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Archive for जनवरी, 2010

[ वरिष्ट कवि ज्ञानेन्द्रपति से कल सैमसुंग-साहित्य अकादमी पुरस्कार की बाबत चर्चा हुई तो उन्होंने कला संकाय के चौराहे पर यह कविता सुनाई तथा इसे छापने की इजाजत दी । कवि के प्रति आभार ।]

निकलने को है राजाज्ञा

(एक तारकशाली साहित्यिक संगोष्ठी में कविता की प्रामाणिकता के लिए एक अखिलदेशीय आयोग बनाने के ’आधिकारिक’ प्रस्ताव की खबर सुन कर )

अधिकारी – कवि

ही हो सकते अब अधिकारी कवि

निकलने को है राजाज्ञा – शाही फ़रमान

साथ कड़ी ताक़ीद

कि कोई भी अनधिकार चेष्टा

दण्डनीय ठहरायी गयी है अब आगे

यह हुआ बहुत कि जिनको

बमुश्किल जुटती दो वक्त की रोटी

वे भी कविता टाँकें

जिनकी न परम्परा में गति , न जो आधुनिकता के हमक़दम

जनेऊ की लपेटन के घट्टे के बग़ैर जिनके कान

और उन पर चढ़ी भी नहीं रे – बॉन के चश्मे की डंडी

उनकी आँखें खुली रहें , यही बहुत

नाहक ना वे ताके-झाँकें

देश-दशा को आँकें

बात यह कि जब तक मुफ़लिसी को गौरव से मढ़ा जायेगा

देश से समृद्धि की दिशा में न बढ़ा जायेगा

दरअस्ल वैसे खरबोले कवि

लोकतंत्र का बेज़ा इस्तेमाल कर रहे हैं

ख़राब कर रहे हैं देश की छवि

लोगों को बहका रहे हैं

असंतोष लहका रहे हैं

बल्कि देश की सुरक्षा को ख़तरे में डाल रहे हैं

सो, राजाज्ञा का -निषेधाज्ञा का-प्रारूप तय्यार हो रहा है

जुटी है वर्ल्ड बैंक के विशेषज्ञों की देख-रेख में

एक सक्षम समिति इस काम पर

काम तमाम तक

इसलिए भी , क्योंकि

इस क्षेत्र में पूँजी-निवेश की संभावनाएँ अपार हैं

अनुदान कहे जाने वाले ऋण की भी

अन्तरराष्ट्रीय धनकुबेरों से वार्ता जारी है

आख़िर तो यह

अनुकूलन के उनके बृहत्तर प्रोजेक्ट का हिस्सा है !

-ज्ञानेन्द्रपति

ज्ञानेन्द्रपति

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कई लोग पेशेवर और निजी पत्राचार के लिए भिन्न-भिन्न ईमेल खाते रखते हैं  । कई परिवारों में जहां एक ही कम्प्यूटर पर कई लोगों को अपने अपने खाते बार-बार खोलने की जरूरत होती है – एक दिक्कत आती है । एक वेबसाईट पर साइन-इन कर लेने पर उसी वेबसाईट पर दूसरी पहचान से साइन-इन करना कठिन हो जाता है । उस स्थिति में गूगल-खाता पूछने लगता है ,’आप पहले-से साईन्ड-इन है क्या अब खाते की अदला-बदली कर दें’ । कुछ वेबसाईट्स में नये खाते से साईन-अप करने के पहले से साइन्ड-इन पेज खुल जाता है ।

फायरफ़ॉक्स ब्राउसर का प्रयोग करने वालों के लिए ऊपर बताई गई समस्या का समाधान अत्यन्त सहज बिन खर्चे हासिल करना अब मुमकिन  हो गया है । मल्टीफ़ॉक्स नामक इस एड-ऑन को अपने कम्प्यूटर पर लेने के बाद – ब्राउसर के ’फाइल’ टैब में आपको नई पहचान के साथ लॉग-इन करने के लिए ’न्यू आईडेन्टिटी प्रोफ़ाईल’ का प्रावधान चुनना होगा-बस्स।

multifox

यहां से डाउनलोड करें ।

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काशी विश्वविद्यालय

यही है वह जगह

जहां नामालूम तरीके से नहीं आता है वसंतोत्सव

हमउमर की तरह आता है

आंखों में आंखे मिलाते हुए

मगर चला जाता है चुपचाप

जैसे बाज़ार से गुज़र जाता है बेरोजगार

एक दुकानदार की तरह

मुस्कराता रह जाता है

फूलों लदा सिंहद्वार

इस बार वसंत आए तो जरा रोकना उसे

मुझे उसे सौंपने हैं

लाल फीते का बढ़ता कारोबार

नीले फीते का नशा

काले फीते का अम्बार

कुछ लोगों के सुभीते के लिए

डाली गई दरार

दरार में फंसी हमारी जीत – हार

किताबों की अनिश्चितकालीन बन्दियां

कलेजे पर कवायद करतीं भारी बूटों की आवाजें

भविष्य के फटे हुए पन्ने

इस बार वसंत आए तो जरा रोकना उसे

बेतरह गिरते पत्तों की तरह

ये सब भी तो उसे देने हैं .

अरे , लो

वसंत आया

ठिठका

चला गया

और पथराव में उलझ गए हमारे हांथ

फिर उनहत्तरवीं बार !

किसने सोचा था

कि हमारे फेंके गये पत्थरों से

देखते – देखते

खडी हो जाएगी एक दीवार

और फिर

मंच की तरह चौडी .

इस पर खडे लोग

मुंह फेर कर इधर भी हो सकते हैं

और पीठ फेर कर उधर भी

इस दीवार का ढहना

उतना ही जरूरी है

जितना कि एक बेहद तंग सुरंग से निकलना

जिसमें फंस कर एक जमात

दिन – रात बौनी हो रही है .

किताबों के अंधेरे में

लालीपॉप चूसने में मगन

हमें यह बौनापन

दिखाई नहीं देगा .

मगर एक अविराम चुनौती की तरह

एक पीछा करती हुई पुकार की तरह

हमारी उम्र का स्वर

बार-बार सुनाई यही देगा

कि इस अंधेरे से लडो

इस सुरंग से निकलो

इस दीवार को तोडो

इस दरार को पाटो.

और इसके लिए

फिलहाल सबसे ज्यादा मुनासिब

यही है वह जगह .

— राजेन्द्र राजन

राजन की कविता

राजन की कविता पहले पहल तो पर्चे में छपी थी.’किताबों की एक अनिश्चितकालीन बन्दी’ के दौरान.पर्चे की सहयोग राशि थी २० पैसे.मेरे झोले में करीब बत्तीस रुपए सिक्कों में थे जब उस पर्चे को बेचते हुए मैं गिरफ़्तार हुआ था.चूंकि विश्वविद्यालय के तत्कालीन संकट के लिहाज से यह ‘समाचार’ था इसलिए समाचार – पत्रिका ‘माया’ ने इसे एक अलग बॉक्स में,सन्दर्भ सहित छापा.’माया’ में वैसे कविता नहीं छपती थी.

राजन ने यह कविता समता युवजन सभा के अपने साथियों को समर्पित की थी . राजेन्द्र राजन किशन पटनायक के सम्पादकत्व मे छपने वाली ‘सामयिक वार्ता’ के सम्पादन से लम्बे समय तक जुडे रहे.आजकल ‘जनसत्ता’ के सम्पादकीय विभाग में हैं. ‘समकालीन साहित्य ‘ , ‘हंस’ आदि में राजन की कवितांए छपी हैं . छात्र राजनीति से जुड़ी एक जमात ने यह कविता  पर्चे और पोस्टर (हाथ से बने ,छपे नहीं ) द्वारा प्रसारित की.उस जमात का छात्र -राजनीति की मुख्यधारा से कैसा नाता होगा,इसका अंदाज लगाया जा सकता है .

बहरहाल, पिछली प्रविष्टि में स्थापना दिवस पर गांधी जी के भाषण का जिक्र किया था.गांधी जी के चुनिन्दा भाषणों मे गिनती होती है ,उस भाषण की  .वाइसरॉय लॉर्ड हार्डिंग के आगमन की तैय्यारी में शहर के चप्पे – चप्पे में खूफ़िया तंत्र के बिछाये गये जाल ,विश्वनाथ मन्दिर की गली की गन्दगी से आदि का भी गांधी जी ने उल्लेख किया था .यहां उच्च शिक्षण की बाबत जो उल्लेख आया था,उसे दे रहा हूं :

“मैं आशा करता हूं कि यह विश्वविद्यालय इस बात का प्रबन्ध करेगा कि जो युवक – युवतियां यहां पढने आवें , उन्हें उनकी मतृभाषाओं के जरिए शिक्षा मिले.हमारी भाषा हमारा अपना प्रतिबिम्ब होती है . और अगर आप कहें कि भाषांए उत्तम विचारों को प्रकट करने में असमर्थ हैं ,तो मैं कहूंगा कि जितनी जल्दी इस दुनिया से हमारा अस्तित्व मिट जाए उतना ही अच्छा होगा . क्या यहां एक भी ऐसा आदमी है ,जो यह सपना देखता हो कि अंग्रेजी कभी हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा बन सकती है? (’कभी नहीं’ की आवाजें ) राष्ट्र पर यह विदेशी माध्यम का बोझ किस लिए ? एक क्षण के लिए तो सोचिए कि हमारे लडकों को हर अंग्रेज लडके के साथ कैसी असमान दौड दौड़नी पडती है . “

वसंतोत्सव यहां नामालूम तरीके से नहीं आता . वसंत पंचमी (१९१६ ) इस विश्वविद्यालय का स्थापना दिवस है.स्थापना दिवस के दिन छात्र – छात्रांए अलग -अलग विषय चुन कर झांकियां जुलूस की शक्ल में निकालते थे. जैसे १९८६ के स्थापना दिवस की झांकी में आचार्य नरेन्द्रदेव छात्रावास (सामाजिक विग्यान संकाय के स्नातक छात्रों का ) के बच्चों ने स्नातक प्रवेश के लिए परीक्षा को ही विषय चुना था .एक ट्रक पर विश्वविद्यालय का सिंहद्वार बना.द्वार के दो हिस्से थे.ग्रामीण पृष्ट्भूमि के छात्रों को भगा दिया जा रहा था और शहरी पृष्टभूमि के कोचिंग ,क्विज़  के अभ्यस्त बच्चों का स्वागत किया जा रहा था.सचमुच केन्द्रीय बोर्ड के पाठ्यक्रम पर आधारित प्रवेश परीक्षा के जरिए दाखिले शुरु होने के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के अपने अपने बोर्ड की परीक्षा में अच्छा करने वाले छात्र भी छंटने लगे और औद्योगिक शहरों के केन्द्रीय बोर्ड के पाठ्यक्रम पढे बच्चे बढ गये.स्थापना दिवस की झांकी पर उस वर्ष बर्बर पुलिस दमन हुआ.अब झांकिया नहीं निकलतीं स्थापना दिवस पर.

यादगार और ऐतिहासिक स्थापना दिवस तो पहला ही रहा होगा.विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मालवीय ने अंग्रेज अधिकारियों के अलावा गांधीजी ,चंद्रशेखर रमण जैसे महानुभावों को भी बुलाया था.

गांधी जी का वक्तव्य हिन्दी में हुआ .मालवीयजी को दान देने वाले कई राजे -महाराजे आभूषणों से लदे विराजमान थे .गांधी ने उन पर बेबाक टिप्पणी की .उस भाषण को सुन कर विनोबा ने कहा कि ‘इस आदमी के विचारों में हिमालय की शान्ति और बन्गाल की क्रान्ति का समन्वय है’.लोहिया ने भी उस भाषण का आगे चल कर अपनी किताब में जिक्र किया.

गांधी एक वर्ष पूर्व ही दक्षिण अफ़्रीका से लौटे थे और भारत की जमीन पर पहला सत्याग्रह एक वर्ष बाद चंपारण में होना था.’मालवीयजी महाराज’ (गांधीजी उन्हें यह कह कर सम्बोधित करते थे) की दूरदृष्टि थी की भविष्य के नेता को पहचान कर उन्हें बुलाया.

गांधीजी के भाषण से राजे महराजों के अलावा डॉ. एनी बेसेण्ट भी नाराज हुई थीं.इस भाषण के कुछ अंश तो अगली प्रविष्टि मे दूंगा लेकिन पाठकों से यह अपील भी करूंगा कि ‘सम्पूर्ण गांधी वांग्मय’ हिन्दी मे संजाल पर उपलब्ध कराने की मांग करें.सभी १०० खण्ड अंग्रेजी में संजाल पर हैं.

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पिछले भाग से आगे :

यह कहा जा रहा है कि राष्ट्रमंडल खेलों के लिए जो इन्फ्रास्ट्रक्चर बन रहा है, वह बाद में भी काम आएगा। लेकिन किनके लिए ? निजी कारों को दौड़ाने और हवाई जहाज में उडने वाले अमीरों के लिए तो दिल्ली विश्व स्तरीय शहर बन जाएगा। (वह भी कुछ समय के लिए, क्योंकि निजी कारों की बढती संख्या के लिए तो सड़कें और पार्किंग की जगहें फिर छोटी पड़ जाएंगी।) लेकिन तब तक दिल्ली के ही मेहनतकश झुग्गी झोपड़ी वासियों और पटरी-फेरी वालों को दिल्ली के बाहर खदेड़ा जा चुका होगा। उनको हटाने और प्रतिबंधित करने की जो मुहिम पिछले कुछ समय से चल रही है, उसके पीछे भी राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन है। किन्तु सवाल यह भी है कि पूरे देश का पैसा खींचकर दिल्ली के अमीरों के ऐशो-आराम के लिए लगाने का क्या अधिकार सरकार को है ? देश के गांवो और पिछड़े इलाकों को वंचित करके अमीरों-महानगरों के पक्ष में यह एक प्रकार का पुनर्वितरण हो रहा है।

एक दलील यह है कि राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के बाद भारत ओलंपिक खेलों की मेजबानी का दावा कर सकेगा और यह इन्फ्रास्ट्रक्चर उसके काम आएगा। लेकिन यह तो और बड़ा घपला व अपराध होगा। कई गुना और ज्यादा खर्च होगा, और ज्यादा गरीबों को खदेड़ा जाएगा एवं वंचित किया जाएगा। चीन में बीजिंग ओलंपिक के मौके पर यही हुआ। चीन में तो तानाशाही है, क्या भारत में भी हम वहीं करना चाहेंगे ?
चीन ने बीजिंग ओलंपिक के मौके पर विशाल राशि खर्च करके बड़े-बड़े स्टेडियम बनाए, वे बेकार पड़े हैं। उनके रखरखाव का खर्च निकालना मुद्गिकल हो रहा है और उनको निजी कंपनियों को देकर किसी तरह काम चलाने की कोशिश हो रही है।  उसी तरह सफेद हाथी पालने की तैयारी हम क्यों कर रहे हैं ?
राष्ट्रमंडल खेलों के पक्ष में एक दलील यह दी जा रही है कि बड़ी संखया में विदेशों से दर्शक आएंगे और पर्यटन से भी आय होगी। पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन जितना विशाल खर्च हो रहा है, उसका १० प्रतिशत भी टिकिटों की बिक्री और पर्यटन की आय से नहीं निकलेगा। सवाल यह भी है कि विदेशी दर्शकों और पर्यटकों के मनोरंजन के खातिर हम अपने देश की पूरी प्राथमिकताएं बदल रहे हैं और देश के लोगों की ज्यादा जरुरी जरुरतों को नजरअंदाज कर रहे हैं। क्या यह जायज है ?

गलत खेल संस्कृति

यह भी दलील दी जा रही है कि इस आयोजन से देश में खेलों को बढ़ावा मिलेगा। यह भी एक भ्रांति है। उल्टे, ऐसे आयोजनों से बहुत महंगे, खर्चीले एवं हाई-टेक खेलों की एक नई संस्कृति जन्म ले रही है, जो खेलों को आम जनता से दूर ले जा रही है और सिर्फ अमीरों के लिए आरक्षित कर रही है। आज खर्चीले कोच, विदेशी प्रशिक्षण, अत्याधुनिक स्टेडियम और महंगी खेल-सामग्री के बगैर कोई खिलाड़ी आगे नहीं बढ  सकता। पिछले ओलिंपिक में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाला भारतीय निशानेबाज अभिनव बिन्द्रा एक उदाहरण है, जिसके परिवार ने खुद अपना शूटिंग रेन्ज बनाया था और उसे यूरोप में प्रशिक्षण दिलवाया था। उसके परिवार ने एक करोड  रु. से ज्यादा खर्च किया होगा। इस देश के कितने लोग इतना खर्च कर सकते हैं ?
इन खेलों और उससे जुड़े़ पैसे व प्रसिद्धि ने एक अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है, जिसमें प्रतिबंधित दवाओं, सट्‌टे और मैच-फिक्सिंग का बोलबाला हो चला है जबरदस्त व्यवसायीकरण  के साथ खेलों में खेल भावना भी नहीं रह गई है और खेल साधारण भारतवासी से दूर होते जा रहे हैं। टीवी चैनलों ने भारतीयों को खेलने के बजाय टीवी के परदे पर देखना, खिलाडियों के फैन बनना, ऑटोग्राफ लेना आदि जरुर सिखा दिया है। व्यापक दीवानगी पैदा करके टीवी चैनल और विज्ञापनदाता कंपनियों की खूब कमाई होती है। मशहूर खिलाड़ी विज्ञापनों में उनके प्रचारक बन जाते हैं। अब तो खेल आयोजनों में चियर गर्ल्स और ड्रिंक्स गर्ल्स के रुप में इनमें भौंडेपन, अश्लीलता और नारी की गरिमा गिराने का नया अध्याय शुरु हुआ है। जनजीवन के हर क्षेत्र की तरह खेलों का भी बाजारीकरण हो रहा हैं, जिससे अनेक विकृतियां पैदा हो रही हैं। क्रिकेट और टेनिस जैसे कुछ खेलों में तो बहुत पैसा है। इनमें जो खिलाड़ी प्रसिद्धि पा लेते हैं, वे मालामाल हो जाते हैं।  लेकिन हॉकी, फुटबाल, वॉलीबाल, कबड्‌डी, खो-खो, कुश्ती, दौड -कूद जैसे पारंपरिक खेल उपेक्षित होते गए हैं। इनमें चोटी के खिलाड़ि यों की भी उपेक्षा व दुर्दशा के किस्से बीच-बीच में आते रहते हैं। हमारे खेलों का एक पूंजीवादी और औपनिवेशिक चरित्र बनता जा रहा है। सारे अन्य खेलों की कीमत पर क्रिकेट छा गया है। यह मूलतः अंग्रेजों का खेल है और दुनिया के उन्हीं मुट्‌ठी भर देशों में खेला जाता है जहां अंग्रेज बसे हैं या जो अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
भारत ने १९८२ में एशियाई खेलों का आयोजन किया था और उसमें विशाल धनराशि खर्च की थी। लेकिन उसके बाद न तो देश के अंदर खेलों को विशेष बढ़ावा मिला और न अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भारत की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। पदक तालिका में १०० करोड  से ज्यादा आबादी के इस देश का स्थान कई ४-५ करोड  के देशों से भी नीचे रहता है। इस अनुभव से भी हम ऐसे आयोजनों की व्यर्थता को समझ सकते हैं (२)

राष्ट्रमंडल खेलों के बजाय इसका आधा पैसा भी देश के गांवों और कस्बों में खेल-सुविधाओं के प्रदाय और निर्माण में, देहाती खेल आयोजनों में और देश के  बच्चों का कुपोषण दूर करने  में लगाया जाए तो देश में खेलों को कई गुना ज्यादा बढ़ावा मिलेगा। खेलों में छाये भ्रष्टाचार, पक्षपात और असंतुलन को भी दूर करने की जरुरत है। तभी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भारत की दयनीय हालत दूर होगी और वह पदक तालिका में ऊपर उठ सकेगा।

प्रतिस्पर्धा में खजाना लुटाया

कुछ साल पहले २००७ में जब भारतीय ओलंपिक संघ ने २०१४ के एशियाई खेलों की मेजबानी पाने के की असफल कोशिश की थी, तब स्वयं भारत के तत्कालीन खेल मंत्री श्री मणिशंकर अय्यर ने इसकी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि भारत के करोड़ों वंचित बच्चों, किशोरों और युवाओं को खेल-सुविधाएं न देकर इस तरह के अंतरराष्ट्रीय आयोजनों से कुछ नहीं होगा और सिर्फ भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि सुधारने के लिए इतनी फिजूलखर्ची उचित नहीं है। किन्तु श्री अय्यर की बात सरकार में बैठे अन्य लोगों को पसंद नहीं आई और जल्दी ही खेल मंत्रालय उनसे ले लिया गया।
राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी भी भारत ने जिस तरह से पाई, वह गौरतलब और शर्मनाक है। वर्ष २०१० की मेजबानी के लिए कनाडा के हेमिल्टन शहर का भी दावा था। कनाडा को प्रतिस्पर्धा से बाहर करने के लिए भारतीय ओलंपिक संघ ने सारे खिलाडि यों के मुफ्त प्रशिक्षण पर ७० लाख डॉलर (३३ करोड  रु. लगभग) का खर्च अपनी तरफ से करने का प्रस्ताव दिया। इतना ही नहीं सारे खिलाड़ियों की मुफ्त हवाई यात्रा और उनके ठहरने-खाने की मुफ्त व्यवस्था का प्रस्ताव भी उसने दिया, जो इसके पहले नहीं होता था। जो खर्च कनाडा जैसा अमीर देश नहीं कर सकता, वे खर्च भारत जैसा गरीब देश उदारता से कर रहा है।

असली एजेण्डा

वर्ष २०१० के राष्ट्रमंडल खेलों की वेबसाईट में इसका उद्देश्य बताया गया है। हरेक भारतीय में खेलों के प्रति जागरुकता और खेल संस्कृति को पैदा करना। आयोजकों ने इसके साथ की तीन लक्ष्य सामने रखे हैं – अभी तक का सबसे बढिया राष्ट्रमंडल खेल आयोजन, दिल्ली को दुनिया की मंजिल (ग्लोबल डेस्टिनेशन) के रुप में प्रोजेक्ट करना और भारत को एक आर्थिक महाशक्ति के रुप में पेश करना। बाकी तो महज लफ्फाजी है, किन्तु इन अंतिम बातों में ही इस विशाल खर्चीले आयोजन का भेद खुलता है। भारत की सरकारें विदेशी पूंजी को देद्गा में किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर बुलाने के लिए बेचैन है। विदेशी कंपनियों और उनके मालिकों-मैनेजरों-प्रतिनिधियों को आने-ठहरने-घूमने के लिए अमीर देशों जैसी ही सुविधाएं चाहिए, जिसे गलत ढंग से ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’ कहा जाता है। राष्ट्रमंडल खेलों ने भारत सरकार को दिल्ली जैसे महानगरों में अमीरों की सुविधाओं पर देश का विशाल पैसा खर्च करने का बहाना व मौका दे दिया, जो अन्यथा इस लोकतांत्रिक देश में आसान नहीं होता। भारत को ‘आर्थिक महा्शक्ति’ के रुप में पेश करना भी इसी एजेण्डा का हिस्सा है, जिससे देश के लोग अपनी असलियतों और हकीकत को भूलकर झूठे राष्ट्रीय गौरव और जयजयकार में लग जाएं। राष्ट्रमंडल खेलों से भारतीय शासकों के इस अभियान में मदद मिलती है। चीन सरकार ने भी बीजिंग ओलम्पिक का उपयोग देश में उमड़ रहे जबरदस्त असंतोष को ढकने व दबाने तथा आम नागरिको को एक झूठी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में भरमाने को किया। (स्वयं चीन सरकार की जानकारी के मुताबिक वहां एक वर्ष में एक लाख से ज्यादा स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन हुए हैं।) भारत सरकार उसी राह पर चलने की कोशिश कर रही है।

लब्बो-लुआब यह है कि राष्ट्रमंडल खेल इस देश की गुलामी, संसाधनों की लूट, बरबादी, विलासिता और गलत खेल संस्कृति के प्रतीक हैं। सभी देशभक्त लोगों को पूरी ताकत से इसके विरोध में आगे आना चाहिए। विद्यार्थी युवजन सभा और समाजवादी जन परिषद्‌ ने तय किया है कि पूरी ताकत से इस राष्ट्र-विरोधी एवं जन विरोधी आयोजन का विरोध करेंगे। आप भी इसमें शामिल हों।
यह देश अब अंग्रेज साम्राज्य का हिस्सा नहीं है। न ही यह देश मनमोहन सिंह, शीला दीक्षित और सुरेद्गा कलमाड़ी का है। उन्हें दे्श को लूटने, लुटाने और बरबाद करने का कोई हक नहीं है। यह दे्श हमारा है। यहां रहने वाले करो्ड़ों मेहनतकश लोगों का है। हम किसी को इस देश के संसाधनों को लूटने-लुटाने, अय्य्याशी करने और गुलामी को प्रतिष्ठित करने की इजाजत नहीं देंगे।

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फुटनोट :-    १.    अक्टूबर २००९ में मशहूर टेनिस खिलाड़ी और आठ बार के ग्रांड स्लैम चैंपियन आन्द्रे अगासी की आत्मकथा में की गई इस स्वीकारोक्ति ने खेल- जगत में खलबली मचा दी कि वह एक प्रतिबंधित दवा- क्रिस्टल मैथ- का सेवन करता था। एक बार जांच में पकड़ाने पर उसने झूठ बोल दिया था। (द हिन्दू, २९ अक्टूबर २००९) १५ दिसंबर २००९ को लोकसभा में खेलमंत्री ने बताया कि पिछले वर्ष से २४ खिलाडियों पर प्रतिबंधित दवाओं के सेवन का दोषी पाए जाने पर दो वर्ष की पाबंदी लगायी गयी है, ११ का मामला अभी लंबित है तथा १३ नए मामले सामने आए हैं। ( पत्रिका, भोपाल, १६ दिसंबर २००९)

२.    इसके बाद १५ दिसंबर २००९ को खेल राज्य मंत्री प्रकाश बाबू पाटील ने भी लोकसभा में स्वीकार किया कि बीजिंग ओलंपिक में भारतीय खिलाडियों के प्रदर्शन में कुछ सुधार हुआ है, किन्तु यह अभी भी संतोषजनक नहीं है। इसका कारण संगठित खेल अधोसंरचना तक पहुंच की कमी और खासतौर से ग्रामीण इलाकों में प्रतियोगिताओं की कमी है। इन कमियों के कारण हमारे पास प्रतिभावान खिलाडियों का सीमित भंडार है। (पत्रिका, भोपाल,१६ दिसंबर २००९)

[ सुनील समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं । उनका पता ग्राम/पोस्ट- केसला,वाया इटारसी , जि. होशंगाबाद,म.प्र. है । ]

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आजाद भारत के लिए यह एक शर्म का दिन था। २९ अक्टूबर २००९ को आजाद और लोकतांत्रिक भारत की निर्वाचित राष्ट्रपति सुश्री प्रतिभा पाटील अगले राष्ट्रमंडल खेलों के प्रतीक डंडे ब्रिटेन की महारानी से लेने के लिए स्वयं चलकर लंदन में उनके महल बकिंघम पैलेस में पहुंची थी। मीडिया को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगा। वह तो इसी से अभिभूत था कि भारतीय राष्ट्रपति को सलामी दी गई तथा शाही किले में ठहराया गया। किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि ब्रिटिश साम्राज्य के समाप्त होने और भारत के आजाद होने के ६२ वर्ष बाद भी हम स्वयं को ब्रिटिश सिंहासन के नीचे क्यों मान रहे हैं। साम्राज्य की गुलामी की निशानी को हम क्यों ढो रहे हैं ?

राष्ट्रीय शर्म का ऐसा ही एक अवसर कुछ साल पहले आया था, जब भारत के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में मानद उपाधि मिलने के बाद दिए अपने भाषण में अंग्रेजों की गुलामी की तारीफों के पुल बांधे थे। उन्होंने कहा था कि भारत की भाषा, शास्त्र, विश्वविद्यालय, कानून, न्याय व्यवस्था, प्रशासन, किक्रेट, तहजीब सब कुछ अंग्रेजों की ही देन है। किसी और देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ऐसा कह देता तो वहां तूफान आ जाता। लेकिन यहां पत्ता भी नहीं खड़का। ऐसा लगता है कि गुलामी हमारे खून में ही मिल गई है। राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान की बातें हम महज किताबों और भाषणों में रस्म अदायगी के लिए ही करते हैं।

साम्राज्य के खेल

३ से १४ अक्टूबर २०१० तक दिल्ली में होने वाले जिन ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों के लिए भारत सरकार और दिल्ली सरकार दिन-रात एक कर रही है, पूरी ताकत व अथाह धन झोंक रही है, वे भी इसी गुलामी की विरासत है। इन खेलों में वे ही देश भाग लेते हैं जो पहले ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहे हैं। दुनिया के करीब १९० देशों में से महज ७१ देश इसमें शामिल होंगे। इन खेलों की शुरुआत १९१८ में ‘साम्राज्य के उत्सव’ के रुप में हुई थी। राष्ट्रमंडल खेलों की संरक्षक ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय है और उपसंरक्षक वहां के राजकुमार एडवर्ड हैं। हर आयोजन के करीब १ वर्ष पहले महारानी ही इसका प्रतीक डंडा आयोजक देश को सौंपती हैं और इसे ‘महारानी डंडा रिले’ कहा जाता है। इस डंडे को उन्हीं देशों में घुमाया जाता है, जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य में रहे हैं। यह रैली हर साल बकिंघम पैलेस से ही शुरु होती है।

पूरे देश का पैसा दिल्ली में

साम्राज्य और गुलामी की याद दिलाने वाले इन खेलों के दिल्ली में आयोजन की तैयारी कई सालों से चल रही है। ऐसा लगता है कि पूरी दिल्ली का नक्शा बदल जाएगा। कई स्टेडियम, खेलगांव, चौड़ी सडकें , फ्लाईओवर, रेल्वे पुल, भूमिगत पथ, पार्किंग स्थल और कई तरह के निर्माण कार्य चल रहे हैं। पर्यावरण नियमों को ताक में रखकर यमुना की तलछटी में १५८ एकड  में विशाल खेलगांव बनाया जा रहा है, जिससे इस नदी और जनजीवन पर नए संकट पैदा होंगे।

इस खेलगांव से स्टेडियमों तक पहुंचने के लिए विशेष ४ व ६ लेन के भूमिगत मार्ग और विशाल खंभों पर ऊपर ही चलने वाले मार्ग बनाए जा रहे हैं। दिल्ली की अंदरी और बाहरी, दोनों रिंगरोड को सिग्नल मुक्त बनाया जा रहा है, यानी हर क्रॉसिंग पर फ्लाईओवर होगा। दिल्ली में फ्लाईओवरों व पुलों की संखया शायद सैकड़ा पार हो जाएगी। एक-एक फ्लाईओवर की निर्माण की लागत ६० से ११० करोड  रु. के बीच होती है। उच्च क्षमता बस व्यवस्था के नौ कॉरिडोर बनाए जा रहे हैं। हजारों की संख्या में आधुनिक वातानुकूलित बसों के ऑर्डर दे दिए गए हैं, जिनकी एक-एक की लागत सवा करोड  रु. से ज्यादा है।

राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण कार्यों के लिए पर्यावरण के नियम ही नहीं, श्रम नियमों को भी ताक में रख दिया गया है। ठेकेदारों के माध्यम से बाहर से सस्ते मजदूरों को बुलाया गया है, जिन्हें संगठित होने, बेहतर मजदूरी मांगने, कार्यस्थल पर सुरक्षा, आवास एवं अन्य सुविधाओं के कोई अधिकार नहीं है। एशियाड १९८२ के वक्त भी मजदूरों का शोषण हुआ था, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। किन्तु आज श्रम एवं पर्यावरण कानूनों के खुले उल्लंघन पर सरकार एवं सर्वोच्च न्यायालय दोनों चुप हैं, क्योंकि यह आयोजन एक झूठी ‘राष्ट्रीय प्रतिष्ठा’ का सवाल बना दिया गया है।

दिल्ली मेट्रो का तेजी से विस्तार हो रहा है और २०१० यानी राष्ट्रमंडल खेलों तक यह दुनिया का दूसरा सबसे लंबा मेट्रो रेल नेटवर्क बन जाएगा। तेजी से इसे बनाने के लिए एशिया में पहली बार एक साथ १४ सुरंग खोदनें वाली विशाल विदेशी मशीनें इस्तेमाल हो रही हैं। इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्‌डे पर ९००० करोड़ रुपए की लागत से नया टर्मिनल और रनवे बनाया जा रहा है ताकि एक घंटे में ७५ से ज्यादा उड़ानें भर सकें। इस हवाई अड्‌डे को शहर से जोड ने के लिए ६ लेन का हाईवे बनाया जा रहा है और मेट्रो से भी जोड़ा जा रहा है।
मात्र बारह दिन के राष्ट्रमंडल खेलों के इस आयोजन पर कुल खर्च का अनुमान लगाना आसान नहीं है, क्योंकि कई विभागों और कई मदों से यह खर्च हो रहा है। सरकार के खेल बजट में तो बहुत छोटी राशि दिखाई देगी। उदाहरण के लिए, हाई-टेक सुरक्षा का ही ठेका एक कंपनी को ३७० करोड  रु. में दिया गया। किन्तु यह उस खर्च के अतिरिक्त होगा, जो सरकारी पुलिस, यातायात पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती के रुप में होगा और सरकारी सुरक्षा एजेन्सियां स्वयं विभिन्न उपकरणों की विशाल मात्रा में खरीदी करेंगी।
जब सबसे पहले दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की बात चलाई गई थी तो कहा गया था कि इसमें २०० करोड  रु. खर्च होंगे। जब २०१० की मेजबानी दिल्ली को दे दी गई, तो बताया गया कि ८०० करोड  रु. खर्च होंगे। फिर इसे और कई गुना बढ़ाया गया। इसमें निर्माण कार्यों का विशाल खर्च नहीं जोड़ा गया और जानबूझकर बहुत कम राशि बताई गई। ‘तहलका’ पत्रिका के १५ नवंबर २००९ के अंक में अनुमान लगाया गया है कि राप्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर कुल मिलाकर ७५,००० करोड  रु. खर्च होने वाला है। इसमें से लगभग ६०,००० करोड  रु. दिल्ली में इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी बुनियादी ढांचा बनाने पर खर्च होगा। एक वर्ष पहले इंडिया टुडे ने अनुमान लगाया था कि राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर कुल मिलाकर ८०,००० करोड  रु. खर्च होंगे। अब यह अनुमान और बढ  जाएगा।   कहा जा रहा है कि ये अभी तक के सबसे महंगे राष्ट्रमंडल खेल होंगे। ये सबसे महंगे खेल एक ऐसे देश में होगें, जो प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से दुनिया के निम्नतम दे्शों में से एक है। हर ४ वर्ष पर होने वाले राप्ट्रमंडल खेल अक्सर अमीर देशों में ही होते रहे हैं। सिर्फ जमैका ने १९६६ और मलेशिया ने १९९८ में इनके आयोजन की हिम्मत की थी। लेकिन तब आयोजन इतना खर्चीला नहीं था। भारत से बेहतर आर्थिक हालात होने के बावजूद मलेशिया ने उस राशि से बहुत कम खर्च किया था, जितना भारत खर्च करने जा रहा है।

देश के लिए क्या ज्यादा जरुरी है ?

सवाल यह है भारत जैसे गरीब देश में साम्राज्यवादी अवशेष के इस बारह-दिनी तमाशे पर इतनी विशाल राशि खर्च करने का क्या औचित्य है ? देश के लोगों की बुनियादी जरुरतें पूरी नहीं हो रही हैं। आज दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित, आवासहीन और अशिक्षित लोग भारत में रहते हैं। इलाज के अभाव में मौतें होती रहती है। गरीबों को सस्ता राशन, पेयजल, इलाज की पूरी व्यवस्था, बुढ़ापे की पेन्शन और स्कूलों में पूरे स्थायी शिक्षक एवं भवन व अन्य सुविधाएं देने के लिए सरकार पैसे की कमी का रोना रोती है और उनमें कटौती करती रहती है। निजी-सरकारी भागीदारी और निजीकरण के लिए भी वह यही दलील देती है कि उसके पास पैसे की कमी है। फिर राष्ट्रमंडल खेलों के इस तमाशे के लिए इतना पैसा कहां से आ गया ? इस एक आयोजन के लिए उसका खजाना कैसे खुला हो जाता है और वह इतनी दरियादिल कैसे बन जाती है ? सरकार का झूठ और कपट यहीं पकड़ा जाता है।

देश के ज्यादातर स्कूलों में पूरे शिक्षक और पर्याप्त भवन नहीं है। प्रयोगशालाओं , पुस्तकालयों और खेल सुविधाओं का तो सवाल ही नहीं उठता। पैसा बचाने के लिए विश्व बैंक के निर्दे्श पर सरकारों ने स्थायी शिक्षकों की जगह पर कम वेतन पर, ठेके पर, अस्थाई पैरा – शिक्षक लगा लिए हैं। संसद में पारित शिक्षा अधिकार कानून ने भी इस हालत को बदलने के बजाय चतुराई से ढकने का काम किया है। उच्च शिक्षा के बजट में भी कटौती हो रही है तथा कॉलेजों और विद्गवविद्यालयों में ‘स्ववित्तपोषित’ पाठ्‌यक्रमों पर जोर दिया जा रहा है। इसका मतलब है गरीब एवं साधारण परिवारों के बच्चों को शिक्षा के अवसरों से वंचित करना।
भारत सरकार देश के सारे गरीबों को सस्ता रा्शन, मुफ्त इलाज, मुफ्त पानी, पेन्शन और दूसरी मदद नहीं देना चाहती है। एक झूठी गरीबी रेखा बनाकर विशाल आबादी को किसी भी तरह की मदद व सुविधाओं से वंचित कर दिया गया है। सवाल यह है कि देश की प्राथमिकताएं क्या हो ? देश के लिए क्या ज्यादा जरुरी है – देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा देना, सबको इलाज, सबको भोजन, सबको पीने का पानी, सिंचाई आदि मुहैया कराना या फिर भयानक फिजूलखर्ची वाले राष्ट्रमंडल खेलों जैसे आयोजन ? क्या यह झूठी शान और विलासिता नहीं है।
भारत की सरकारें इसी तरह हथियारों, फौज, अंतरिक्ष अभियानों, अणुबिजलीघरों जैसी कई झूठी शान वाली गैरजरुरी चीजों पर इस गरीब देश के संसाधनों को बरबाद करती रहती हैं। इसी तरह १९८२ में दिल्ली में एशियाई खेलों के आयोजन में वि्शाल फिजूलखर्च किया गया था। दिल्ली में फ्लाईओवर बनाने का सिलसिला उसी समय शुरु हुआ। दिल्ली में कई नए पांच सितारा होटलों को इजाजत भी उस समय दी गई थी, उन्हें सरकारी जमीन और मदद दी गई थी और विलासिता व अय्याशी की संस्कृति को बढ़ावा दिया गया था। राप्ट्रमंडल खेलों से एक बार फिर नए होटलों को इजाजत व मदद देने का बहाना सरकार में बैठे अमीरों को मिल गया है।

सारे नेता, सारे प्रमुख दल, बुद्धिजीवी और मीडिया झूठी शान वाले इस आयोजन की जय-जयकार में लगे हैं। विपक्षी नेता और मीडिया आलोचना करते दिख रहे हैं तो इतनी ही कि निर्माण कार्य समय पर पूरे नहीं होंगे। लेकिन इसके औचित्य पर वे सवाल नहीं उठाते। इस तमाशे में ठेकेदारों, कंपनियों तथा कमीशनखोर नेताओं की भारी कमाई होगी। उनकी पीढ़ियां तर जाएगी। विज्ञापनदाता देशी-विदेशी कंपनियों की ब्रिकी बढ़ेगी। मीडिया को भी भारी विज्ञापन मिलेंगे। घाटे में सिर्फ देश के साधारण लोग रहेंगे। यह लूट और बरबादी है।

( जारी )

अगली किश्त में – कैसा इन्फ़्रास्ट्रक्चर ? किसके लिए ?

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[ वरिष्ट कला समीक्षक एवं ’आर्यकल्प ’ के सम्पादक डॉ. लोलार्क द्विवेदी ने मृगेन्द्र प्रताप सिंह की इस शिल्प कृति पर लिखी  जीवन्त समीक्षा को छापने की अनुमति सस्नेह दी है । आभार । ]

… और अभी मीलों चलना है

मृगेन्द्र प्रताप सिंह ( प्राध्यापक , मूर्तिकला विभाग , बी.एच.यू ) के मूर्तिशिल्पों के दृश्य – विधान में जीवन – जगत का अंतरंग बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में विन्यस्त होता है । उनका शिल्प – विन्यास जीवन के उन पक्षों को सामने लाता है जो अब तक उपेक्षित हैं या जिन्हें अनदेखा कर दिया जाता है । वे छोटे – छोटे सन्दर्भों को कान्तिमान और इंद्रिय – संवेद्य बनाते हैं और उनसे संवाद करते हैं । वे ऐसे समय में अत्यन्त प्राचीन माध्यम ( प्रस्तर ) और पारम्परिक प्रविधि में काम करते हैं जबकि आधुनिक सामग्रियों को माध्यम बनाने की होड़ मची है और अपार तकनीकी सुविधायें मौजूद हैं । इतना ही नहीं , जहाँ मूर्तिकार संस्थापनों (इंस्टालेशन ) और स्थानीय-शिल्पों ( साइट-स्पेसिफिक ) को लेकर बेतरह उत्साहित हैं , मृगेन्द्र सैंडस्टोन में ही सम्पूर्ण सम्भावनाओं को परिपक्व होते देखते हैं । उनके मूर्तिशिल्पों में काया का बहुत महत्व है । काया की सादगी में उनके भावों और विचारों के बिम्ब गुँथे हुए हैं ।

मृगेन्द्र प्रताप : एक

मृगेन्द्र की बड़ी विशेषता है , उनके शिल्पों की क्षैतिज काया । प्रकृति के वे रूप जो अपने पूरे आयतन में जमीनी हैं , उन्हीं में से किसी एक का चुनाव उनकी शिल्प – काया का आधार होता है , जैसे नदी । यह नदी कहाँ से आती है , कहाँ तक इसका विस्तार है , यह प्रश्न मृगेन्द्र के लिए महत्वपूर्ण नहीं है । उनके लिए महत्वपूर्ण होता है , उसका प्रवाह , उसके रास्ते के अवरोध , पर्वत श्रेणियाँ , चट्टानें , पठार , वन ….। वे दिखाते हैं , नदी के प्रवाह के अवरोध , अवरोध के साथ लहरों का संघर्ष , संघर्ष के बीच नदी का धाराओं में बटना और फिर उछाल के साथ अवरोध को पार कर आगे बढ़ जाना । उनके दृश्य – विधान में अवरोध और प्रवाह दोनों महत्वपूर्ण हैं । अवरोध असंख्य बार आते हैं और नदी की लहरें उनसे लड़ती हैं । कहीं वे युद्धरत घोड़ों की तरह उछाल भरती हैं तो कहीं गोली की तरह अवरोधों को भेदकर आगे निकल जाती हैं । नदी की यह काया अपने विस्तार के साथ मनुष्य की देह भी हो सकती है और समूचा प्रवाह जीवन – उर्जा का रूपक । शोक – दुख , सामाजिक विडम्बनाएँ , भोग – विक्षिप्त वर्ग के षड़यंत्र , बाजरवाद और ऐसे ही बहुतेरे अवरोधों से टकराती मनुष्य की चेतना उनके प्रकल्पन में शामिल होती है । वे एक साथ कई स्तरों पर जूझते हैं । उन्हें मनुष्य और प्रकृति को एक साथ गूँथना अनिवार्य लगता है । वे पारम्परिक मूर्तिकला में व्याप्त प्रकृति के रूपों को समकालीन कला से जोड़ने के लिए संघर्ष करते हैं । इसलिए उनके शिल्प में अतीत की स्मृतियाँ लुप्त नहीं होतीं ।

मृगेन्द्र प्रताप दो

मृगेन्द्र की कोई भी कृति दर्शक को बौना नहीं बनाती । वह बहुत आत्मीयता के साथ उसे अपने से जोड़ लेती है । जब आप उनकी इस नदी की परिक्रमा करेंगे , आपको शिल्प के नए – नए अर्थ खुलेंगे । कभी लगेगा कि यह शिल्प मुक्तिबोध की उस कविता की तरह है जो कभी खत्म नहीं होती । कभी लगेगा कि अँगुलियाँ पकड़कर कोई फ्रास्ट की तरह कह रहा है … और अभी मीलों चलना है …..।

–  लोलार्क द्विवेदी

कवि एवं कला समीक्षक,

कार्यकारी सम्पादक ’ आर्यकल्प ’

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मेरे चिट्ठे पर मित्र जसवीर की मौत पर कवितायें छपी थीं और अनेक मित्रों ने पसन्द की थीं । जसवीर भाई ने अब अपना ब्लॉग ’एकला संघ’ शुरु कर दिया है । आप सब से दिली अपील है कि इस ब्लॉग पर जायें और अपनी बेबाक राय व्यक्त करें । मुझे भरोसा है कि ’एकला संघ’ का अतिशीशीघ्र एक पाठक वर्ग बन जाएगा ।

सविनय,

अफ़लातून

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मैं आज स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करूँगा । ’हिन्दुस्तान ’ अखबार द्वारा दिए गये २०१० के पंचाग के अनुसार ६ जनवरी , काशी से प्रकाशित ठाकुर प्रसाद के प्रसिद्ध पंचाग के हिसाब से ७ जनवरी तथा रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी स्वामीजी की जीवनी के अनुसार १२ जनवरी को उनकी जयन्ती है । अंग्रेजी  कैलेण्डर के हिसाब से १२ जनवरी में संशय नहीं है । अन्य दो तिथियों में अन्तर अलग – अलग पंचाग के कारण हो सकता है ।

विवेकानन्द का अध्ययन कैसे करें , क्या – क्या पढ़ना जरूरी है ? यह मैंने किशन पटनायक से पूछा था । उन्होंने कहा था कि उनके साहित्य और पत्रावली से उन खण्डों को अवश्य पढ़ना जो उनके शिकागो से लौटने के बाद की भारत यात्रा के दौरान के हैं । इसके साथ ही रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी जीवनी पढ़ने के लिए कहा था । रोमा रोलां द्वारा लिखी जीवनी के हिन्दी में दो अनुवाद उपलब्ध हैं । एक अनुवाद रामकृष्ण मिशन से जुड़े एक स्वामीजी द्वारा किया गया है और दूसरा हिन्दी साहित्य के दो दिग्गज अज्ञेय तथा रघुवीर सहाय द्वारा किया गया है । मैंने दूसरे अनुवाद को पढ़ना पसन्द किया । यह साहित्य अकादमी की ओर से लोकभारती पेपरबैक्स द्वारा प्रकाशित है ।

स्वामी विवेकानन्द की एक प्रसिद्ध उक्ति है , ’ भारत शूद्रों का होगा , शूद्र ही इसका संचालन करेगा । ’ किशन पटनायक ने इस उक्ति से लेकर ही अपने निबन्धों की पहली किताब का नाम ’भारत शूद्रों का होगा’ रखा। विवेकानन्द की उक्तियों के दो संकलन मैं पहले अपने चिट्ठों पर दे चुका हूँ । यह उक्तियाँ मैंने ’नया भारत गढ़ो ’ नामक रामकृष्ण मठ , नागपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से ली थीं । ’राष्ट्र की रीढ़’ तथा ’ ईसाई और मुसलमान क्यों बनते हैं’ इन शीर्षकों से यह प्रविष्टियां प्रस्तुत की थीं ।

परमहंस -विवेकानन्द की आध्यात्मिक धारा से राष्ट्रीय आन्दोलन तथा रघुवीर सहाय और किशन पटनायक जैसे समाजवादी प्रभावित हुए । इसकी वजह किशन पटनायक के नीचे के उद्धरण तथा रोमां रोलां रचित जीवनी से लिए गये दो उद्धरणों से काफ़ी स्पष्ट हो जाता है ।

” रामकृष्ण परमहंस कई अर्थों में एक नवीन भारत के धार्मिक संस्थापक थे । विवेकानन्द और केशवचन्द्र सेन के माध्यम से उन्हें पश्चिम का स्पर्श मिला होगा । उनका तरीका बौद्धिक नहीं था , अलौकिक था । उनके सन्देश सांकेतिक थे । उनके जीवन प्रसंगों में ही उनका सन्देश निहित था ।उनके जीवन के चार प्रसंगों को हम लें । अपने प्रियतम शिष्य को उन्होंने मोक्ष के लिए नहीं समाज जागरण के काम में लगाया । खुद हिन्दू मन्दिर का पूजक होकर इस्लाम और ईसाई धर्म की भी साधना की । चांदालों के घरों में जाकर झाड़ू लगाई और उनका पाखाना साफ़ किया । पत्नी को संन्यासिनी किया और विधवा को सुहागिन बनाया । भारतीयता के पुनर्जागरण के लिए ये सारे संकेत थे – समाज सुधार को प्राथमिकता देना , गैर भारतीय संस्कृति के मूल्यों का आदर करना और अपनाना , मनुष्य की गरिमा को स्वीकृति देना , नारी जीवन को स्वतंत्र और सकारात्मक बनाना । शारदा देवी के प्रसंग में दोनों बातें ध्यान योग्य हैं – पति के साथ संन्यासिनी और पति के बाद सुहागिन । ” (सामयिक वार्ता, १ जनवरी , १९८८ )

सरस्वती शिशु मन्दिर में प्रारम्भिक शिक्षा पाए मेरे एक मित्र ने स्वामी विवेकानन्द के उद्धरणों की मेरी  ब्लॉग प्रविष्टी पढ़कर कहा था ,

’ दिक्‍कत ये है कि दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्‍यान देने से कतराते हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे । उनके लिये विवेकानंद का जिक्र ’उत्तिष्‍ठ ’ जागृत से शुरू होता है और शिकागो वाले सम्‍मेलन के जिक्र पर खत्‍म हो जाता है । बस । ’

आज शिकागो से लौटकर चेन्नै में दिए गये उनके प्रसिद्ध भाषण से उद्धरण दे रहा हूँ :

” तुम अनुभव कर रहे हो कि लाखों जन आज बुभुक्षित हैं और लाखों एक युग से बुभुक्षित रहे हैं ? अनुभव करते हो कि अज्ञान ने अन्धकार की घटा के सदृश देश को आच्छादित कर लिया है ? यह सब अनुभव करके क्या तुम अधीर नहीं होते ? यह सब जानना क्या तुम्हारी नींद नहीं हर लेता , तुम्हें क्षोभ से पागल नहीं कर देता ? क्या तुम दारिद्र्य की यातना को पहचान कर उससे संत्रस्त हुए हो ? नाम , ख्याति,पत्नी-पुत्र ,धन-सम्पत्ति ही नहीं , अपनी देह को भी भूल चुके हो ? ….वही तो देशभक्त की साधना का प्रथम सोपान है । …युगों से जनता को आत्मग्लानि का पाठ पढ़ाया गया है । उसे सिखाया गया है कि वह नगण्य है । संसार में सर्वत्र जनसाधारन को बताया गया है कि तुम मनुष्य नहीं हो । शताब्दियों तक वह इतना भीरु रहा है कि अब पशु-तुल्य हो गया है । कभी उसे अपने आत्मन का दर्शन करने नहीं दिया गया । उसे आत्मन को पहचानने दो – जानने दो कि अधमाधम जीव में भी आत्मन का निवास है – जो अनश्वर है , अजन्मा है – जिसे न शस्त्र छेद सकता है , न अग्नि जला सकती है , न वायु सुखा सकती है ; जो अमर है , अनादि है , अनन्त उसी निर्वीकार ,सर्वशक्तिमान ,सर्वव्यापी आत्मन को जानने दो…”

” हम उस धर्म के अन्वेषी हैं जो मनुष्य का उद्धार करे …. हम सर्वत्र उस शिक्षा का प्रसार चाहते हैं जो मनुष्य को मुक्त करे । मनुष्य का हित करें ,ऐसे ही शास्त्र हम चाहते हैं ।सत्य की कसौटी हाथ में लो… जो कुछ तुम्हें मन से , बुद्धि से , शरीर से निर्बल करे उसे विष के समान त्याग दो , उसमें जीवन नहीं है , वह मिथ्या है , सत्य हो ही नहीं सकता । सत्य शक्ति देता है । सत्य ही शुचि है , सत्य ही परम ज्ञान है… सत्य शक्तिकर होगा ही , कल्याणकर होगा ही , प्राणप्रद होगा ही…यह दैन्यकारक प्रमाद त्याग दो , शक्ति का वरण करो….कण-कण में ही तो सहज सत्य व्याप्त है – तुम्हारे अस्तित्व जैसा ही सहज है वह…उसे ग्रहण करो । “

” मेरी परिकल्पना है , हमारे शास्त्रों का सत्य देश – देशान्तर में प्रचारित करने की योग्यता नवयुवकों को प्रदान करनेवाले विद्यालय भारत में स्थापित हों । मुझे और कुछ नहीं चाहिए , साधन चाहिए ; समर्थ , सजीव , हृदय से सच्चे नवयुवक मुझे दो , शेष सब आप ही प्रस्तुत हो जाएगा । सौ ऐसे युवक हों तो संसार में क्रान्ति हो जाए । आत्मबल सर्वोपरि है , वह सर्वजयी है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है ….निस्संषय तेजस्वी आत्मा ही सर्वशक्तिमान है …”

[ रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी विवेकानन्द की जीवनी से । हिन्दी अनुवाद अज्ञेय तथा रघुवीर सहाय । ]

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