है । प्रशासन और अर्थनीति जैसे हैं वैसे ही बने रहें लेकिन भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा –  यह हमें मुमकिन नहीं दिखता ।

(२) समाज में आय-व्यय की गैर-बराबरियां अत्यधिक हैं । जहां ज्यादा गैर बराबरियां रहेंगी , वहां भ्रष्टाचार अवश्य व्याप्त होगा । गांधीजी के शब्दों में ,’थोड़े लोगोंको करोड़  और बाकी सब लोगोंको सूखी रोटी भी नहीं , ऐसी भयानक असमानतामें रामराज्य का दर्शन करनेकी आशा कभी नहीं रखी जा सकती ’(दिनांक १०६-’४७) ।

(३) गांववासियों के लिए कचहरी और पुलिस में कोई फर्क नहीं होता । कचहरी वह है , जिसके द्वारा पटवारी-पुलिस किसानों को सताते हैं । सैकड़ों बार कचहरी आ कर अदालत में घूस और वकीलों की फीस में किसानों के करोडों रुपए लूट लिए जाते हैं । देश का पेट भरने वाले किसान के जीवन में बड़े   बड़े निजी निगमों का हस्तक्षेप बढ़ाया जा रहा है , इसे हम अपनी संस्कृति पर हमला मानते हैं और इसलिए इस पर रोक की माग करते हैं । किसान से जुड़े समस्त कार्य एक ही व्यवहार पटल (खिड़की) से क्यों नहीं निपटाये जा सकते ।

(४) हमारी यह स्पष्ट समझदारी है कि भ्रष्टाचार के इस अहम सवाल के अलावा हमें बेरोजगारी ,  दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली , विकास की गलत अवधारणा से उत्पन्न विस्थापन के मसलों को भी समाज के व्यापक आन्दोलन का हिस्सा बनाना ही होगा ।

इन विकृतियों को समझते हुए भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के निम्नलिखित बिन्दु उभरते हैं :

(१) समाज के दलित , किसान , मजदूर , पिछड़े , आदिवासियों के कल्याण के लिए नरेगा तथा अन्य कल्याणकारी योजनाएं बनाई गई हैं उसके पैसे भ्रष्ट अधिकारी , बिल्डर ,ठेकेदार एक गठबन्धन बना कर लूटते हैं । इस पर रोक सुनिश्चित होनी चाहिए ।

(२) भोंडी फिजूलखर्ची पर रोक लगाई जाए तथा आर्थिक विषमता को सीमित करने के उपाए किए जांए ।

(३) प्राकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए आर्थिक नीतियों में परिवर्तन करने होंगे । मौजूदा उदार नीतियों से भ्रष्टाचार और लूट का सीधा सम्बन्ध है ।

(४) यह आन्दोलन व्यापक स्तर पर ’ घूस देंगे नहीं , घूस लेंगे नहीं ’  के साथ जन-जागरण चलायेगा ।

(५) अधिकांश अदालती मामलों के निपटारे के लिए समय की सीमा बाँधी जाए और झूठे मामलों की छानबीन की कोई कारगर प्रक्रिया तय हो जाए ताकि यह जलालत और घूसखोरी घट सके ।

(६) समाज और देश में वैमनस्य फैलाने वाली शक्तियों की सक्रियता की वजह से तमाम लोकहित के मुद्दे पीछे चले जाते हैं तथा इससे भ्रष्ट यथास्थितिवादी ताकतों को शक्ति मिल जाती है । इसलिए इस प्रश्न को हम गौण समझ कर नहीं चल सकते तथा इसके प्रति सतत सचेत रहेंगे ।

(७) प्रशासन के कई सुधारों के लिए संविधान या आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन की जरूरत भी नहीं होती है ।फिर भी आम नागरिक की आजादी को दबाने के लिए और प्रशासन के भ्रष्ट तत्वों को कवच प्रदान करने के लिए भारतीय दण्ड प्रक्रिया में जिन धाराओं से मुकदमा चलाने के लिए राज्यपाल,राष्ट्रपति आदि की अनुमति लेनी पड़ती है उन्हें बदलना होगा । भ्रष्ट और अपराधी अधिकारियों पर मामला चले ही नहीं इसके लिए इन प्राविधानों का उपयोग होता है ।

इसी प्रकार विश्वविद्यालय जैसे सरकारी वित्त से चलने वाली संस्थाओं में भ्रष्टाचार के मामलों की समग्र निष्पक्ष जांच के लिए विजिटर (राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल ) ही जांच गठित कर सकता है । इस वजह से से आजादी के बाद सिर्फ दो बार ही विजिटोरियल जांच हो पाई है (मुदालियर आयोग तथा गजेन्द्र गड़कर आयोग )।इसके समाधान के लिए समाज और विश्वविद्यालय के बीच पुल का काम करने वाली ’कोर्ट’ को अधिकारसम्पन्न और लोकतांत्रिक बनाना होगा।

(८) उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए बनाई गई पुलिस द्वारा बिना विभाग का पैसा खर्च किए भ्रष्ट बिल्डरों , कॉलॉनाईजरों,निर्माण कम्पनियों से पुलिस विभाग के निर्माण करवाये जा रहे हैं । इस दुर्नीति के चलते यह भ्रष्ट अपने गलत काम सम्पन्न करने की छूट पा जा रहे हैं तथा उसका परिणाम अन्तत: प्रदेश की गरीब जनता पर उतारा जा रहा है ।

माननीय अण्णा , उत्तर प्रदेश में अभियान की शुरुआत वाराणसी से करने के लिए हम आपके आभारी हैं तथा आप से यह अपील करेंगे कि आन्दोलन को व्यापक आधार देने के लिए आप अन्य समन्वयों ,मोर्चों से सम्पर्क , संवाद और समन्वय स्थापित करने के लिए पहल करेंगे ।

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सक्रिय निष्ठा और और सक्रिय द्रोह के मध्य कोई बीच का रास्ता नहीं हुआ करता है । ‘ यदि किसी व्यक्ति को खुद को मनमुटाव का दोषी न होना साबित करना है तो उसे अपने को सक्रिय रूप से स्नेही साबित करना होगा ।’-मरहूम न्यायमूर्ति स्टीफन की इस टिप्पणी में काफ़ी सच्चाई है । लोकतंत्र के इस जमाने में किसी व्यक्ति के प्रति निष्ठा का प्रश्न नहीं उठता। इसके बजाए अब आप संस्थाओं के प्रति निष्ठावान या द्रोही होते हैं । इस प्रकार जब आप आज के जमाने में द्रोह करते हैं तब किसी व्यक्ति का नहीं संस्था का नाश चाह रहे होते हैं । जो मौजूदा राज्य-व्यवस्था को समझ सके हैं  वह जानते हैं कि यह कत्तई निष्ठा उत्पन्न करने वाली संस्था नहीं है । वह भ्रष्ट है । लोगों के व्यवहार को निर्धारित करने के लिए उसके द्वारा बनाए गए कई कानून निश्चित तौर पर अमानवीय हैं । राज्य व्यवस्था के प्रशासन की स्थिति बदतर है । अक्सर एक व्यक्ति की इच्छा कानून बन जाया करती है । यह आराम से कहा जा सकता है कि हमारे देश में जितने जिले हैं उतने शासक हैं। ये शासक कलक्टर कहे जाते हैं तथा इन्हें कार्यपालिका और न्यायिक कार्य करने के अधिकार एक साथ मिले हुए हैं । यूँ तो यह माना जाता है कि इनके कार्य कानूनों से संचालित होते हैं जो अपने आप में अत्यधिक दोषपूर्ण होते हैं । अक्सर ये शासक स्वेच्छाचारी होते हैं तथा अपनी सनक के अलावा इन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता । अपने परदेशी आकाओं अथवा मालिकों के सिवा वे किसी के हित का प्रतिनिधित्व नहीं करते । इन करीब तीन सौ लोगों ने लगभग गुप्त-सा एक संघ बना लिया है जो दुनिया में सबसे ताकतवर है । यह अपेक्षा की जाती है कि एक न्यूनतम राजस्व वे हासिल करें , इसीलिए जनता से व्यवहार में अक्सर वे अनैतिक हो जाते हैं । सरकार की यह व्यवस्था ऐलानिया असंख्य भारतवासियों के निर्दय शोषण पर आधारित है । गाँवों के मुखिया से लगायत इन क्षत्रपों के निजी सहायकों तक इन्होंने मातहतों का एक वर्ग तैयार कर रखा है , जो अपने विदेशी मालिकों के समक्ष घिघियाता है जबकि जनता के प्रति उनका रोजमर्रा का व्यवहार इतना गैर जिम्मेदाराना और कठोर होता है कि उनका मनोबल गिर जाए तथा एक आतंकी व्यवस्था द्वारा जनता भ्रष्टाचार का प्रतिकार करने के काबिल न रह जाए । भारत सरकार की इस भयानक बुराई की जिन्होंने शिनाख्त कर ली है उनका यह दायित्व है कि वे इसके प्रति द्रोह करने का जोर-शोर से प्रचार करें । ऐसे भ्रष्ट राज्यतंत्र के प्रति भक्ति प्रकट करना एक पाप है , द्रोह एक सद्गुण है ।

इन तीन सौ लोगों के आतंक के साये में संत्रस्त तीस करोड़ लोगों का तमाशा  निरंकुश शासकों तथा उनके शिकार दोनों के प्रति समान तौर पर मनोबल गिराने वाली बात है । इस व्यवस्था की बुराई को जो समझ चुके हैं उन्हें इसे बिना देर नष्ट करने में लग जाना चाहिए भले ही बिना सन्दर्भ देखने पर इसकी कुछ विशिष्टतायें आकर्षक प्रतीत हों । ऐसे लोगों का यह स्पष्ट दायित्व है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे हर जोखिम उठायें ।

परन्तु यह भी साथ-साथ स्पष्ट रहे कि इस व्यवस्था के इन तीन सौ संचालकों और प्रशासकों को नष्ट करने की मंशा यदि यह तीस करोड़ लोग पाल लेते हैं तो वह कायरता होगी । इन प्रशासकों तथा उनके भाड़े के टट्टूओं को खत्म करने की युक्ति निकालना घोर अज्ञान का द्योतक होगा । इसके अलावा यह भी जान लेना चाहिए कि प्रशासकों का यह तबका परिस्थितिजन्य कठपुतलियां हैं । इस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला सर्वाधिक निष्कलुष व्यक्ति भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता तथा इस बुराई के  दुष्प्रचार का औजार बन जाता है । इसलिए  स्वभावत: इस व्याधि का इलाज प्रशासकों के प्रति क्रुद्ध होकर उन्हें  चोट पहुंचाकर नहीं होगा अपितु व्यवस्था से समस्त -संभव ऐच्छिक सहयोग वापस लेकर एवं कथित लाभ लेने से इनकार द्वारा अहिंसक असहयोग से होगा । तनिक विचार द्वारा हम पायेंगे कि सिविल नाफ़रमानी असहयोग का अनिवार्य हिस्सा है । आदेशों और फ़रमानों का पालन कर हम किसी भी प्रशासन का सर्वाधिक कारगर ढंग  से सहयोग करते हैं । कोई भी अनिष्टकर प्रशासन ऐसी साझेदारी का कत्तई पात्र नहीं होता । इससे वफ़ादारी का मतलब पाप का भागी होना होता है । इसीलिए हर अच्छा व्यक्ति ऐसी बुरी व्यवस्था या प्रशासन का अपनी पूरी आत्मा से प्रतिकार करेगा । किसी बुरे राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों की नाफ़रमानी इसलिए दायित्व बन जाता है । हिंसक नाफ़रमानी का साबका उन लोगों से होता है जिनका स्थान अन्य कोई ले सकता है । हिंसक नाफ़रमानी द्वारा पाप अछूता रह जाता है तथा अक्सर उसे बल मिलता है । जो खुद को इस बुराई से जुदा रखना चाहते हैं उनके लिए अहिंसक यानी सिविल नाफ़रमानी एक मात्र तथा सबसे कारगर इलाज है तथा यह करना उनका फर्ज है ।

बतौर इलाज सिविल नाफ़रमानी अब तक आंशिक तौर पर आजमाया हुआ उपाय ही है , यह ही इसका खतरा भी है चूंकि हिंसाग्रस्त वातावरण में ही इसका प्रयोग किया जाना चाहिए ।  जब अबाध तानाशाही फैली हुई होती है तब उससे पीडित जनता में क्रोध पैदा होता है। पीडितों की कमजोरी के कारण यह क्रोध अव्यक्त रहता है किन्तु मामूली बहाने से ही इसका विस्फोट पूर्ण उन्माद के साथ होता है । सिविल नाफ़रमानी इस गैर-अनुशासित , जीवन-नाशक छिपी उर्जा को अचूक सफलता वाली अनुशासित ,जीवन-रक्षक उर्जा में रूपान्तरित करने का राम-बाण उपाय  है । सफलता के वादे के कारण इस प्रक्रिया में निहित जोखिम उठाना कुछ भी नुकसानदेह नहीं है । उड्डयन के विज्ञान का विकास एक ऊंचा स्तर हासिल कर चुकने के बावजूद जब दुनिया सिविल नाफ़रमानी के इस्तेमाल की आदी हो जाएगी तथा जब इसके सफल प्रयोगों की शृंखला बन चुकी होगी तब इसमें उड्डयन से भी कम जोखिम रह जाएगा ।

यंग इंडिया , २७-३-’३० , पृ. १०८

( मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अफ़लातून )

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