मूल डिजिटल बाजारों को संचालित करेंगे , उद्योगों , शिक्षा और विश्व राजनीति को बदलेंगे । जैसे – जैसे यह पीढ़ी हमारे कामगारों के रूप में शामिल होते जाएगी वैसे वैसे वह हमारी दुनिया पर अत्यन्त सकारात्मक असर डालेगी। लब्बोलुआब , डिजिटल क्रान्ति ने इस दुनिया को बेहतर जगह बना ही दिया है । समाज को असंख्य तरीकों से आगे ले जाने की रहनुमाई वे कर सकते हैं – यदि हम उन्हें ऐसा करने दें । यह ध्यान रहे कि हम से कोई चूक न हो जाए क्योंकि हम दोराहे पर हैं । दो रास्ते हैं – एक जिसमें हम युवा पीढ़ी द्वारा इन्टरनेट के उपयोग और उसकी अच्छाइयों को नष्ट कर सकते हैं तथा दूसरा जिसमें हम उचित राह चुन कर डिजिटल युग में उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ेंगे । हमारी कार्रवाई पर बहुत ज्यादा दाँव लगा हुआ है । हमारे द्वारा चुने गये रास्ते के मुताबिक हमारे बच्चे , नाती-पोतोंकी जीवन शैली की कई जरूरी बातें तय होंगी : अपनी अस्मिता को वे कैसा आकार देते हैं ? अपनी गोपनीयता की रक्षा कैसे करते हैं ? खुद को सुरक्षित कैसे रखते हैं ? अपनी पीढ़ी का नीति निर्धारण निर्धारित करने वाली सूचनाओं का निर्माण कैसे करते हैं और कैसे उनके बारे में समझदारी विकसित करते हैं और उन सूचनाओं को किस रूप में ढ़ालते हैं ? नागरिक होने की जिम्मेदारियों को कैसे सीखते हैं , विकसित करते हैं और ग्रहण करते हैं ? इनमें से एक रास्ता निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में उनकी सृजनात्मकता , आत्माभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने वाला है |दूसरी तरफ़ नये युग से जुड़े खतरों को न्यूनतम करते हुए हम उसे अपना सकते हैं ।
दूसरे रास्ते पर चलना शुरु करने में एक मात्र बड़ी बाधा भय है । डिजिटल तकनीक की क्षमता और मूल-डिजिटल उसका जैसे इस्तेमाल कर रहे हैं उनसे पैदा होने वाला भय । जिस डिजिटल माहौल में युवा इतना समय बिता रहे हैं उसकी बाबत अभिभावकों , शिक्षकों और मनोवैज्ञानिकों की चिन्ता आधारहीन नहीं है । एक बाद एक उद्योगों को आमदनी पर खतरा दिखाई दे रहा है – रेकॉर्ड द्वारा मनोरंजन , फोन , अखबार इत्यादि। संकट का आभास पा कर विधि-निर्माताओं को डर है कि यदि समय रहते इन गलतियों को पारम्परिक तरीकों से सुधारने के लिए कदम नहीं उठाये गये तो भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है ।
मीडिया से इस भय को खुराक मिलती है । साइबर ब्लैक मेलिंग , ऑनलाइन लूट , इन्टरनेट का नशा , ऑनलाइन पोर्नोग्राफी के मामलों की खबरों से अखबार पटे रहते हैं । अनियन्त्रित डिजिटल वातावरण में घण्टों समय बिताने वाले बच्चों के अभिवावकों भय लगा रहता है कि उनके बच्चों का कहीं अपहरण न हो जाए । अभिभावकों को अपने बच्चों के ऑनलाइन दादागिरी का शिकार होने , हिन्स्र विडियो गेम्स की लत लग जाने तथा पोर्नोग्राफी देखने की चिन्ता भी बनी रहती है ।
युवाओं पर इन्टरनेट के असर को ले कर सिर्फ़ अभिभावकों को ही चिन्ता नहीं है । शिक्षकों को यह लगता है कि मूल डिजिटलों को पढ़ाने लायक वे नहीं रह गये हैं , लम्बा समय लगा कर वे जो हुनर प्रदान करते हैं वह बिना काम का रह गया है , डिजिटल परिदृश्य से जो तब्दीलियाँ आई हैं उनसे मौजूदा शिक्षण व्यवस्था कदम मिला कर नहीं चल पा रही है। लाइब्रेरियन अपनी भूमिका के बारे में नये सिरे से सोच रहे हैं : धूलग्रस्त ,मलिन कार्डों पर किताबों के शीर्षकों को व्यवस्थित करने और सही अलमारियों में किताबों को तरतीब से रखने के बजाय वे सूचना के सतरंगे परिवेश में मात्र एक गाइड बन कर हैं । मनोरंजन उद्योग की कम्पनियों को चिन्ता है कि नेट-चोरी से उनका मुनाफ़ा छिना जा रहा है तथा अखबारों के व्यवस्थापक इस बात से चिन्तित हैं कि उनके पाठक अब खबरों के लिए अखबार के बजाए ड्रज , गूगल , चिट्ठों जैसे कमतर माध्यमों पर आश्रित हो रहे हैं ।
मूल डिजिटलों के अभिवावक होने के नाते हम डिजिटल संस्कृति की चुनौतियों तथा अवसरों दोनों को ही गंभीरता से ले रहे हैं । बच्चों की शिक्षा , उनकी सुरक्षा और उनके गोपन की सुरक्षा के बारे में कई पालकों की चिन्ता को हम भी समझ सकते हैं । सूचना की बाढ़ तथा हिस्र खेलों और भयावह ऑनलाईन छबियों की बाबत हम भी चिन्तित हैं । ऑनलाइन माहौल को घेर कर जो भय की संस्कृति उभर रही है , उसके मद्दे नज़र इन आपदाओं को हमें सही परिपेक्ष्य में रखना होगा ; हमारे बच्चों और आने वाली पीढ़ियों के पास प्रचुर अवसर उपलब्ध हैं – डिजिटल युग के बावजूद नहीं अपितु उसकी वजह से ।
मूल डिजिटल और सूचनायें जैसे परस्पर प्रभावित हो रही हैं , तथा सामाजिक वातावरण में मूल डिजिटल जैसे खुद को अभिव्यक्त कर रहे हैं,नये कला रूप सृजित कर , व्यापार के नये नये मॉडल की कल्पना कर तथा नये प्रतिकार अथवा आन्दोलन शुरु कर उससे एक आशा जगती है ।
इस किताब का मकसद चिन्ता पैदा करने वाले विषयों और कम डरावने विषयों को अलग-अलग करके रखना है ताकि पता चल सके किससे बचना है और किसे अपनाना है । समाज के रूप में हमारे समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती है – यदि हम इन अवसरों से पैदा होने वाली अच्छाइयों का उपयोग न कर सके तथा आसन्न समस्याओं में उलझ कर रह जाते हैं । कई बार भय के कारण हम कुछ ज्यादा ही प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं जिसकी वजह से हम जिन बाधाओं को खड़ा करते हैं उनसे बचने के लिए युवा नये रास्ते चुन लेते हैं ।
खुद को सुरक्षित रखने के लिए युवाओं को जिस तरह की शिक्षा और जिन हुनरों की तालीम दिए जाने पर जोर दिया जाना चाहिए उसके बजाये हमारे कानून बनाने वाले कुछ वेबसाइटों को प्रतिबन्धित करने की और कतिपय सामाजिक नेटवर्कों से अठारह साल तक के बच्चों को दूर रखने की बात करते हैं । डिजिटल-माध्यमों में बच्चों के बीच क्या हलचल है यह जानने के बजाए मनोरंजन उद्योग ने हजारों ग्राहकों पर मुकदमे ठोक कर उनके खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है । जटिल एवं विस्फोटक सूचना माहौल का सामना करने के लिए बच्चों को तैय्यार करने के बजाए , दुनिया भर की कई सरकारें कई तरह के प्रकाशनों को रोकने के लिए कानून बना रही हैं , किताबों पर रोक लगाना ताकि अनोखा और निरापद लगने लगे । इसके साथ साथ हम बच्चों की वास्तविक समस्याओं से मुख़ातिब होने के लिए कोई भी कदम नहीं उठा रहे हैं , जिनकी आवश्यकता है ।
इस किताब को लिखने का हमारा मकसद अच्छे-बुरे को उचित परिपेक्ष्य में रखना तथा यह सलाह देना है कि हम – अभिभावक , शिक्षक , कम्पनियों के प्रमुख , विधि-निर्माता सबको इस अभूतपूर्व परिवर्तन द्वारा बने वैश्विक समाज को बिना सब कुछ ठप किए कैसे प्रबन्धन किया जाए ।
[ यह किताब हार्वर्ड लॉ स्कूल के बर्कमैन सेन्टर फ़ॉर इन्टरनेट एण्ड सोसाइटी तथा स्विट्ज़रलैण्ड स्थित सेन्ट गैलेन विश्वविद्यालय के रिसर्च सेन्टर फॉर इन्फ़ॉर्मेशन लॉ के संयुक्त शोध अभिक्रम का परिणाम है । पुस्तकांश का हिन्दी अनुवाद अफ़लातून का है । यूट्यूब पर। ]
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