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Posts Tagged ‘sachchidanand sinha’

पिछले हिस्से : एक , दो

    आधुनिक केंद्रित व्यवस्थाओं में ऊँचे ओहदे वाले लोग अपने फैसले से किसी भी व्यक्ति को विशाल धन राशि का लाभ या हानि  पहुँचा सकते हैं । लेकिन इन लोगों की अपनी आय अपेक्षतया कम होती है। इस कारण एक ऐसे समाज में जहाँ धन सभी उपलब्धियों का मापदंड मान लिया जाता हो व्यवस्था के शीर्ष स्थानों पर रहने वाले लोगों पर इस बात का भारी दबाव बना रहता है कि वे अपने पद का उपयोग नियमों का उल्लंघन कर नाजायज ढंग से धन अर्जित करने के लिए करें और धन कमाकर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त प्राप्त करें । यहीं से राजनीति में भ्रष्टाचार शुरु होता है । लेकिन विकसित औद्योगिक समाजों में व्यवस्था की क्षमता को कायम रखने के लिए नियम कानून पर चलने और बराबरी की प्रतिस्पर्धा के द्वारा सही लोगों के चयन का दबाव ऐसा होता है जो ऐसे भ्रष्टाचार के विपरीत काम करता है । ऐसे समाजों में लोग भ्रष्ट आचरण के खिलाफ सजग रहते हैं क्योंकि इसे कबूल करना व्यवस्था के लिए विघटनकारी हो सकता है । हमारे समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे व्यवस्थागत मूल्यों का निर्माण नहीं हो पाया है । इसके विपरीत जहां हमारी परंपरा में संपत्ति और सामाजिक सम्मान को अलग – अलग रखा गया था वहीं आज के भारतीय समाज संपत्ति ही सबसे बड़ा मूल्य बन गई है और लोग इस विवेक से शून्य हो रहे हैं कि संपत्ति कैसे अर्जित की गई है इसका भी लिहाज रखें । इस कारण कोई भी व्यक्ति जो चोरी , बेईमानी , घूसखोरी तथा हर दूसरी तरह के कुत्सित कर्मों से धन कमा लेता है वह सम्मान पाने लगता है । इस तरह कर्म से मर्यादा का लोप हो रहा है ।

    आधुनिकतावादियों पर , जो धर्म और पारंपरिक मूल्यों को नकारते हैं तथा आधुनिक उपकरणों से सज्जित ठाठबाट की जिंदगी को अधिक महत्व देते हैं , भ्रष्ट आचरण का दबाव और अधिक होता है । इस तरह हमारे यहाँ भ्रष्टाचार सिर्फ वैयक्तिक रूप से लोगों की ईमानदारी के ह्रास का परिणाम नहीं है बल्कि उस सामाजिक मूल्यहीनता का परिणाम है जहां पारंपरिक मूल्यों का लोप हो चुका है पर पारंपरिक वफादारियां अपनी जगह पर जमी हुई है । इसीका नतीजा है कि आधुनिकता की दुहाई देने वाले लोग बेटे पोते को आगे बढ़ाने में किसी भी मर्यादा का उल्लंघन करने से बाज नहीं आते । चूँकि हमारे समाज में विस्तृत परिवार के प्रति वफादारी के मूल्य को सार्वजनिक रूप से सर्वोपरि माना जाता रहा है कुनबापरस्ती या खानदानशाही  के खिलाफ सामाजिक स्तर पर कोई खास विरोध नहीं बन पाता । आम लोग इसे स्वाभाविक मानकर नजरअंदाज कर देते हैं । ऐसी स्थिति में इनका विरोध प्रतिष्ठानों के नियम कानून के आधार पर ही संभव हो पाता है ।

    ऊपर की बातों पर विचार करने से लगता है कि जब तक संपत्ति और सत्ता का ऐसा केंद्रीयकरण रहेगा जहाँ थोड़े से लोग अपने फैसले से किसी को अमीर और किसीको गरीब बना सकें और समाज में घोर गैर-बराबरी भी रहेगी तब तक भ्रष्टाचार के दबाव से समाज मुक्त नहीं हो सकता । यही कारण है कि दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी और आदर्शवादी लोग सत्ता में जाते ही नैतिक फिसलन के शिकार बन जाते हैं । एक ऐसे समाज में ही जहाँ जीवन का प्रधान लक्ष्य संपत्ति और इसके प्रतीकों का अंबार लगाकर कुछ लोगों को विशिष्टता प्रदान करने की जगह लोगों की बुनियादी और वास्तविक जरूरतों की पूर्ति करना है भ्रष्ट आचरण नीरस बन सकता ।

    भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समता मूलक समाज बनाने के आंदोलन के क्रम में ही हो सकता है जहाँ समाज के ढाँचे को बदलने के रा्ष्ट्रव्यापी आंदोलन के संदर्भ में स्थानीय तौर से भ्रष्टाचार के संस्थागत बिंदुओं पर भी हमला हो सके । बिहार में चलने वाले १९७४ के छात्र आंदोलन की कुछ घटनायें इसका उदाहरण हैं, जिसमें एक अमूर्त लेकिन महान लक्ष्य ’संपूर्ण क्रांति’ के संदर्भ में नौजवानों में एक ऐसी उर्जा पैदा हुई कि बिहार के किशोरावस्था के छात्रों ने प्रखंडों में और जिलाधीशों के बहुत सारे कार्यालयों में घूसखोरी आदि पर रोक लगा दी थी । लेकिन न तो संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य स्पष्ट था और न उसके पीछे कोई अनुशासित संगठन ही था । इसलिए जनता पार्टी को सत्ता की राजनीति के दौर में वह सारी उर्जा समाप्त हो गई ।

    अंतत: हर बड़ी क्रांति कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्दगिर्द होती है । इन्हीं मूल्यों से प्रेरित हो लोग समाज को बदलने की पहल करेते हैं । हमारे देश में , जहां परंपरागत मूल्यों का ह्रास हो चुका है और आधुनिक औद्योगिक समाज की संभावना विवादास्पद है , भ्रष्टाचार पर रोक लगाना तभी संभव है जब देश को एक नयी दिशा में विकसित करने का कोई व्यापक आंदोलन चले । इसके बिना भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास विफलताओं और हताशा का चक्र बनाते रहेंगे ।

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इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ बाबरी मस्जिद – रामजन्मभूमि प्रकरण में मिल्कियत सम्बन्धी मुकदमें में इसी माह फैसला सुनाने जा रही है । एक पक्ष द्वारा उत्तर प्रदेश में घूम – घूम कर ’फैसला चाहे जो हो ’ , ’मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जाएगा’ तथा ’विधायिका को निर्णय लेना होगा ’ जैसी मंशा प्रकट की जा रही है । कुछ ही दिन पूर्व न्यायालय ने दोनों पक्षों के बीच सुलह के निष्फल प्रयास भी किए थे । एक लंबे समय तक बाबरी मस्जिद ने प्रकृति के खेलों और तूफ़ानों को बरदाश्त किया , लेकिन मनुष्यों की हिमाकतों और वहशतों को सहना उससे भी कठिन था । फिलहाल , एक ऐसी प्रक्रिया को तरजीह मिली है और एक शुरुआत हुई है जिससे , ’ तीन नहीं अब तीस हजार , बचे न एक कब्र मजार’ इस नारे में छुपी बुनियादी विकृति को बल मिलता है । ’ ताजमहल मंदिर भवन है’ तथा ’ कुतुब मीनार हिन्दू स्थापत्य की विरासत है ’ माननेवाले इतिहासकारों का एक छोटा-सा समूह देश में मौजूद है । बाबरी मस्जिद को तोड़ने के फौजदारी मामले के आरोपी गिरोह को सिर्फ़ ऐसे इतिहासकारों से ही बल मिलता है । इस मामले के दीवानी प्रकरण में भी वे एक पक्ष हैं । इनके दर्शन के तर्क को मान लेने पर अधिकांश ऐतिहासिक इमारतों को तोड़कर उनकी भूमि विभिन्न समुदायों को सौंप देनी होगी । समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने १९९० में इस सन्दर्भ में इतिहास का एक सिद्धान्त बतौर सबक पेश किया था । इस सबक के मुताबिक तीन सौ साल पुरानी घटना के साथ आप सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सकते । उन दिनों के योद्धाओं से प्रेरणा ले सकते हैं लेकिन उनकी वीरता की वाहवाही आप नही ले सकते । उन दिनों की ग़लतियों को आप सुधार नहीं सकते , सिर्फ़ आगे के लिए सतर्क हो सकते हैं । ’ इसी तरह उस युग के अपमानों का आप बदला नहीं ले सकते । होठों पर मुस्कान लिए आप थोड़ी देर मनन कर सकते हैं । बीते युग के असंख्य युद्धों और संधियों , जय – पराजय और मान – अपमान की घटनाओं को इतिहास के खेल के रूप में देखकर आपको अनुभव होगा कि आपकी छाती चौड़ी हो रही है , धमनियों में रक्त का प्रवाह तीव्र हो रहा है । हर युद्ध के बाद रक्त का मिश्रण होता है और हमारी कौम तो दुनिया की सबसे अधिक हारी हुई कौम है । ’ किशन पटनायक इस सबक को समझाते हुए कहते हैं , ’ तीन सौ साल बाद किसी की कोई संतान भी नहीं रह जाती , सिर्फ़ वंशधर रह जाते हैं । किसी भी भाषा में परदादा और प्रपौत्र के आगे का संबंध जोड़ने वाला शब्द नहीं है । नाती ,पोते , प्रपौत्र के आगे की स्मृति नष्ट हो जाती है । इसीलिए कबीलाई संस्कृति में भी बदला लेने का अधिकार नाती – पोते तक रहता है । युग बदलने से कर्म विचार और भावनाओं का संदर्भ भी बदल जाता है । हमारे युग में मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने का लक्ष्य हो नहीं सकता क्योंकि हमारे युग का संदर्भ भिन्न है । ’ इतिहास और बदले के इस सिद्धांत को पाठ्य – पुस्तकों में नहीं लिखा गया है नतीजतन पढ़े – लिखे लोग भी भ्रमित हो जाते हैं । इस सिद्धांत को मौजूदा न्याय व्यवस्था द्वारा नजरअंदाज किया जाना भी सांघातिक होगा । सामान्य दीवानी मामले से ऊपर उठकर इस प्रकरण को संवैधानिक मूल्यों की कसौटी पर कसना वक्त का तकाजा है । बाबरी मस्जिद का निर्माण यदि १५२८ ईसवी में हुआ था तब वह भारत में मुगलों के आने के बाद की पहली इमारतों में रही होगी । इसके पहले तुर्क – अफ़गान काल के स्थापत्य के नमूने उपलब्ध हैं और फिर बाद के मुगल काल के भी । इस खास तरह की वास्तुकला के विकास को समझने में यह मस्जिद एक महत्वपूर्ण कड़ी जिसे तालिबानी मानसिकता ने नष्ट कर दिया । यहाँ कुस्तुन्तुनिया की ’ आया सूफ़िया ’ मस्जिद का उल्लेख प्रासंगिक है । ७ अगस्त , १९३५ को जवाहरलाल नेहरू ने एक संदर लेख में इस विशिष्ट मस्जिद का इतिहास लिखा है । इस इमारत ने नौ सौ वर्ष तक ग्रीक धार्मिक गाने सुने । फिर चार सौ अस्सी वर्ष तक अरबी अजान की आवाज उसके कानों में आई और नमाज पढ़ने वालों की कतारें उसके पत्थरों पर खड़ी हुईं । १९३५ में गाजी मुस्तफ़ा कमालपाशा ने अपने हुक्म सेयह मस्जिद बाइजेन्टाइन कलाओं का संग्रहालय बना दी। बाइज्न्टाइन जमाना तुर्कों के आने के पहले का ईसाई जमाना था और यह समझा जाता था कि बाइजेन्टाइन कला खत्म हो गई है । जवाहरलाल नेहरू ने इस लेख के अंत में लिखा है – ’ फाटक पर संग्रहालय की तख़्ती लटकती है और दरबान बैठा है । उसको आप अपना छाता – छड़ी दीजिए , उनका टिकट लीजिए और अंदर जाकर इस प्रसिद्ध पुरानी कला के नमूने देखिए और देखते – देखते इस संसार के विचित्र इतिहास पर विचार कीजिए , अपने दिमाग को हजारों वर्ष आगे – पीछे दौड़ाइए । क्य – क्या तस्वीरें , क्या – क्या तमाशे . क्या – क्या जुल्म,क्या – क्या अत्याचार आपके सामने आते हैं । उन दीवारों से कहिए कि आपको कहानी सुनावें , अपने तजुरबे आपको दे दें । शायद कल और परसों जो गुजर गए , उन पर गौर करने से हम आज को समझें , शायद भविष्य के परदे को भी हटाकर हम झाँक सकें । ’ लेकिन वे पत्थर और दीवारें खामोश हैं । जिन्होंने इतवार की ईसाई पूजा बहुत देखी और बहुत देखीं जुमे की नमाजें । अब हर दिन की नुमाइश है उनके साए में । दुनिया बदलती रही,लेकिन वे कायम हैं । उनके घिसे हुए चेहरे पर कुछ हल्की मुस्कराहट-सी मालूम होती है और धीमी आवाज-सी कानों में आती है – ’ इंसान भी कितना बेवकूफ़ और जाहिल है कि वह हजारों वर्ष के तजुरबे से नहीं सीखता और बार – बार वही हिमाकतें करता है । ’

(साभार – सर्वोदय प्रेस सर्विस , आलेख : ८१ , २०१० – ११)

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