Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Archive for the ‘classical music’ Category

लेखक : सदानन्द कनावल्ली (धारवाड़ स्थित संगीतशास्त्री)

लुभावना भारत रत्न सम्मान पा कर , भीमसेन जोशी ने कर्नाटक को गौरवान्वित किया है । इस सम्मान का आधार उनकी महान संगीत – साधना है । देश – विदेश में सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायकों में उनकी गिनती सहज ही की जा सकती है । कर्नाटक के गड़ग में ४ फरवरी १९२२ को उनका जन्म हुआ । पिता गुरुराज जोशी स्थानीय हाई स्कूल के हेडमास्टर तथा कन्नड़ , अंग्रेजी एवं संस्कृत के विद्वान थे । उनके चाचा जी.बी जोशी चर्चित नाटककार थे तथा उन्होंने धारवाड़ की मनोहर ग्रन्थमाला को प्रोत्साहित किया था । उनके दादा प्रसिद्ध कीर्तनकार थे ।

पाठशाल के रास्ते में भूषण ग्रामोफोन शॉप थी । ग्राहकों को सुनाए जा रहे रेकॉर्ड सुनने के लिए किशोर भीमसेन खड़ा हो जाता था । एक दिन उसने अब्दुल करीम ख़ान का गाया राग वसंत में फगवा बृज देखन को तथा पिया बिना नहि आवत चैन – यह ठुमरी सुनी । कुछ ही दिनों बाद उसने कुंडगोल के समारोह में सवाई गंधर्व को सुना । मात्र ग्यारह वर्षीय भीमसेन के मन में उन्हें ही गुरु बनाने की इच्छा जागृत हुई । पुत्र की संगीत में रुचि का पता चलने पर गुरुराज ने अगसरा चनप्पा को भीमसेन को संगीत सिखाने के लिए रक्खा । एक बार पंचाक्षरी गवई ने भीमसेन को गाते हुए सुनकर चनप्पा से कहा , ‘ इस लड़के को सिखाना तुम्हारे बस की बात नहीं , इसे किसी बेहतर गुरु के पास भेजो ।’

एक दिन भीमसेन घर से भाग लिए । अब उस घटना को याद करके वे विनोद में कहते हैं कि ऐसा करके उन्होंने परिवार की परम्परा ही निभाई थी । मंजिल तय नहीं थी । एक रेल में बिना टिकट सवार हो गये और बीजापुर तक का सफर किया । टिकट जाँचने वाले को राग भैरव में जागो मोहन प्यारे और कौन – कौन गुन गावे सुना कर मुग्ध कर दिया । हमराहियों पर भी गायन का जादू असर कर गया । उन्होंने रास्ते भर उसे खिलाया – पिलाया। पहुँचे बीजापुर । गलियों में गा – गा कर और लोगों के घरों के पिछवाड़े रात गुजार कर दो हफ़्ते बिता दिए । एक संगीत प्रेमी ने सलाह दी , ‘ संगीत सीखना हो तो ग्वालियर जाओ ।’

उसे पता नहीं था ग्वालियर कहाँ है । एक अन्य ट्रेन पर सवार हो गया । इस बार पहुँचा पुणे । लड़के को कहाँ पता था कि पुणे उसका स्थायी ठौर बनेगा । बहरहाल रेल गाड़ियाँ बदलते हुए और रेलकर्मियों से बचते-बचाते भीमसेन ग्वालियर पहुँच गया । वहाँ माधव संगीत विद्यालय में दाखिला तो ले लिया लेकिन लेकिन भीमसेन को किसी क्लासरूम की नहीं एक अदद गुरु की जरूरत थी ।

भीमसेन तीन साल तक गुरु की तलाश में जगह जगह भटके । फिर उन्हें करवल्लभ संगीत सम्मेलन में विनायकराव पटवर्धन मिले । विनयकराव को अचरज हुआ कि सवाई गन्धर्व उसके घर के इतना करीब रहते हैं फिर क्यों दर – दर भटकते हुए इतना दूर चला आया है । इस बात पर घर वापसी की यात्रा हुई और शुरु हुई एक विख्यात गुरु- शिष्य सम्बन्ध की कथा ।

सवाई गन्धर्व ने भीमसेन को सुनकर कहा , ” मैं इसे सिखाऊँगा यदि यह अब तक सीखा हुआ सब भुला सके ।” डेढ़ साल तक उन्होंने भीमसेन को कुछ नहीं सिखाया । भीमसेन के पिता जब एक बार बेटे की प्रगति का जायजा लेने आए तब यह देख कर चकरा गए कि वह अपने गुरु के घर के लिए पानी से भरे बड़े – बड़े घड़े ढो रहे हैं । हाँलाकि भीमसेन ने अपने पिता को आश्वस्त किया , ‘ मैं यहाँ खुश हूँ ।आप चिन्ता न करें । “

[ अगली कड़ी में बेगम अख़्तर और बिस्मिल्लाह ख़ान से संगत ]

Read Full Post »