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Archive for the ‘communalism’ Category

राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता एक दूसरे को कमजोर करनेवाली होती है,क्योंकि राष्ट्रीयता के परिधान में ही साम्प्रदायिकता आकर्षक लगती है।न सिर्फ साम्प्रदायिकता की चुनौती को झेलने के लिए बल्कि अलगाववाद पर नियंत्रण पाने के लिए भी राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के संबंध में एक दृढ़ और स्पष्ट अवधारणा को प्रचारित करना जरूरी हो गया है।नई आर्थिक नीतियों के कारण हमारी आजादी पर खतरे की आशंका व्यापक हो रही है।आर्थिक नीतियों के मामले में राष्ट्रवाद को परिभाषित करना ही होगा।यहां से शुरू करके राष्ट्र संबंधी पूर्णांग धारणा विकसित हो सकती है। – किशन पटनायक

भारतीय संस्कृति का स्थान भी साम्प्रदायिकता ले रही है,मानो पश्चिमी संस्कृति को मानने वाले ही साम्प्रदायिकता का विरोध कर रहे हैं।बात बिल्कुल ऐसी नहीं है क्योंकि पश्चिमी संस्कृति को मानने वाले राजनीतिक स्तर पर अब बड़ी संख्या में भाजपा के समर्थक बनते जा रहे हैं।इसलिए भारतीय संस्कृति का एक ग़ैरसाम्प्रदायिक आधुनिक रूप प्रचारित होना बहुत जरूरी है।आजादी के पहले रवींद्रनाथ ठाकुर इसके प्रभावी प्रतीक थे।आजादी के बाद पश्चिमीकृत संस्कृति के विकल्प में सिर्फ सती प्रथा और आसाराम स्थापित हो रहे हैं।
-किशन पटनायक

गैर भाजपाई दलों में सपा और बसपा का अकेला मोर्चा है जो संघ परिवार से भयभीत नहीं जान पड़ रहा है।इससे एक सबक लेना है-एक सीधा और गहरा सबक।संघ परिवार से मुकाबला करने के लिए जिस जनाधार की जरूरत है वह शूद्र-दलित समन्वय से बनता है ।जिस राजनैतिक दल का नेतृत्व मुख्य रूप से उच्च जातिवाला है,जिसके कार्यकर्ता भी सामान्यतया उच्च जाति से आते हैं,उसके पांव संघ परिवार से लड़ते वक्त लड़खड़ाते हैं।कई सामाजिक और ऐतिहासिक कारणों से उसके अंदर दुविधाएं और कमजोरियां पैदा होती हैं।
– किशन पटनायक

अंततोगत्वा संघ परिवार की धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक नीतियों का लक्ष्य समाज में ब्राह्मणवाद को पुनः स्थापित करना है।इसलिए ब्राह्मण-बनिया-राजपूत जातियों का एक स्वाभाविक आकर्षण इन नीतियों के प्रति होता है।यह सही है कि कई बार राजपूत और यादव,कायस्थ और कुर्मी समान रूप से मुसलमान विरोधी यानी साम्प्रदायिक दिखाई देते हैं।लेकिन गहराई में जाने पर पिछड़ों और दलितों का साम्प्रदायिक विद्वेष बहुत सतही मालूम होगा। ब्राह्मणवादी विचारों के हिसाब से ब्राह्मण ही पूरी तरह हिन्दू है या फिर द्विज जातियां।शूद्र जातियां अपेक्षाकृत कम हिन्दू हैं और दलितों का हिंदुत्व नगण्य है।अतः जिस दाल का नेतृत्व जितना द्विज प्रधान होगा,साम्प्रदायिकता के मुकाबले वह अपने को उतना दुविधाग्रस्त पाएगा।भाजपा से लड़ने में उसका आत्मविश्वास उतना कमजोर पाया जाएगा।उसका नेता प्रबल धर्मनिरपेक्षतावादी हो सकता है,लेकिन उसके अपने परिवार और स्वजनों के बीच उसकी बातें प्रभावी नहीं होंगी।
-किशन पटनायक
(धर्मनिरपेक्षता का घोषणापत्र 4)

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देश फिलहाल सांप्रदायिकता और पृथकतावादी दौर से गुजर रहा है । अविश्वास भरे माहौल में लोग जीने को विवश हैं,पंजाब तो पहले से ही आतंक के साये में जी रहा था,देश के अन्य भाग भी सांप्रदायिकता की आग में जलने लगे हैं।पहले जहां हिन्दू और मुसलमानीक दूसरे के पर्वों में खुले दिल और दिमाग से हिस्सा लिया करते थे,वहीं अब धार्मिक जुलूस और जलसे लोगों के बीच की दूरी को बढ़ाने के सबल हथियार बन रहे हैं।कारण क्या है ? क्या धर्म की तीव्र अनुभूति के कारण ऐसा हो रहा है? महज पूजन प्रणाली के अन्तर के आधार पर आदमी-आदमी के बीच दुराव को बढ़ावा देना ही धर्म की भूमिका है ? इन प्रश्नों के उत्तर की तलाश ही सांप्रदायिकता की दिशा में उठाया गया सही कदम होगा।
कुछ लोग, खासकर कुछ वामपंथी समूह मानते हैं कि साम्प्रदायिकता की जड़ धर्म ही है और जब तक धर्म रहेगा साम्प्रदायिकता भी रहेगी । वे मानते हैं कि धर्म का काम लोगों को सम्मोहित कर उन्हें इतना जड़ बना देना है कि वे अपने शोषण का प्रतिकार भी न कर सकें ।इस तरह उनकी दृष्टि में धर्म शोषकों का हथियार है और समस्या का सली समाधान धर्मों का उन्मूलन है । लेकिन धर्म के सम्बन्ध में सही वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इसी तरह धर्मों के उन्मूलन की बात भी व्यावहारिक नहीं मालूम पड़ती। समाजवादी कहे जाने वाले देश रूस और चीन में ऐसे प्रयासों के नतीजे उत्साहवर्धक नहीं रहे हैं । सत्तर वर्ष के कम्युनिस्ट प्रयासों के बावजूद आज पूर्वी यूरोप में जिस तरह ईसाई मत फिर से लोगों को आकृष्ट कर रहा है या सोवियत यूनियन के अजरबेजान मणराज्य में जिस तरह इस्लामी कट्टरता बढ़ी है , उस पर विचार करने से धर्मों को नष्ट करने का समाधान ढूंढ़ना व्यावहारिक नहीं लगता ।

ऐसे प्रयासों की असफलता का कारण यह है कि धर्म के सम्बन्ध में कम्युनिस्ट विचार बुनियादी तौर पर गलत हैं।किसी भी समाज में कुछ मूल्य अनिवार्य रूप से धुरी का काम करते हैं, जिनके इर्द-गिर्द उस समाज के लोगों के सामाजिक और निजी व्यवहार नियन्त्रित होते हैं ; और ये मूल्य किसी-न-किसी रूप में धार्मिक मान्यताओं के अंग होते हैं।
इसके अलावा इतिहास बतलाता है कि अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन अक्सर धर्म द्वारा स्थापित मूल्यों के आधार पर ही होते रहे हैं। यूरोप में किसान आन्दोलन के पीछे ,और बहुत कुछ समाजवादी आन्दोलन के पीछे भी,ईसाई धर्म द्वारा प्रतिपादित समता और बंधुत्व के मूल्य काम कर सके।कुछ धार्मिक मठाधीशों द्वारा शोषण का समर्थन यह सिद्ध नहीं करता कि धर्म हर हालत में शोषकों का माध्यम है । सच तो यह है कि धर्म का हठपूर्ण दुराग्रह उसकी आत्मा के क्षरणकाल में ही शुरु होता है और तभी साम्प्रदायिकता जन्म लेती है।

  अपने व्यवहार में मनुष्य मूलतः आवेगों का दास होता है । धर्म का मुख्य काम मनुष्य के स्वभावगत आवेगों को नियंत्रित कर उनके विनाशकारी नतीजों से बचाना है । अब यह बात लगभग मानी जाने लगी है कि पशुओं और मनुष्यों में अपनी प्रजाति के अन्य सदस्यों के खिलाफ पाया जाने वाला आक्रामक संवेग उनका आनुवंशिक गुण है । लेकिन पशुओं के चरित्र में कुछ ऐसी प्रक्रियाएं होती हैं , जिससे उनकी आक्रामकता पर पर स्वतः आंतरिक अवरोध लग जाता है,और उनकी आक्रामकता अन्य सदस्यों की हत्या या उन्हें गंभीर रूप से जख्मी करने की हद तक नहीं जाती , वहीं मनुष्य के चरित्र में आक्रामकता पर कोई अन्तरनिहित अवरोध नहीं लगाता, मनुष्य में यह अवरोध उनकी संस्कृति और धर्म के जरिए आता है जो उन्हें अपनी प्रजाति के अन्य सदस्यों पर घातक प्रहार करने से रोकता है । लेकिन चूंकि धर्म और संस्कृति पर अनेक तरह के विपरीत दबाव पड़ते रहते हैं , इसलिए इतिहास व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से मनुष्यों द्वारा अन्य मनुष्यों की संहारलीला से भरा पड़ा है । फिर भी आदमी को धर्मों द्वारा प्रतिपादित उदात्त मूल्यों को लेकर चलने की उर्जा भी परोपकार के आनुवंशिक गुण से ही प्राप्त होती है। यह परोपकार भाव , यानी दूसरे मनुष्यों के लिए हित के लिए अपना उत्सर्ग करना धर्म का प्राण होता है ।
लेकिन आनुवंशिकी से प्राप्त परोपकार भाव बिल्कुल दोषमुक्त नहीं होता । आचारशास्त्री कौनरॉड लैरेंज के अनुसार मनुष्य या पशु में अपने समूह के प्रति यह परोपकार भाव उसी अनुपात में तीव्र होता है , जिस अनुपात में दूसरे समूहों के खिलाफ आक्रामकता का भाव तेज होता है । मानव स्वभाव में इन दो विपरीत गुणों का जोड़ा होना बड़ा ही अनर्थकारी सिद्ध होता है । धर्मभाव , जो संपूर्ण मानव समाज के कल्याण को लेकर चलता है जब अपने को छोटे समुदायों के साथ एकाकार कर चलने लगता है , तभी दूसरे धार्मिक या अन्य मानव समुदायों के खिलाफ आक्रामक हो जाता है । यही भावना साम्प्रदायिकता की जड़ में है । इसलिए सम्प्रदायवाद की स्थिति अत्यधिक विरोधाभास की होती है । इसका जन्म धर्मभाव से होता है , जिसका लक्ष्य सम्पूर्ण मानवतंत्र का कल्याण है , लेकिन यह अपने को एक छोते समूह के साथ जोड़कर दूसरे धार्मिक समूहों के प्रति इतना आक्रामक हो जाता है कि अपने धर्म की मूल मान्यताओं को तिलांजलि दे देता है और अपने समूह के ‘हित’ में अन्य मानव समूहों को समूल नष्ट करने की आकांक्षा से भी पीछे नहीं हटता । इस कमजोरी को समझ कुछ लोग इस भाव का अपने स्वार्थ में उपयोग करते हैं । इसी का नतीजा है कि इतिहास धर्मयुद्धों तथा एक धर्म के अनुयायिओं द्वारा दूसरे धर्म के अनुयायिओं के उत्पीड़न की घटनाओं से भरा पड़ा है ।

   इस तरह सांप्रदायिकता धर्मभाव से पैदा होती , लेकिन इसका आचरण धर्मभाव के ठीक विपरीत होता है । यानि जहां धर्म का मूल उद्देश्य होता है , मनुष्यों के बीच वैमनस्य दूर कर प्रेम-भाव पैदा करना ,वहां संप्रदायवाद प्रेमभाव को अपने समुदाय तक सीमित रखता है और इस प्रेमभाव की कीमत वह दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा को बढ़ावा देकर वसूलता है। इसी का नतीजा है कि अठारहवीं शताब्दी तक ईसाइयों के विभिन्न सम्प्रदाय एक दूसरे के खिलाफ हिंसा मचाते रहे हैं और ‘इंक्विजिशन’ के काम में तो छोटे-छोटे मतभेदों के लिए लोगों को जिंदा जलाया जाता रहा। इसी तरह हिंदू धर्म के अनुयाई ,जिनके धर्म में अबला,बच्चे और निरल दुश्मनों तक पर हमला करना निषिद्ध है,सांप्रदायिक दंगों में निरपराध और निहत्थे औरतों,बच्चों या अन्य लोगों की हत्या करने या उन पर दूसरे तरह के अत्याचार करने से बाज नहीं आते । यही हाल इस्लाम का भी है,जिसमें वैसे दुश्मनों पर भी हमला करना निषिद्ध है,जो पहले हमला न करें ।फिर भी दंगों में प्रायः निरपराध लोगों पर ही हमला किया जाता है।इस तरह संप्रदायवाद से सबसे पहले उन धार्मिक सिद्धान्तों की ही बलि होती है,जिनकी रक्षा का दावा साम्प्रदायिक समूह करते हैं ।

लेकिन अगर मानव प्रजाति में अपने समूह के लिए आत्मोत्सर्ग का भाव मनुष्यों के ही दूसरे के प्रति आक्रामकता से जुड़ा है, जैसा कि आचारशास्त्री बतलाते हैं तथा जैसा कि मानव समूहों के व्यवहार से भी ज्ञात होता है , तो धर्म को मिटाकर भी सांप्रदायिकता की समस्या खत्म न होगी ! तब ऐसी आक्रामकता धार्मिक जमातों की जगह ऐसी दूसरी जमातों की ओर मुड़ेगी , जिन्हें बाहरी समझा जाता है । इतिहास का अनुभव यही बतलाता है कि कहीं यह आक्रामकता वैसे दूसरे मूल या नस्ल के खिलाफ, कहीं दूसरी जाति के खिलाफ, कहीं वैसी दूसरी भाषा या राष्ट्रीय जमातों के खिलाफ मोड़ दी जाती है , जिन्हें बाहरी समझा जाता है । अमरीका में नीग्रो लोगों के खिलाफ सफेद लोगों की आक्रामकता ऐसी ही है,क्योंकि सफेद और रंगीन दोनों प्रायः ईसाई हैं,सोवियत यूनियन के विभिन्न राष्ट्रीय समूहों के बीच जो संघर्ष अभी उभरे हैं, वे भी ऐसे ही हैं । अफ्रीका के देशों- जैसे नाइजीरिया, सूडान आदि – में ऐसे ही संघर्ष विभिन्न कबीलों के बीच चल रहे हैं। भारत में जातीय संघर्षों के पीछे भी ऐसी ही आक्रामकता काम करती है।
ऊपर की बातों से साफ है कि धर्म का उन्मूलन सांप्रदायिक भावना को रोकने का उपाय नहीं हो सकता । असल में धर्म से जुड़ी सांप्रदायिकता को मिटाने का एक उपाय धर्म की सच्ची समझदारी फैलाना हो सकता है। चाहे वह ईसाई,इस्लाम,बौद्ध या हिन्दू धर्म हो,उनके केन्द्र में समस्त मानव वंश के कल्याण की कामना है । अगर इन धर्मों के अन्यायी अपने धर्मों की मूल भावना को समझने लगें तो धर्म और सांप्रदायिकता का भेद उन्हें दिखाई देने लगेगा। इसलिए सांप्रदायिक तनाव खत्म करने का एक उपाय तो लोगों को धर्म और सांप्रदायिकता का भेद साफ तौर पर बतलाना हो सकता है ।
लेकिन सिर्फ उपदेश ही काफी नहीं है। धर्मानुयायियों को संप्रदायों में बांधने वाले कुछ बाहरी प्रतीक और अनुष्ठान होते हैं ,जिनसे धार्मिक समूहों का अलग अस्तित्व बना है । अपने आप में यह कोई बुरी चीज नहीं है। लेकिन अगर समाज में ऐसे दूसरे प्रतीक या अनुष्ठान न हों,जो लोगों में समूचे विश्व के प्रति नैसर्गिक तादात्म्य भाव स्फूरित कर सकें तो लोग अपने अपने संप्रदायों और समूहों में सिमटने लगते हैं और संप्रेषण छीजने लगता है , इससे दूसरों पर संदेह और निर्मूल आशंका पैदा होती है। अलगाव से संप्रेषण घटता है,इसलिए सुनियोजित ढंग से ऐसे प्रयास होने चाहिए,जिसमें मिले-जुले कामों का दायरा बढ़ता रहे और लोग दूसरे समूह को दूसरे समूह के सदस्यों के बजाय एक इंसान के रूप में पहचान सकें। स्थायी रूप से सांप्रदायिक या अन्य सामूहिक झगड़ों को मिटाने के ऐसे ही उपाय कारगर हो सकते हैं ।

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हाल में समाचारपत्रों में एक अत्यंत दुःखद और चिन्ताजनक खबर छपी, जिसके अनुसार पाकिस्तान में कट्टरपन्थियों ने उनमें से कई महिलाओं को जान से मार दिया जो बच्चों को पोलियो की दवा पिला रही थीं। कट्टरपन्थियों का मानना है कि पोलियो उन्मूलन अभियान, दरअसल, मुसलमानों की आबादी कम करने का अन्तर्राष्ट्रीय षडयन्त्र है। वे ऐसा सोचते हैं कि पोलियो की दवा पीने से लड़के नपुंसक हो जायेंगे। भारत में भी कुछ मुसलमान और इमाम ऐसा ही सोचते हैं और जु़मे की नमाज के बाद होने वाली तकरीरों में कई इमामों ने मुसलमानों से यह अपील की कि वे सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपने बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने की इजाजत न दें। असगर अली इंजीनियर

परन्तु भारत में यह मुद्दा केवल चंद इमामों की अपीलों तक सीमित रहा। किसी व्यक्ति को कोई शारीरिक नुकसान नहीं पहुँचाया गया – कत्ल तो दूर की बात है। पाकिस्तान के कट्टरपन्थी हिंसा की संस्कृति में विश्वास रखते हैं और उनके पास उनकी आज्ञा को न मानने वाले के लिये एक ही सजा है-मौत। मलाला को इसलिये मार डालने की कोशिश की गयी क्योंकि उसने तालिबान की बात नहीं सुनी और बच्चियों की शिक्षा की वकालत करती रही। जो लोग इस्लाम के नाम पर दूसरों को मारते हैं वे सच्चे मुसलमान तो हैं ही नहीं, बल्कि वे तो मुसलमान कहलाने के लायक भी नहीं हैं। धर्मपरायण मुसलमान होने के लिये व्यक्ति को न्याय करने वाला होना चाहिये। कुरान कहती है ‘‘न्याय करो : यही धर्मपरायणता के सबसे नजदीक है। अल्लाह से डरते रहो, निःसंदेह, जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसकी खबर रखता है‘‘ (5ः8)।

कोई भी ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की जान लेता है स्वयं को न्याय करने वाला कैसे कह सकता है? न्याय करना वैसे भी बहुत कठिन काम है। हत्यारे को सजा देने के लिये कम से कम दो धर्मपरायण और ईमानदार गवाहों की आवश्यकता होती है। और बलात्कार को साबित करने के लिये कम से कम चार ऐसे गवाह चाहिये होते हैं। शरीयत कानून के अनुसार, किसी भी व्यक्ति की गवाही स्वीकार करने के पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि वह व्यक्ति ईमानदार, पवित्र और धर्मपरायण है। हर किसी की गवाही को स्वीकार नहीं किया जा सकता। किसी को मारने की इजाजत तभी है जब उस व्यक्ति ने कत्ल किया हो और वह भी कत्ल-ए-अमत (जानबूझकर व सोच-समझकर)। अल्लाह तो यही चाहता है कि कातिल को मुआवजा लेकर या बिना मुआवजा लिये माफ कर दिया जाये।

किसी भी व्यक्ति को बिना उचित कारण के जान से मारना एक बहुत बड़ा पाप है। कुरान कहती है ‘‘जिसने किसी व्यक्ति का, किसी के खून का बदला लेने या ज़मीन में फ़साद फैलाने के सिवाय, किसी और कारण से कत्ल किया तो मानो उसने समस्त मनुष्यों की हत्या कर डाली और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो समस्त मनुष्यों को जीवन प्रदान किया‘‘ (5ः32)। यह कुरान की सबसे महत्वपूर्ण आयतों में से एक है। जीवन पवित्र है और किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी अन्य व्यक्ति का जीवन अकारण ले ले। किसी की जान लेने के लिये बहुत महत्वपूर्ण कारण होना चाहिये। अगर हम मनुष्य एक-दूसरे को अकारण और जब चाहे मारने लगेंगे तो इस धरती से मानव जाति का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।

सामान्यतः, हथियारों का इस्तेमाल स्वयं की रक्षा के लिये किया जाना चाहिये। किसी की जान लेने के लिये नहीं। क्या कोई यह बता सकता है कि शरीयत में कहाँ यह लिखा है कि पोलियो की दवा पिलाने की सजा मौत है? पोलियो की दवा तो उस समय थी ही नहीं जब शरीयत लिखी गयी थी। कट्टरपन्थी धार्मिक नेता वैसे तो शरीयत कानून में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का कड़ा विरोध करते हैं – फिर चाहे वह कितना ही औचित्यपूर्ण क्यों न हो – परन्तु अपनी सुविधानुसार वे शरीयत कानून में कुछ भी जोड़ – घटा लेते हैं या शब्दों और वाक्यों के ऐसे अर्थ निकाल लेते हैं जो उनके हितों और लक्ष्यों के अनुरूप हों। पोलियो की दवा पिलाने वाली महिलाओं की हत्या इसी तरह के किसी बेहूदा तर्क के आधार पर की गयी। यह शरीयत कानून में मनमाना परिवर्तन है जिसे किसी भी हालत में औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता।

ये वही कट्टरपन्थी हैं जिन्हें नारकोटिक ड्रग्स का उत्पादन करने और उन्हें बेचने से कोई गुरेज नहीं है। वे इन ड्रग्स को बेचकर अकूत धन कमाते हैं और उससे खरीदे गये हथियारों का इस्तेमाल युवाओं की जान लेने के लिये करते हैं। इस्लाम में शराब सहित सभी नशीले पदार्थों पर कड़ा प्रतिबन्ध है परन्तु यह सर्वज्ञात है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालिबान, बड़े पैमाने पर ड्रग्स का उत्पादन करते हैं, उन्हें तस्करी के जरिये दूसरे देशों में ऊँची कीमत पर बेचते हैं और उस धन से हथियार खरीदते हैं। मैंने अफगानिस्तान में कई ड्रग-विरोधी सम्मेलनों में भाग लिया है और मैं जानता हूँ कि हथियार और असलाह की अपनी लिप्सा पूरी करने के लिये तालिबान ने हजारों ज़िन्दगियाँ तबाह कर दी हैं। अफगानिस्तान में महिलाएं तक ड्रग्स लेने की आदी हैं। यह है तालिबान का इस्लाम।

तालिबान से हम यह भी जानना चाहेंगे कि यह उन्हें किसने बताया कि पोलियो की दवा से पुरूष नपुंसक हो जाते हैं। क्या वे किसी वैज्ञानिक अनुसन्धान के आधार पर इस नतीजे पर पहुंचें हैं? या वे केवल अफवाहों के आधार पर किसी भी विषय पर अपना मत बना लेते हैं? किसी भी बात पर उसकी सत्यता का पता लगाये बिना विश्वास कर लेने की कुरआन सख्त शब्दों में निंदा करती है। कुरान की आयत 48:9, 48:12, 49:12 और 53:23 में इस प्रवृत्ति की आलोचना की गयी है। कुरान कहती है कि कई मामलों में ऐसा करना गुनाह करने जैसा है और कई बार हम अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिये ऐसी बातों को सच बताने लगते हैं जो सही नहीं हैं। कुरान इस तरह की प्रवृत्ति को घोर अनुचित करार देती है। अगर तालिबान केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर पोलियो की दवा पिलाने वाली महिलाओं का कत्ल कर रहे हैं तो यह कुरान की दृष्टि में गुनाह है। और यदि वे अनुसन्धान या किसी और तरीके से इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि पोलियो की दवा नपुंसकता को जन्म देती है तो उन्हें इसका प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिये। क्या वे यह चाहते हैं कि छोटे-छोटे बच्चे पोलियो के कारण अपना पूरा जीवन अपाहिज के तौर पर बिताने पर मजबूर हों? जीवन अल्लाह की एक सुन्दर भेंट है। क्या वे चाहते हैं कि हजारों-लाखों बच्चे ईश्वर की इस भेंट का आनन्द न ले पायें और वह भी केवल तालिबान की गलतफहमी या कमअक्ली के कारण?

पल्स पोलियो अभियान को संयुक्त राष्ट्र संघ ने शुरू किया है और इसका लक्ष्य है धरती के माथे से पोलियो के कलंक को मिटाना। इस अभियान का उद्धेश्य हमारी पृथ्वी के निवासियों को अधिक स्वस्थ और प्रसन्न बनाना है। यह दवा केवल मुसलमानों को नहीं पिलायी जा रही है। पूरी दुनिया में सभी धर्मों के बच्चे इस दवा का सेवन कर रहे हैं। पूरी मानवता इस अभियान से लाभान्वित हो रही है, विशेषकर अफ्रीका और एशिया के वे इलाके जहाँ गरीबी, बदहाली और भूख ने अपने पाँव पसार रखे हैं। ऐसा लग रहा है कि पल्स पोलियो अभियान का विरोध, दरअसल, तालिबान का एक षडयन्त्र है जिसका लक्ष्य मुसलमानों की आने वाली पीढ़ियों को अपाहिज बनाना है ताकि वे तालिबान की दया और दान पर निर्भर रहें।

कुरान और हदीस में इल्म पर बहुत जोर दिया गया है। इसके चलते होना तो यह था कि मुसलमान, विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मामले में पूरी दुनिया में सबसे आगे होते। परन्तु यह दुःखद है कि मुस्लिम कट्टरपन्थी इतने अज्ञानी और अन्धविश्वासी हैं और वे बन्दूक के बल पर मुसलमानों को अज्ञानता के अंधेरे में कैद रखना चाहते हैं। मुसलमानों का यह कर्तव्य है कि वे अज्ञानता का नाश करें और ज्ञान के युग का आगाज़ करें। तालिबान आधुनिक शिक्षा के विरोधी हैं। वे महिलाओं को शिक्षित और स्वतन्त्र देखना नहीं चाहते। यहाँ तक कि वे आधुनिक दवाओं तक के विरोधी हैं। वे केवल बन्दूकों की खेती कर रहे हैं। क्या यह इस्लाम है? हमें युवा मुसलमानों को प्रेरित करना होगा कि वे तालिबान के अभिशाप के खिलाफ खुलकर खड़े हों। यह अभिशाप उतना ही खतरनाक है जितना कि पोलियो।

(लेखक डॉ. असगर अली इंजीनियर मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। जिनका आज निधन हो गया l मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

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इंसाफ़

अगर लोग इंसाफ़ के लिए तैयार न हों।

और नाइंसाफ़ी उनमें विजय भावना भरती हो।

तो यक़ीन मानिए,

वे पराजित हैं मन के किसी कोने में।

उनमें खोने का अहसास भरा है।

वे बचाए रखने के लिए ही हो गये हैं अनुदार।

उन्हें एक अच्छे वैद्य की ज़रूरत है।

वे निर्लिप्त नहीं, निरपेक्ष नहीं,

पक्षधरता उन्हें ही रोक रही है।

अहंकार जिन्हें जला रहा है।

मेरी तेरी उसकी बात में जो उलझे हैं,

उन्हें ज़रूरत है एक अच्छे वैज्ञानिक की।

हारे हुए लोगों के बीच ही आती है संस्कृति की खाल में नफ़रत।

धर्म की खाल में राजनीति।

देशभक्ति की खाल में सांप्रदायिकता।

सीने में दफ़्न रहता है उनके इतिहास।

आँखों में जलता है लहू।

उन्हें ज़रूरत है एक धर्म की।

ऐसी घड़ी में इंसाफ़ एक नाज़ुक मसला है।

देश को ज़रूरत है सच के प्रशिक्षण की।

– फ़रीद ख़ान

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गांधी जी के सचिव प्यारेलाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पूर्णाहुति में सितम्बर , १९४७ में संघ के अधिनायक गोलवलकर से गांधीजी की मुलाकात , विभाजन के बाद हुए दंगों में तथा गांधी – हत्या में संघ की भूमिका का विस्तार से वर्णन किया है । गोलवलकर से गांधी जी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे – ‘ संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है । उन्होंने अनुशासन , साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है ।’ गांधी जी ने उत्तर दिया – ‘ परन्तु यह न भूलिये कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था ।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘ तानाशाही दृष्टिकोण रखनेवाली सांप्रदायिक संस्था बताया । ( पूर्णाहुति , चतुर्थ खंड, पृष्ठ : १७)

अपने एक सम्मेलन में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता ने उन्हें ‘ हिन्दू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष ‘ बताया । उत्तर में गांधी जी बोले –  ‘मुझे हिन्दू होने का गर्व अवश्य है । परन्तु मेरा हिन्दू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी है । हिन्दू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है , यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है । यदि हिन्दू यह मानते हों कि भारत में अहिन्दुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दरजे से संतोष करना होगा… तो इसका परिणाम यह होगा कि हिन्दू धर्म श्रीहीन हो जायेगा.. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा ।’

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधी जी से पूछा गया – ‘ क्या हिन्दू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता ? यदि नहीं देता , तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है , उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है ?’

गांधी जी ने कहा – ‘ पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है । मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है ?दूसरे शब्दों में , हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जायें । एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने अथवा फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है ? रही बात दूसरे प्रश्न की । यह मान भी लिया जाये कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है , तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है । अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जायें , तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जायेंगे…. उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए , कानून को अपने हाथों में ले कर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए । ( संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड : ८९ )

३० नवंबर ‘४७ के प्रार्थना प्रवचन में गांधी जी ने कहा , ‘ हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है कि हिन्दुत्व की रक्षा का एक मात्र तरीका उनका ही है । हिंदू धर्म को बचाने का यह तरीका नहीं है कि बुराई का बदला बुराई से । हिंदू महासभा और संघ दोनों हिंदू संस्थाएं हैं । उनमें पढ़े – लिखे लोग भी हैं । मैं उन्हें अदब से कहूंगा कि किसी को सता कर धर्म नहीं बचाया जा सकता…

‘.. कनॉट प्लेस के पास एक मस्जिद में हनुमान जी बिराजते हैं , मेरे लिए वह मात्र एक पत्थर का टुकड़ा है जिसकी आकृति हनुमान जी की तरह है और उस पर सिन्दूर लगा दिया गया है । वे पूजा के लायक नहीं ।पूजा के लिए उनकी प्राण प्रतिष्ठा होनी चाहिए , उन्हें हक से बैठना चाहिए । ऐसे जहां तहां मूर्ति रखना धर्म का अपमान करना है ।उससे मूर्ति भी बिगड़ती है और मस्जिद भी । मस्जिदों की रक्षा के लिए पुलिस का पहरा क्यों होना चाहिये ? सरकार को पुलिस का पहरा क्यों रखना पड़े ? हम उन्हें कह दें कि हम अपनी मूर्तियां खुद उठा लेंगे , मस्जिदों की मरम्मत कर देंगे । हम हिन्दू मूर्तिपूजक हो कर , अपनी मूर्तियों का अपमान करते हैं और अपना धर्म बिगाड़ते हैं ।

‘ इसलिए हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे जो भी मुझे सुनना चाहते हैं और सिखों को बहुत अदब से कहना चाहूंगा कि सिख अगर गुरु नानक के दिन से सचमुच साफ हो गये , तो हिन्दू अपने आप सफ हो जायेंगे । हम बिगड़ते ही न जायें , हिंदू धर्म को धूल में न मिलायें । अपने धर्म को और देश को हम आज मटियामेट कर रहे हैं । ईश्वर हमें इससे बचा ले ‘। ( प्रार्थना प्रवचन ,खंड २ , पृ. १४४ – १५० तथा संपूर्ण गांधी वांग्मय , खंड : ९० )

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को अपने अंतिम संबोधन ( १८ नवंबर ‘४७ ) में उन्होंने कहा , ‘ मुझे पता चला है कि कुछ कांग्रेसी भी यह मानते हैं कि मुसलमान यहां न रहें । वे मानते हैं कि ऐसा होने पर ही हिंदू धर्म की उन्नति होगी । परंतु वे नहीं जानते कि इससे हिंदू धर्म का लगातार नाश हो रहा है । इन लोगों द्वारा यह रवैया न छोड़ना खतरनाक होगा … काफी देखने के बाद मैं यह महसूस करता हूं कि यद्यपि हम सब तो पागल नहीं हो गये हैं , फिर कांग्रेसजनों की काफी बडी संख्या अपना दिमाग खो बैठी है..मुझे स्पष्ट यह दिखाई दे रहा है कि अगर हम इस पागलपन का इलाज नहीं करेंगे , तो जो आजादी हमने हासिल की है उसे हम खो बैठेंगे… मैं जानता हूं कि कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपनी आत्मा को मुसलमानों के चरणों में रख दिया है , गांधी ? वह जैसा चाहे बकता रहे ! यह तो गया बीता हो गया है । जवाहरलाल भी कोई अच्छा नहीं है । रही बात सरदार पटेल की , सो उसमें कुछ है । वह कुछ अंश में सच्चा हिंदू है ।परंतु आखिर तो वह भी कांग्रेसी ही है ! ऐसी बातों से हमारा कोई फायदा नहीं होगा , हिंसक गुंडागिरी से न तो हिंदू धर्म की रक्षा होगी , न सिख धर्म की । गुरु ग्रन्थ-साहब में ऐसी शिक्षा नहीं दी गयी है । ईसाई धर्म भी ये बातें नहीं सिखाता । इस्लाम की रक्षा तलवार से नहीं हुई है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में मैं बहुत-सी बातें सुनता रहता हूं । मैंने यह सुना है कि इस सारी शरारत की जड़ में संघ है । हिंदू धर्म की रक्षा ऐसे हत्याकांडों से नहीं हो सकती । आपको अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी । वह रक्षा आप तभी कर सकते हैं जब आप दयावान और वीर बनें और सदा जागरूक रहेंगे, अन्यथा एक दिन ऐसा आयेगा जब आपको इस मूर्खता का पछतावा होगा , जिसके कारण यह सुंदर और बहुमूल्य फल आपके हाथ से निकल जायेगा । मैं आशा करता हूं कि वैसा दिन कभी नहीं आयेगा । हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोकमत की शक्ति तलवारों से अधिक होती है । ‘

संयुक्त राष्ट्रसंघ के समक्ष तत्कालीन हिंदुस्तानी प्रतिनिधिमण्डल की नेता श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित की आवाज में आवाज मिलाकर जब पाकिस्तानी प्रतिनिधिमण्डल के नेता विदेश मन्त्री जफ़रुल्ला खां , अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत एम. ए. एच. इरफ़ानी ने भी दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों पर अत्याचार का विरोध किया , तब गांधीजी अत्यन्र्त प्रसन्न हुए और १६ नवंबर ‘४७ को प्रार्थना में उन्होंने यह कहा , ‘ हिंदुस्तान(अविभाजित) के हिंदू और मुसलमान विदेशों में रहने वाले हिंदुस्तानियों के सवालों पर दो राय नहीं हैं , इससे साबित होता है कि दो राष्ट्रों का उसूल गलत है ।इससे आप लोगों को मेरे कहने से जो सबक सीखना चाहिए , वह यह है कि दुनिया में प्रेम सबसे ऊंची चीज है ।अगर हिंदुस्तान के बाहर हिंदू और मुसलमान एक आवाज से बोल सकते हैं , तो यहां भी वे जरूर ऐसा कर सकते हैं , शर्त यह है कि उनके दिलों में प्रेम हो … अगर आज हम ऐसा कर सके और बाहर की तरह हिंदुस्तान में भी एक आवाज से बोल सके , तो हम आज की मुसीबतों से पार हो जायेंगे! ( संपूर्ण गांधी वांग्मय , खण्ड : ९० )

विस्फोट के संस्थापक संजय तिवारी ने ’अयोध्या के राम’ की बाबत सर्वोदय कार्यकर्ता नारायण देसाई से एक साक्षात्कार में यह सवाल पूछा था :

सवाल- मोरारी बापू ने भी तीन किश्तों में गांधी कथा कही है और यह बताने की कोशिश की है गांधी के राम और अयोध्या के राम दोनों एक ही हैं. आप क्या कहेंगे?
जवाब- मैंने उनकी दांडी की वह कथा सुनी है जो गांधी पर उनकी पहली कथा है. वे जो कहना चाहते हैं वे कह रहे हैं लेकिन मेरा स्पष्ट मत है कि गांधी के राम और अयोध्या के राम एक ही नहीं है. गांधी जी ने खुद कहा था कि मेरा राम दशरथ का पुत्र राम नहीं है. वे कहा करते थे उनका राम वह तत्व है तो अल्ला में भी है, भगवान में भी है और ईसा मसीह में भी है. इसलिए मैं ऐसा बिल्कुल नहीं मानता हूं. एक बात मैं और बता दूं कि जब गांधी के बारे में मैं ऐसा कह रहा हूं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे रामचरित मानस को मान नहीं देते थे. आश्रम में नियमित रामचरित मानस का पाठ होता था. फिर भी वे जिस राम के सहारे थे वह अयोध्या के राम नहीं थे.

जस्टिस सुधर अग्रवाल ने अपने फैसले में कहा है ,

’वर्ष १५२८ में जब बाबरी मस्जिद बनी तब अयोध्या या और कहीं भी ऐसी मान्यता  नहीं थी कि जहां  बाबरी मस्जिद बनाई गई थी, वहां राम जन्मभूमि थी। वर्ष १५५८ में लिखी रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसका कोई जिक्र नहीं किया है । वाल्मीकी रामायण सहित किसी अन्य भाषाओं की रामायण में भी राम जन्म भूमि का उल्लेख नहीं मिलता है । राम जन्म भूमि का विचार पहली बार ईस्ट इंदिया कंपनी के एक एजेंट ने १८५५ में सामने रखा ।’

राम का नाम लेते हुए गोली खाने वाले गांधी की भावना और आचरण गोस्वामी तुलसीदास की इन पंक्तियों से प्रतिपादित होता है :

परहित सरिस धरम नहि भाई , पर पीड़ा सम नहि अधमाई

चूंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट की शातिरी के पहले अयोध्या में यदि कोई विवाद था तो उसका समाधान भी था इसलिए तुलसीदास को , ’मांग के खईबो ,मसीद में सोईबो’ में दिक्कत नहीं थी।




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इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ बाबरी मस्जिद – रामजन्मभूमि प्रकरण में मिल्कियत सम्बन्धी मुकदमें में इसी माह फैसला सुनाने जा रही है । एक पक्ष द्वारा उत्तर प्रदेश में घूम – घूम कर ’फैसला चाहे जो हो ’ , ’मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जाएगा’ तथा ’विधायिका को निर्णय लेना होगा ’ जैसी मंशा प्रकट की जा रही है । कुछ ही दिन पूर्व न्यायालय ने दोनों पक्षों के बीच सुलह के निष्फल प्रयास भी किए थे । एक लंबे समय तक बाबरी मस्जिद ने प्रकृति के खेलों और तूफ़ानों को बरदाश्त किया , लेकिन मनुष्यों की हिमाकतों और वहशतों को सहना उससे भी कठिन था । फिलहाल , एक ऐसी प्रक्रिया को तरजीह मिली है और एक शुरुआत हुई है जिससे , ’ तीन नहीं अब तीस हजार , बचे न एक कब्र मजार’ इस नारे में छुपी बुनियादी विकृति को बल मिलता है । ’ ताजमहल मंदिर भवन है’ तथा ’ कुतुब मीनार हिन्दू स्थापत्य की विरासत है ’ माननेवाले इतिहासकारों का एक छोटा-सा समूह देश में मौजूद है । बाबरी मस्जिद को तोड़ने के फौजदारी मामले के आरोपी गिरोह को सिर्फ़ ऐसे इतिहासकारों से ही बल मिलता है । इस मामले के दीवानी प्रकरण में भी वे एक पक्ष हैं । इनके दर्शन के तर्क को मान लेने पर अधिकांश ऐतिहासिक इमारतों को तोड़कर उनकी भूमि विभिन्न समुदायों को सौंप देनी होगी । समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने १९९० में इस सन्दर्भ में इतिहास का एक सिद्धान्त बतौर सबक पेश किया था । इस सबक के मुताबिक तीन सौ साल पुरानी घटना के साथ आप सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सकते । उन दिनों के योद्धाओं से प्रेरणा ले सकते हैं लेकिन उनकी वीरता की वाहवाही आप नही ले सकते । उन दिनों की ग़लतियों को आप सुधार नहीं सकते , सिर्फ़ आगे के लिए सतर्क हो सकते हैं । ’ इसी तरह उस युग के अपमानों का आप बदला नहीं ले सकते । होठों पर मुस्कान लिए आप थोड़ी देर मनन कर सकते हैं । बीते युग के असंख्य युद्धों और संधियों , जय – पराजय और मान – अपमान की घटनाओं को इतिहास के खेल के रूप में देखकर आपको अनुभव होगा कि आपकी छाती चौड़ी हो रही है , धमनियों में रक्त का प्रवाह तीव्र हो रहा है । हर युद्ध के बाद रक्त का मिश्रण होता है और हमारी कौम तो दुनिया की सबसे अधिक हारी हुई कौम है । ’ किशन पटनायक इस सबक को समझाते हुए कहते हैं , ’ तीन सौ साल बाद किसी की कोई संतान भी नहीं रह जाती , सिर्फ़ वंशधर रह जाते हैं । किसी भी भाषा में परदादा और प्रपौत्र के आगे का संबंध जोड़ने वाला शब्द नहीं है । नाती ,पोते , प्रपौत्र के आगे की स्मृति नष्ट हो जाती है । इसीलिए कबीलाई संस्कृति में भी बदला लेने का अधिकार नाती – पोते तक रहता है । युग बदलने से कर्म विचार और भावनाओं का संदर्भ भी बदल जाता है । हमारे युग में मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने का लक्ष्य हो नहीं सकता क्योंकि हमारे युग का संदर्भ भिन्न है । ’ इतिहास और बदले के इस सिद्धांत को पाठ्य – पुस्तकों में नहीं लिखा गया है नतीजतन पढ़े – लिखे लोग भी भ्रमित हो जाते हैं । इस सिद्धांत को मौजूदा न्याय व्यवस्था द्वारा नजरअंदाज किया जाना भी सांघातिक होगा । सामान्य दीवानी मामले से ऊपर उठकर इस प्रकरण को संवैधानिक मूल्यों की कसौटी पर कसना वक्त का तकाजा है । बाबरी मस्जिद का निर्माण यदि १५२८ ईसवी में हुआ था तब वह भारत में मुगलों के आने के बाद की पहली इमारतों में रही होगी । इसके पहले तुर्क – अफ़गान काल के स्थापत्य के नमूने उपलब्ध हैं और फिर बाद के मुगल काल के भी । इस खास तरह की वास्तुकला के विकास को समझने में यह मस्जिद एक महत्वपूर्ण कड़ी जिसे तालिबानी मानसिकता ने नष्ट कर दिया । यहाँ कुस्तुन्तुनिया की ’ आया सूफ़िया ’ मस्जिद का उल्लेख प्रासंगिक है । ७ अगस्त , १९३५ को जवाहरलाल नेहरू ने एक संदर लेख में इस विशिष्ट मस्जिद का इतिहास लिखा है । इस इमारत ने नौ सौ वर्ष तक ग्रीक धार्मिक गाने सुने । फिर चार सौ अस्सी वर्ष तक अरबी अजान की आवाज उसके कानों में आई और नमाज पढ़ने वालों की कतारें उसके पत्थरों पर खड़ी हुईं । १९३५ में गाजी मुस्तफ़ा कमालपाशा ने अपने हुक्म सेयह मस्जिद बाइजेन्टाइन कलाओं का संग्रहालय बना दी। बाइज्न्टाइन जमाना तुर्कों के आने के पहले का ईसाई जमाना था और यह समझा जाता था कि बाइजेन्टाइन कला खत्म हो गई है । जवाहरलाल नेहरू ने इस लेख के अंत में लिखा है – ’ फाटक पर संग्रहालय की तख़्ती लटकती है और दरबान बैठा है । उसको आप अपना छाता – छड़ी दीजिए , उनका टिकट लीजिए और अंदर जाकर इस प्रसिद्ध पुरानी कला के नमूने देखिए और देखते – देखते इस संसार के विचित्र इतिहास पर विचार कीजिए , अपने दिमाग को हजारों वर्ष आगे – पीछे दौड़ाइए । क्य – क्या तस्वीरें , क्या – क्या तमाशे . क्या – क्या जुल्म,क्या – क्या अत्याचार आपके सामने आते हैं । उन दीवारों से कहिए कि आपको कहानी सुनावें , अपने तजुरबे आपको दे दें । शायद कल और परसों जो गुजर गए , उन पर गौर करने से हम आज को समझें , शायद भविष्य के परदे को भी हटाकर हम झाँक सकें । ’ लेकिन वे पत्थर और दीवारें खामोश हैं । जिन्होंने इतवार की ईसाई पूजा बहुत देखी और बहुत देखीं जुमे की नमाजें । अब हर दिन की नुमाइश है उनके साए में । दुनिया बदलती रही,लेकिन वे कायम हैं । उनके घिसे हुए चेहरे पर कुछ हल्की मुस्कराहट-सी मालूम होती है और धीमी आवाज-सी कानों में आती है – ’ इंसान भी कितना बेवकूफ़ और जाहिल है कि वह हजारों वर्ष के तजुरबे से नहीं सीखता और बार – बार वही हिमाकतें करता है । ’

(साभार – सर्वोदय प्रेस सर्विस , आलेख : ८१ , २०१० – ११)

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Wheel of History : Lohia ,Cover : Hussain

जाति प्रथा : लोहिया, चित्र - हुसैन

भारत विभाजन के अपराधी : ले. लोहिया , चित्र: हुसैन

उत्तराखण्ड की किसी वादी में हुसैन नैसर्गिक सौन्दर्य को अपनी पेन्टिंग में उकेर रहे थे । वहीं लोहिया ने उनसे कहा कि हिन्दुस्तान के दिमाग़ पर ऐतिहासिक लोगों से भी ज्यादा असर राम और कृष्ण और शिव का है । राम और कृष्ण तो इतिहास के लोग माने जाते हैं , हों या न हों , यह दूसरे दर्जे का सवाल है। लोहिया ने कहा ,’किसी भी देश की हँसी और सपने ऐसी महान किंवदंतियों में खुदे रहते हैं । हँसी और सपने , इन दो से और कोई चीज बड़ी दुनिया में हुआ नहीं करती है । जब कोई राष्ट्र हँसा करता है तो वह खुश होता है , उसका दिल चौड़ा होता है। और जब कोई राष्ट्र सपने देखता है , तो वह अपने आदर्शों में रंग भर कर किस्से बना लिया करता है ।”

हुसैन ने आठ साल लगा कर रामायण पर पेन्टिंग्स की सिरीज बनाई जिसकी प्रदर्शनी हैदराबाद शहर से सटे देहातों में साईकिल रिक्शों पर सजा कर दिखाई गई । प्रदर्शनी के पूर्व उन्होंने काशी के पंडितों से उनकी बारीकियों पर चर्चा की । यह छठे दशक के शुरुआत की बात है । किसी भी बड़े काम के पहले हुसैन गणेश आँकते हैं । रामायण सिरीज रचना के दौरान कुछ कट्टर मुसलमानों ने हुसैन से पूछा था कि वे इस्लाम की थीम पर क्यों नहीं बनाते ? हुसैन ने उनसे पूछा था कि क्या आप में उतनी सहनशीलता है?

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जल्दी में

प्रियजन

मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं

क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की

जिसे आप भी अगर

समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं

तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे

कि मैं क्यों जल्दी में हूं ।

जल्दी का जमाना है

सब जल्दी में हैं

कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में

तो कोई कहीं लौटने की …

हर बड़ी जल्दी को

और बड़ी जल्दी में बदलने की

लाखों जल्दबाज मशीनों का

हम रोज आविष्कार कर रहे हैं

ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई

हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी

किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें

जहां हम हर घड़ी

जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं ।

मगर….कहां ?

यह सवाल हमें चौंकाता है

यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में

हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है ।

किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए

जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो

-एक व्यापार की तरह-

उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,

‘क्या होगा अगर तुम

रोक दिये गये इसी तरह

बीच ही में एक दिन

अचानक….?’

वह रुकना नहीं चाहेगा

इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट

आपको चकित कर देगी ।

उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा

वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा ।

‘अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मान मान

रोके जाने से घबड़ायेगा । यद्यपि

आपको आश्चर्य होगा

कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ

उसके पास कोई तैयारी नहीं….

क्या वह नहीं होगा

क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?

क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?

क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?

और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?

अजीब वक्त है

अजीब वक्त है –

बिना लड़े ही एक देश-का देश

स्वीकार करता चला जाता

अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता !

कुछ तो फर्क बचता

धर्मयुद्ध और कीटयुद्ध में –

कोई तो हार जीत के नियमों में

स्वाभिमान के अर्थ को

फिर से ईजाद करता ।

– कुंवर नारायण

[ वरिष्ट कवि कुंवर नारायण की राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘कोई दूसरा नहीं’ तथा ‘सामयिक वार्ता’ (अगस्त-सितंबर १९९३) से साभार ]

अयोध्या , १९९२

हे राम ,

जीवन एक कटु यथार्थ है

और तुम एक महाकव्य !

तुम्हारे बस की नहीं

उस अविवेक पर विजय

जिसके दस बीस नहीं

अब लाखों सिर – लाखों हाथ हैं

और विवेक भी अब

न जाने किसके साथ है ।

इससे बड़ा क्या हो सकता है

हमारा दुर्भाग्य

एक विवादित स्थल में सिमट कर

रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं

योद्धाओं की लंका है ,

‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं

चुनाव का डंका है !

हे राम , कहाँ यह समय

कहाँ तुम्हारा त्रेता युग ,

कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम

और कहाँ यह नेता – युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ

किसी पुराण – किसी धर्मग्रंथ में

सकुशल सपत्नीक….

अब के जंगल वो जंगल नहीं

जिनमें घूमा करते थे बाल्मीक !

– कुँवरनारायण

( फरवरी ,१९९३ में राजेन्द्र राजन द्वार सम्पादित तथा समकालीन सहित्य मंच , वाराणसी द्वारा प्रकाशित ’उन्माद के खिलाफ’ से )

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[ दिवराला ( राजस्थान ) सती – कांड के बाद भारतीय संस्कृति में नर – नारी सम्बन्धों पर सितम्बर – अक्टूबर १९८७ में जनसत्ता के दिल्ली संस्करण के सम्पादक श्री बनवारी के कई लेख छपे । इन लेखों पर अपनी  प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मैंने (किशन पटनायक )बनवारीजी को एक लेख-पत्र लिखा । यह जनसत्ता में नहीं छपा तो मैंने उसे ’हंस’ को भेज दिया तो उसमें यह प्रकाशित हुआ और बाद में सामयिक वार्ता में भी । ]

प्रिय बनवारीजी ,

भारतीयता पर आपका जो भी लेख मेरी नजर से गुज्रता है , मैं उसे अवश्य पढ़ता हूँ । कारण , मेरी भी यह मान्यता है कि आधुनिकतावाद हमारे देश को घोर मूल्यहीनता और दरिद्रता की ओर ले जा रहा है । परन्तु आपके लेखों को पढ़ते वक्त मुझे कभी कभी परेशानी होती है । मुझे लगता है आपके प्रतिपादनों से कट्टर हिन्दूवाद को ही बल मिलेगा । अगर आपका लक्ष्य है कि भारतीयता के आधार पर एक नई संस्कृति और समाज का निर्माण हो तो कट्टर हिन्दूवाद के बढ़ने से इस लक्ष्य पर प्रतिकूल असर होगा । कई बार इच्छा हुई कि आपसे मिलकर बातचीत करूँ । परन्तु दूरी के कारण ऐसा नहीं हो सका । इसलिए आपको सम्बोधित करते हुए यह लेख-पत्र लिख रहा हूँ । आपके लेखों से मेरे मन में जो संशय उत्पन्न होता है उसी को इस लेख-पत्र में लिपिबद्ध कर रहा हूँ ।

आधुनिकतावाद के विरोध में और भारतीयता के समर्थन में इस वक्त देश में एक छोटा सा वैचारिक समूह बना हुआ है । इतिहासकार धर्मपाल , कन्नड़ लेखक अनन्तमूर्ति और हिन्दी लेखक निर्मल वर्मा भी शायद इस धारा के अन्तर्गत हैं | अरुण शौरी को मैं इस धारा का नहीं मानता हूँ । वे सिर्फ़ हिन्दूवाद के पक्षधर हैं । वे भारतीयतावादी नहीं हैं । राजनीति व अर्थनीति में वे सम्पूर्ण आधुनिकतावादी हैं । अनन्तमूर्ति व निर्मल वर्मा को मैंने ठीक ढंग से नहीं पढ़ा है । आपके लेखों को कुछ ज्यादा पढ़ा है । वैसे तो आपकी धारा को भारतीयतावादी कहता हूँ लेकिन जब मुझे इसमें खतरा दिखाई देता है तब इसे ’बौद्धिक हिन्दूवाद’ कहता हूँ । साम्प्रदायिक हिन्दूवाद और कट्टर हिन्दूवाद से सम्पूर्ण भिन्न होने पर भी इसकी कुछ ऐसी कमजोरियाँ हैं कि साम्प्रदायिक और कट्टर हिन्दूवाद के लिए वह एक चुनौती बनने के बजाय एक ढाल बन जाता है । सती – प्रथा पर विवाद के सन्दर्भ में यही हो रहा है । राजपूत जाति के तलवारधारी संरक्षकगण और पुरी के शंकराचार्य के भक्त लोग आपको अपना पक्षधर मानेंगे । १९३४ के बिहार भूकम्प के दिनों में गांधीजी के बयान का तीखा विरोध रवि ठाकुर ने तो किया था , लेकिन कट्टर हिन्दूवादी लोगों की हिम्मत नहीं हुई कि गांधीजी को अपना पक्षधर मानें ।* [* १९३४ के बिहार के भूकम्प के बाद गांधीजी ने एक बयान में कहा था कि यह (भूकम्प) अछूतों के साथ किए गए दुर्व्यवहार के पापों का फल है । इस बयान पर विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि गांधीजी ऐसा कहकर अन्धविश्वासों को बढ़ावा दे रहे हैं – यह पापों का कैसा फल है जिसकी सबसे अधिक मार अछूतों पर ही पड़ी हो । ] गांधीजी की भारतीयता में जहाँ आधुनिकतावाद के खिलाफ़ धार थी वहाँ कट्टर हिन्दूवाद के खिलाफ़ भी तीखी धार थी । गांधी और रवि ठाकुर दोनों का लक्ष्य था भारतीय संस्कृति का नव सृजन । दोनों का विवाद एक ही खेमे का अन्दरूनी  संघर्ष था । दोनों से कट्टर हिन्दूवाद भयभीत था । उनके पहले स्वामी विवेकानन्द से भी कट्टर हिन्दूवाद भयभीत था ।

भारतीयता की सबसे आत्मघाती प्रवृत्ति यह है कि भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों की कल्पनाओं में वह इतना रम जाती है उसकी सारी विकृतियो , विवेकहीनताओं और जड़ताओं के प्रति भी उसे ममता होने लगती है । वह दुविधा में सोचती है ,’ दिखने में अमानवीय होने पर भी उनके पीछे जरूर कोई ब्रह्मांड विषयक सत्य रहा होगा सो उन पर प्रहार करना गलत हो सकता है ।’ आपके लेख और जनसत्ता के सम्पादकीय में इसी प्रकार की दुर्बलता छिपी हुई है । इस उद्धरण को देखें , ’ जो लोग इस जन्म को ही आदि और अन्त मानते हैं और अपने व्यक्तिगत भोग में ही सबसे बड़ा सुख देखते हैं , उन्हें सती प्रथा कभी समझ में नहीं आएगी । यह उस समाज से निकली है जो मृत्यु को सर्वथा अन्त नहीं मानता , बल्कि उसे एक जीवन से दूसरे जीवन की तरफ़ बढ़ने का माध्यम समझता है । ऐसा समाज ही सती – प्रथा के उचित होने पर कोई सार्थक बहस कर सकता है । उसी हिसाब से अब नये सिरे से सती प्रथा पर विचार होना चाहिए । मगर यह अधिकार उन लोगों को नहीं है जो भारत के आम लोगों की आस्था और मान्यताओं को समझते नहीं हैं ।ऐसे लोग कोई फैसला देंगे तो उसकी वैसे ही धज्जियाँ उड़ेंगी जैसे राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले की दिवराला में उड़ी(’दिवराला की सती’-सम्पादकीय ’जनसत्ता’ )।”

बोलने की यह शैली इस प्रकार है – ’हमारे समाज में बुराई हो सकती है , जब हमारा विवेक जगेगा तब हम इसका विरोध करेंगे । लेकिन खबरदार ! हमारे ढंग से न सोचनेवालों को कोई अधिकार नहीं है कि हमारी बुराई पर उँगली उठाए ।’ तो क्या हम भी पश्चिमी समाज की ग़लतियों पर या आदिवासी समाज के जादू – टोनों पर उँगली न उठाएँ ?  जब बाल – विवाह , बाल-विधवा , स्त्री-निरक्षरता आदि के बारे में भारतीय विवेक नहीं जगा था , तब तक ईसाई-धर्म प्रचारकों या राममोहन राय जैसे पश्चिमपरस्त लोग ही इन प्रथाओं पर उँगली उठाते थे ? जब भारतीयता पर गर्व करने वालों का विवेक जग गया और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर , विवेकानन्द , रवि ठाकुर , गांधी , अम्बेडकर जैसे लोग समाज का नेतृत्व करने लगे , तब अपनी बुराइयों को जानने के लिए हमें ईसाई प्रचारकों के लेख पढ़ने की जरूरत नहीं रह गई । आजादी के चालीस सअल बाद हम फिर से पुरानी स्थिति में चले गये हैं । पुरी के शंकराचार्य ही भारतीयतावादियों के मुखपात्र बन गये हैं । आप जैसे भारतीयतावदियों का विवेक सती प्रथा की घटना के विरुद्ध जागृत नहीं हुआ । उपरोक्त उद्धरण में आपने माना है कि सती प्रथा के विरुद्ध भी एक भारतीय दृष्टि हो सकती है । परन्तु उस दृष्टि का प्रतिनिधित्व आपने अपने लेख में नहीं किया है । उलटा उस लेख की तर्क पद्धति ऐसी है कि उसके अनुसार सती प्रथा का विरोध करनेवाला कोई भी व्यक्ति पश्चिमी संस्कृति का दलाल प्रमाणित हो जाएगा , वह ईश्वरचन्द्र विद्यासागर क्यों न हों ।  सती प्रथा के समर्थन में सैद्धान्तिक बहस का जो ढाँचा आपने बनाया है , उस ढाँचे के अन्दर बाल – विवाह और जाति – प्रथा भी ब्रह्मांड विषयक एक महान सत्य पर आधारित माने जाएँगे और उनका विरोध करनेवाले ईसाई प्रचार के शिकार मान लिए जाएँगे ।

आपका कहना है कि जन्म – मृत्यु और काल – सम्बन्धी जो भारतीय अवधारणा है , उसी को मानने वाले समाज में सती – प्रथा तर्कसंगत है । आपका यह प्रतिपादन गैरतार्किक है । यह तब तार्किक होगा जब पत्नी के मर जाने पर पति भी , राजा के मर जाने पर प्रजाकुल भी , नौकर के मर जाने पर मालिक भी सती हो जाएगा । जब तक उस जन्म – मृत्यु की अवधारणा के साथ यह धारणा भी नहीं जुड़ती है कि स्त्री को पति-सर्वस्व अनुशासन में रहना पड़ेगा और विधवा का कोई सार्थक सामाजिक जीवन नहीं हो सकता , तब तक औरत के सती होने की प्रथा नहीं बन सकती है । जिस तरह मुसलमान समाज में तलाक देने की प्रथा दूसरे समाज की तुलना में निकृष्ट है , उसी तरह विधवा के सामाजिक जीवन के मामले में हिन्दू समाज की प्रथा निकृष्ट है । यहाँ विधवा नारी का अपना कोई सामाजिक जीवन नहीं होता है । जिस समाज की विधवा नारी एक सामान्य और सम्मानपूर्ण जीवन बिता सकती हो , उसी समाज में ही सती की घटना को स्वेच्छा से प्रेरित कहा जा सकता है । आत्मोसर्ग के जिस कार्यक्रम में भीड़ जुटकर उल्लास मनाती है  , उसमें देहत्याग के व्यक्तिगत निर्णय की गंभीरता नहीं हो सकती है । अपने आप में यह एक बर्बर काण्ड है – सती की इच्छा जो भी हो । इसलिए विनोबाजीके शरीर-त्याग से सती-समारोह और तलवारधारी राजपूत संरक्षकों के कार्यक्रमों की तुलना नहीं की जानी चाहिए ( स्वेच्छा का तर्क दहेज के सम्बन्ध में भी दिया जाता है ) ।

जन्म – मृत्यु की भारतीय अवधारणा यानी आत्मा की अनन्तता के साथ अगर नारी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण जुड़ जाता है तब विधवा का क्या रूप होगा ? उसका प्रसंग रामकृष्ण परमहंस में मिलता है । यह प्रसंग सचमुच एक पवित्र क्रांतिकारी प्रसंग है । पुरी के शंकराचार्य इसको पढ़ेंगे तो उनको पसीना छूट जाएगा । रामकृष्ण की बीमारी के दिनों में  कभी शारदादेवी ने इच्छा प्रकट की थी कि वे सती होना चाहती हैं । रामकृष्ण ने कहा – हरगिज नहीं , मेरे बाद भी समाज को तुम्हारी जरूरत रहेगी । रामकृष्ण के मर जाने के बाद जब शारदादेवी प्रथानुसार अपनी देह से सारे आभूषण , सिन्दूर , कंगन , लालकिनारी वाली साड़ी उतारने जा रही थीं , रामकृष्ण का आविर्भाव उनके सामने हुआ । निर्देश मिला – ’ तुम यह सब मत उतारो । तुम क्या यह सोचती हो कि मेरा खात्मा हो गया है ?’ फिर शारदादेवी मृत्यु तक उन आभूषणों कोप पहने रहीं । कितनी कटु बातें उनको सुननी पड़ी होंगी , क्या- क्या उन्होंने झेला होगा , यह अनुमान का विषय है । हिन्दू धर्म और भारतीयतावाद का दुर्भाग्य है कि रामकृष्ण और गांधी को ठुकराकर पुरी के शंकराचार्य को पथ-प्रदर्शक माना जाए ।

जारी

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कल सुबह बनारस शहर के चुने हुए इलाकों में एक अत्यन्त जहरीला , भड़काऊ परचा जिसमें चुनाव कानून के अनुरूप मुद्रक ,प्रकाशक का नाम और संख्या भी नहीं छपी थी (छापने पर जेल भेजने के लिए खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ती ) दैनिक समाचार पत्रों में डाल कर बाँटे गये । इस कायराना हरकत के खिलाफ़ मैंने परचे के चित्र सहित मुख्य निर्वाचन आयुक्त ,मुख्य निर्वाचन अधिकारी – उत्तर प्रदेश को शिकायत की तथा केन्द्रीय चुनाव पर्यवेक्षक से इस बाबत बात की ।

मुख्य निर्वाचन आयुक्त,
भारत का निर्वाचन आयोग ,
नई दिल्ली.
माननीय महाशय,
वाराणसी शहर में प्रात:कालीन एवं सायंकालीन दैनिकों के अन्दर डाल कर अत्यन्त आपत्तिजनक , अवैध, उन्माद फैलाने वाले तथा अशान्ति पैदा करने वाले परचे बाँटे जा रहे हैं । आयोग से निवेदन है कि मतदान से बचे शेष दिनों में स्थानीय प्रशासन द्वारा उन ठिकानों पर चौकसी बरती जाए जहाँ से हॉकर प्रतिदिन अखबार प्राप्त करते हैं । इन परचों को छापने वालों पर तत्काल कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए ।
पंजीकृत राजनै्तिक दल – समाजवादी जनपरिषद के प्रन्तीय अध्यक्ष के नाते मैं इस मामले में आयोग का ध्यान खींच रहा हूँ ।
इस ईमेल के साथ एक आपत्तिजनक पर्चे का चित्र संलग्न हैं ।(ब्लॉग में नहीं)
भवदीय,
अफ़लातून,
प्रान्तीय अध्यक्ष , समाजवादी जनपरिषद,उ.प्र राज्य इकाई.

इस सन्दर्भ में केन्द्रीय चुनाव पर्यवेक्षक श्री जानू अरविन्द रामचन्द्र ने आज मुझे सूचित किया है कि स्थानीय प्रशासन को उन्होंने निर्देश दिए हैं कि हॉकर शहर के जिन स्थानों से अखबार प्राप्त करते हैं वहाँ चौकस बरती जाए ।

ब्लॉग के पाठक अपने इलाके के केन्द्रीय पर्यवेक्षक का मोबाइल नम्बर चुनाव आयोग की साइट से प्राप्त कर सकते हैं तथा एक जागरूक नागरिक के नेता ऐसी घिनौनी हरकतों के बारे में शिकायत कर सकते हैं ।

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