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Archive for दिसम्बर, 2009

एक हकीकत

मेरी लाश अभी आयी है
एक लाश और आ रही है
दूजी अधजली है
तीसरी की राख ठंडी पड़ चुकी है |
तैयारियां चल रही हैं
उस इंसानी जिस्म को फूँकने की
जिसे हम अब तक रिश्तों से बुलाते थे |

सभी इंतजार में हैं
अर्थी को चिता पर रखते
लकडियों से उस ढांचे को ढांकते
जिसमें कोई प्राण नहीं है अब |

बदबू से बचाने को
सामग्रीघीचंदन डालते

आग लगा देंगे हड्डियों के शरीर को
सर्वधर्म समभाव के शमशान घाट पर
जहॉं एक ओंकार , हे राम और ओमशांति लिखा है
क्या सत्य है ?

शायद कुछ भी नहीं

बसं यूँ ही लोग खुद को भुलाने के लिए
मंत्र दोहराते हैं जनाजे की भीड में

नारेस्ोगन की तरह
राम नाम सत्य है
सत् ?

वो था जो नाम से जाना जाता था
या यह है जिसे हम लाश कहते हैं उसकी
राम कहां से आ गया बीच में

न कभी देखा, न सुनाउसे
और सब शवयात्राओं में उसी को सत्य कहते हैं
मौत एक उत्सव है
अवसरजहॉं सब रिश्तेदारों से मुलाकात हो जाती है
जिन्हें वैसे तो फुरसत नहीं मिलती।

कोई पूछता है क्या हुआ, कब हुआ
बतातेबताते थक चुका हूँ
मन होता है कैसेट में रिकार्ड कर
उसको चला दिया करूँ
या उनसे सवाल करूँ
तुम कर क्या सकते थे
या तुम कर क्या सकते हो।

*

औपचारिकताओं के इस काल में
मौत भी एक सूचना रह गई है
और वो अगर दूर कहीं हो

तो अखबार और टी.वी. में

गिनती-संख्या ही बस।
कितने मरे , कितने दबे…….
लो एक लाश और आ गई ।

*

खून, दूध, आंसू और

लाश की राख :
सब एकसे होते हैं
हिन्दू के और मुसलमान के
आदमी के और औरत के
शहरी और गंवार वाले के
बस उनकी मात्रा ज्यादा या कम होती है
उम्र, शरीर के अनुसार |

*

किसकी शवयात्रा में
कितनी जमात/बारात
इसका भी अभिमान
कौन किस अस्पताल में मरा
और कितना खर्च करने के बाद
(या आमदनी उन डाक्टरों को कराने के बाद )

कितनी बड़ी बीमारी से हुई मौत

*

लाश गुजरते हुए
लोग किसको मत्था टेकते हैं
परमात्मा को,
उस आत्मा को,
खुद की मौत के भविष्य को
या डर लगता है उन्हें

अपनी लाश का

*

डोम

उनका पेशा है
लाशें जलाना
जैसे कसाई का जानवर काटना
जैसे वेश्या का शरीर बेचना

संवेदना सभी की होती है

पेट की भूख ही सच होती है |

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गत दिनों हुए विधान सभा चुनावों तथा उसके पहले लोक सभा के लिए हुए आम चुनाव में अख़बारों द्वारा प्रत्याशियों द्वारा ‘ पैसे लेकर खबरें छापने’ का मुद्दा ठंडा नहीं पड़ा है | लोक सभा चुनाव के दौरान समाजवादी जनपरिषद की तरफ से मैंने चुनाव आयोग और प्रेस परिषद् को इसकी शिकायत दर्ज कराई थी | अखबार के उन पृष्टों को अपने चिट्ठे पर छापा था – पूरे पेज पर एक ही उम्मीदवार से जुडी सिर्फ ‘पेड़ न्यूज ‘ ही थी | अगले दिन ,जो मतदान का दिन  था, उस अखबार की तत्कालीन सम्पादक मृणाल पांडे ने एक नन्हा -सा स्पष्टीकरण भी छापा था | मृणाल पांडे बरसों से एडिटर्स गिल्ड के जिम्मेदार पदों पर रही हैं | ‘हिन्दुस्तान’ से मुक्त किए जाने के बाद मृणाल पांडे ने ‘पेड खबरों’ के खिलाफ ‘द हिन्दू ‘ में एक लेख भी लिख दिया | ‘हिन्दुस्तान’ में अपने  संपादकत्व में इस बाबत चली नीति का उल्लेख किए बगैर | बनारस में एक बहुराष्ट्रीय शीतल पेय कंपनी द्वारा भूगर्भ जल-दोहन के खिलाफ चले आन्दोलन के बाद उस कंपनी का एक राष्ट्रीय स्तर का अधिकारी बनारस आया था | पांच सितारा होटल में प्रमुख अखबारों के स्थानीय सम्पादक बुलाये गए थे उसके द्वारा | उस कंपनी ने अखबारों से कहा था कि आप हमारा साथ दीजिए क्योंकि आपकी तरह हम भी ‘व्यावसायिक प्रतिष्ठान’ हैं |  ‘हिन्दुस्तान’ से राष्ट्रीय स्तर पर (अन्य शहरों के संस्करण तथा ग्रुप के अन्य अखबारों के लिए) करोड़ों के विज्ञापन की ‘डील’ हो गई थी | तब भी सम्पादक मृणाल पांडे ही थीं |
बहरहाल,

हाल ही में हुई एडिटर्स गिल्ड की बैठक में बी. जी. वर्गीज और मधु कीश्वर जैसों की एक समिति  बनाई गयी है | इन नामों से उम्मीद तो बनती है  | वर्गीज साहब वरिष्ट पत्रकार होने के अलावा मानवाधिकार के मसलों जैसे ओडिशा में फर्जी मुठभेड़ में नक्सलवादियों (जनता पार्टी की सरकार में गठित समिति ) की हत्या,  संघी संगठनों द्वारा काश्मीर में मंदिर जलाए जाने की झूठी खबरों को बेनकाब करने के लिए प्रसिद्ध रहे हैं | मधु कीश्वर भारत की महिला आन्दोलन की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं,भले ही बाद में  महिला आन्दोलनों से उनकी दूरी बन गयी हो  | एडिटर्स गिल्ड इसका ठीकरा चुनाव आयोग के सर पर फोड़ना चाहता है जबकि चुनाव आयोग पहले ही अखबारों से ‘पेड न्यूज’ की परिभाषा पूछ कर ‘सूक्ष्म में प्रवेश’ ( विनोबा इस जुमले का प्रयोग करते थे और इस क्रिया का भी | तब वे बड़े  मसलों पर नहीं बोलते थे | ) कर चुका है | गिल्ड की बैठक में यह कहा गया कि समस्या कुछ  अखबारों ने पैदा की है और सब अखबार और मीडिया  उनके कारण बदनाम हो रहे हैं | क्या बदनाम करने वाले अखबारों के सम्पादक गिल्ड , इन्डियन न्यूजपेपर एसोशियेशन अथवा प्रेस परिषद् जैसे निकायों के सदस्य नहीं हैं | मेरी इस मसले पर लोक सभा चुनाव के दौरान प्रेस परिषद् के दो सदस्यों से बात हुई थी – दोनों व्यक्ति आई एन ए से भी जुड़े रहे हैं | यह थे ‘जनमोर्चा’ के शीतला सिंह तथा गांडीव के राजीव अरोड़ा | इस मुलाक़ात के तुरंत बाद प्रेस परिषद् के अध्यक्ष का एक कार्यक्रम इन्हीं सम्पादक द्वय द्वारा आयोजित था, लखनऊ में | उस मौके पर परिषद् के अध्यक्ष ने पेड न्यूज छापने वाले अखबारों की जमकर खबर ली थी |
नख-दन्त विहीन होने के बावजूद प्रेस परिषद् की संस्तुतियों का एक नैतिक दबाव अखबारों पर पड़ता है | ‘९२ के दौर में  पूर्वी उ.प्र के प्रमुख अखबार विहिप -बजरंग दल के परचों की तरह छप रहे थे | जैसे एक दिन ‘आज’ ने अपने सभी संस्करणों में मुख पृष्ट पर आठ कालम का बैनर दिया था ‘राम लला की मूर्ती गायब’ ! हमारे जैसे समूहों ने  इन अखबारों  शिकायत प्रेस परिषद् से की थी |अखबारों के दफ्तरों के सामने परचे बांटे थे | और जब परिषद् ने रघुवीर सहाय की सदारत में मसले की जांच के लिए समिति बनाई थी तब उसके समक्ष शआदत भी दी थी | सहाय जी की समिति ने अखबारों की इस भूमिका की कड़े  शब्दों में निंदा की थी | हालांकि वह पूरा मसला ही काठ की हांडी किस्म का था लेकिन उस समिति की सिफारिशों का असर सकारात्मक हुआ था |
प्रख्यात पत्रकार पी.साईनाथ ने महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में अखबारों की इस प्रकार की भूमिका पर लिखा और अभी भी लिख रहे हैं |
इस पूरे मसले पर गौर करने पर हम पाते हैं कि प्रेस परिषद् , चुनाव आयोग , एडिटर्स गिल्ड ‘पेड न्यूज’ के खतरों पर बोल चुके हैं | राजनैतिक दल भी  अखबारों के ये ‘पॅकेज’ खरीदने को मजबूर हो जाते हैं इसलिए उनकी तरफ से भी यह आवाज उठ सकती है | समाजवादी जनपरिषद जैसे छोटे दलों के खिलाफ यह नीति ज्यादा जाती है इसलिए हमने तो शुरू से इसके खिलाफ बोला ही है |
आप सोचेंगे कि तब कौन सा तबका बचा जो इस प्रकार के जम्हूरियत विरोधी व्यावसायीकरण के हक़ में होगा ? यह तबका कम चर्चा में रहता है | राष्ट्रपति , प्रधान मंत्री , मुख्य न्यायाधीश और संपादकों से भी यह तबका एक माने में विशिष्ट है | अन्य सभी की तनख्वाहें वे खुद तय नहीं करते परन्तु यह तबका अपना वेतन और पॅकेज खुद तय करता है | यह तबका है मीडिया संस्थानों के मैनेजरों का | यह तबका अखबारों के लेखों के पारिश्रमिक और सम्पादकों की तनख्वाह घटवाता है और अपनी बढ़वाता है |
|

इस मसले पर लिखी गयी अन्य पोस्ट :

चुनावों में अखबारों की गलीज भूमिका

( अप्रैल ४ , २००९ )

चुनाव से सम्बन्धित रिपोर्टिंग के लिए प्रेस परिषद के दिशा – निर्देश

(  अप्रैल ६ , २००९ )

चुनाव में मीडिया की संदिग्ध भूमिका पर ऑनलाईन प्रतिवेदन पर हस्ताक्षर करें

( मई १२ , २००९)

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यूनिफार्म

एक-सी वर्दी पहने हुए
सड़क पर मार्च करती भीड़ के लोगों से
मुझे डर लगता है।
चाहे वह केसरिया वाले साधु हों
चाहे आर्मी के जवान
चाहे श्‍वेत साड़ी वाली बहनें
चाहे ईद पर जा रहे नमाजी
या फिर खादी वाले गांधीवादी।
न जाने कब जुनून सवार हो जाए
औरों की शामत आ जाए।

यूनिफार्म व्‍यक्तित्‍व का हनन है
और इंसान की नुमाईश
बस यह स्‍कूली बच्‍चों के लोक नृत्‍य में ही अच्‍छी लगती है।
अभी रंग-बिरंगे गंदे और मटमैले कपड़े वाले
लोग दिखे हैं
जो रिक्‍शे चला रहे हैं
जो चाय बना रहे हैं
और गुब्‍बारे बेच रहे हैं
तभी तो हौंसला बना है मुझमें
भीड़ की विपरीत दिशा में चलने का।

अबे मुन्‍ना !

छीलते रहो तुम घास खुरपी से
ताकि हमारे लॉन सुंदर बने रहें
देते रहो सब्जियों में पानी

ताकि हम उनका स्‍वाद उठा सकें
फूल उगाते रहो तुम
ताकि हम ” फ्लावर शो ” में इनाम पा सकें,
छत पर चढ़ जाया करो तुम
जब बच्‍चे हमारे क्रिकेट खेलें
ताकि गेंद वापिस लाने में देर न लगे,
हम गोल्‍फ की डंडी घुमायेंगे चहलकदमी में
गेंद उठाने तुम दौड़ते हुए जाना
तभी तो हमारी बिटिया रानी ‘ सानिया ‘ बनेगी
तुम बाल-ब्‍वाय की प्रेक्टिस करो।
ढोते रहो तुम फाइलों का बोझा सिर पर
हुसैनपुर से तिलक‍ब्रिज तक
और तिलकब्रिज से हुसैनपुर तक

ताकि हम उन पर चिडिया-बैठाते रहे
और काटते छॉंटते रहें अपनी ही लिखावट
और रेल उड़ाते रहे आकाश में।
तुम्‍हें नौकरी हमने दी है
हम तुम्‍हारे मालिक हैं
हम अपने भी मालिक हैं

तुम तो भोग रहे हो अपने कर्म
हमें तो राज करने का वर्सा मिला है
गुलामी तुम्‍हारा जन्‍म-सिद्ध फर्ज है
और अफसरी हमारा स्‍थायी हक ।

मुन्‍ना भाई-

लगे रहो
तुम हो गांधी की जमात के गंवार स्‍वदेशी
हम बढ़ते जायेंगे आगे-

नेहरू की जमात के शहरी अंग्रेज
तुम चुपचाप खाना बनाते रहो
परोसते रहो
डॉंट खाते रहो।

प्रार्थना

मन हो जिसका सच्चा

विश्‍वास हो जिसका पक्का

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता।

1. खुद भूखा रहकर भी जो

औरों की भूख मिटाता

हृदय – सागर उसका

कभी न खाली होता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

2. अर्न्तवाणी सुनकर जो

काज प्रभु का करता

मुक्त रहे चिंता से

शांत सदा वो रहता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

3.              जीवन रहते ही जो

मौत का अनुभव करता

संसार में रहकर भी

संसार से दूरी रखता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

4.              अन्याय कहीं भी हो

कैसा भी हो किसी का

खुद का दाँव लगाकर

हिम्मत से जो लड़ता

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

5.              दु:ख और सुख में जो दिल

ध्यान प्रभु का रखता

दूर रहे दुविधा से

नहीं व्यापत उसमें जड़ता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।
समर्पण

सौंप दो प्यारे प्रभु को

सब सरल हो जाएगा

जीना सहज हो जाएगा

मरना सफल हो जायेगा।

1. जिन्दगी की राह में

ऑंधियां तो आयेंगी

उसकी ही रहमत से

हमको हौसला मिल पायेगा।

2.              सोचता है हर कोई

अपने मन की बात हो

होगा जो मंजूर उसको

वक्त पर हो जाएगा।

3. मोड़ ले संसार वाले

नजरें तुमसे जिस घडी

हो यकीं तो आसरा

उसका तुम्हें मिल जाएगा।

4. माँगने से मिलता है

केवल वही जो माँगा था

कुछ न माँगो तो

खुदा खुद ही तुम्हें मिल जाएगा।

5. काटोगे फसलें वही

जैसी तुमने बोयी थी

कर्मो का चक्कर है

इससे कोई न बच पायेगा।

हमारे जमाने में यह होता था

केवल बूढ़ों की बातें ही नहीं

न ही अफसाने – किस्से

ये हो सकते हैं-

कभी चिडियों की चूँ-चूँ से हम जगते थे।

कभी बिना रूमाल मुँह पर रखे हम सांस ले सकते थे।

कभी सूरज बादलों की धुंध के पीछे नहीं छुपता था।

कभी पेड़ पर हरे पत्तो की छाया होती थी।

हाँ कभी –

हमारे जमाने की वो बात है

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‘‘भोपाल गैसकांड इस देश की सरकारों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गहरी सांठगांठ का नतीजा था। कंपनियों  की खुली तरफदारी और गुलामी का एक नया दौर इस कांड से शुरु हुआ। ………….. भोपाल गैसकांड से कोई सबक सीखे बगैर भारत की सरकारों ने वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों तथा देश-विदेशी कंपनियों की गुलामी को तेजी से आगे बढ़ाया है। ………………हम उस गलत विकास नीति और औद्योगीकरण की नीति का विरोध करते हैं जो भोपाल गैसकांड पैदा करती है। हम एक नयी दुनिया बनाने के लिए लड़ेंगें। हम इस बात के लिए संघर्ष करेंगे कि दुनिया में दोबारा भोपाल जैसा कांड न हो।’’

यह उस ऐलान का हिस्सा है, जो मध्यप्रदेश के जनसंगठनों के लोगों ने भोपाल गैस त्रासदी की 25वीं बरसी के मौके पर आयोजित एक संगोष्ठी के अंत में किया। सेमिनारों से अलग यह एक अनूठी संगोष्ठी थी। बंद वातानुकूलित सभागारों के बजाय इसका आयोजन एक पार्क के खुले मैदान में हुआ था। इसमें देश के कुछ चोटी के विद्वानों और विशेषज्ञों के साथ-साथ देश के गरीबतम लोगों ने भाग लिया था। भोपाल के गैस पीड़ि्तों तथा बुर्काधारी महिलाओं के साथ-साथ मध्यप्रदेश   के सुदूर जंगलों से बीस-बीस कि.मी. रेल्वे स्टेशन तक पैदल चलकर आए आदिवासी भी इसमें शामिल हुए। इन सबमें एक बुनियादी समानता थी। ये सब आधुनिक ‘विकास’ के शिकार लोग थे और उस विकास को पूरी ताकत से लादने वाले ताकतवर राज्यतंत्र से वे जूझ रहे थे। इनमें बांधों के विस्थापित थे, अणुबिजली संयंत्र से होने वाले भावी विस्थापित थे और जल-जंगल-जमीन पर अपने हक की लड़ाई लड़ने वाले गांववासी भी थे। इनमें सबके दिमाग में एक बात साफ थी। वह यह कि आधुनिक विकास और औद्योगीकरण से बड़े-बड़े लोगों को फायदा होता होगा, लेकिन उनके लिए इसमें कोई जगह नहीं है। बल्कि उनकी जिंदगियों पर हमले और उनके कष्ट बढ़ते जा रहे हैं।

2 और 3 दिसंबर 1984 के बीच की रात को भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस ने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया और लाखों लोगों को हमेशा के लिए बीमार, अशक्त और अपाहिज बना दिया। लेकिन त्रासदी यहीं खतम नहीं हुई। गैस-पीड़ितों के इलाज, पुनर्वास और मुआवजे-वितरण में सरकार ने जो लापरवाही, कोताही और भ्रष्टाचार बरता, कंपनी के अमरीकी मालिक एंडरसन को जिस तरह से गिरफ्तार करके छोड़ दिया और भोपाल से व देश से भागने के लिए सरकारी हेलिकॉप्टर उपलब्ध कराया तथा उसके खिलाफ भोपाल की अदालत के वारंट को आज तक तामील नहीं करवाया, कंपनी के खिलाफ हरजाने-मुआवजे के दावे में जो समझौता किया, कारखाने के परिसर के अंदर व आसपास पड़े जहरीले कचरे को आज तक ठिकाने लगाने का काम नहीं किया — वह दूसरी त्रासदी है। दुनिया के सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा भारत में ही क्यों हुआ, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गरीब देशों में क्या भूमिका रहती है, ऐसे कारखानों की क्या जरुरत है और उनसे किसका विकास होता है — इन सारे सवालों पर न तो देश ने गंभीरता से विचार किया और न हमारी सरकारों ने कोई सबक सीखा। यह इस त्रासदी का तीसरा पहलू है। आजाद भारत की इस बड़ी त्रासदी के इस तीसरे किन्तु महत्वपूर्ण पक्ष पर बहुत कम चर्चा हुईहै।

यूनियन कार्बाइड के भोपाल कारखाने में कीटनाशक दवाई बनती थी। जैसा कि इस संगोष्ठी में गांधीवादी वैज्ञानिक डॉ. सुरेन्द्र गाडेकर ने ध्यान दिलाया कि कीटनाशक रसायन मूलत: जहर है और उन्हें दवाई कहना गलत है। जिसे हम दवाई समझ रहे थे वही एक बीमारी बन गई है। उसने पर्यावरण में और हमारे जीवन में जहर घोलने का काम किया है। भोपाल गैसकांड ने बताया कि यह जहर कितना जानलेवा और खतरनाक है। जहां भोपाल जैसा हादसा नहीं होता, वहां भी जीवन में और परिवेश में इस तरह के जहर धीरे-धीरे घुलते जा रहा है। भोपाल त्रासदी के वक्त किसी ने बताया था कि पूरी दुनिया में भारतीयों के शरीर में सबसे ज्यादा डीडीटी जमा है। भोपाल कांड के बाद हमने विकास की इस दिशा पर पुनर्विचार नहीं किया और कीटनाशकों व अन्य जहरीले रसायनों के अंधाधुंध उपयोग को बढ़ावा देते रहे। आज भारत कीटनाशकों के इस्तेमाल में दुनिया का तीसरे नंबर का मुल्क बन गया है।

भोपाल गैसकांड ने एक तरह से ‘हरित क्रांति’ के पर्यावरणीय खतरों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया था। लेकिन खतरे की इस घंटी को अनसुना करके हमारी सरकारें उसी आत्मघाती राह पर बढ़ती रही और अब वे ‘दूसरी हरित क्रांति’ की बात कर रही हैं। जैव तकनालॉजी तथा जीन संशोधित बीजों वाली इस नयी खेती को रासायनिक खेती का विकल्प बताया जा रहा है, लेकिन जो कंपनियां इसे ला रही है, उनकी रणनीति तो दोनों को मिलाकर अपने मुनाफों को अधिकतम करने की है। यह नयी तकनालॉजी पहले वाली से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि इसके क्या प्रभाव लोगों की जिंदगी व पर्यावरण पर पड़ेंगें, अभी पूरी तरह मालूम भी नहीं है। पहले वाली तकनालॉजी पूरी तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है। जिस तरीके से भारत सरकार ने बीटी-कपास के बाद बीटी-बैंगन को मंजूरी देने की ताबड़तोड़ तैयारी की है, वह खतरनाक है। एक अर्थ में, यह कई नए क्रमिक भोपाल बनाने की तैयारी है।

ऐसे ही कई भोपाल उन अणुबिजली कारखानों में तैयार हो रहे हैं, जिनके विस्तार का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम भारत सरकार ने बनाया है। भारत सरकार में बैठे लोग उसके लिए इतने बैचेन है कि देश की संप्रभुता के साथ समझौता करके सरकार को भी दांव पर चढ़ाकर, उन्होंने अमरीका के साथ परमाणु करार किया और फ्रांस, रुस, कनाडा आदि के साथ करते जा रहे हैं। यह मानव समाज की अभी तक की सबसे ज्यादा खतरनाक तकनालॉजी है, जिसके जहरीले कचरे को कहां डाला जाए व कैसे निपटाया जाए, इसका सुरक्षित तरीका अभी तक वैज्ञानिक नहीं खोज पाए हैं। हर अणुबिजली कारखाने की उम्र 25-30 साल होती है जिसके बाद वह हजारों सालों तक जहरीला रेडियोधर्मी विकिरण छोड़ने वाले हजारों टन कचरे का विशाल भंडार बन जाता है। हाल ही में कैगा के अणुबिजली कारखाने में ट्रिशियम की बहुत छोटी-सी मात्रा पानी में घुल जाने से पूरे देश में खलबली मच गई। ऐसा लाखों टन जहर हम तैयार कर रहे हैं। वह कहां जाएगा ? हिरोशिमा, नागासाकी और चेर्नोबिल के अनुभव के बाद भी हमने कुछ नहीं सीखा है। यदि चेर्नोबिल जैसी दुर्घटना नहीं भी हो, तो भी इन अणुबिजली कारखानों का रेडियोधर्मी प्रदूषण आसपास के इंसानों, पशुओं, मछलियों और वनस्पति को लगातार गहरा नुकसान पहुंचा रहा है, यह भी हमें जादुगुड़ा, रावतभाटा और तारापुर से मालूम हो गया है। हम यह भी नहीं समझ रहे हैं कि चेर्नोबिल दुर्घटना के बाद अमीर देशों में अणुबिजली संयंत्र बनाने वाली कंपनियों का धंधा मंदा पड़ गया है और वे भारत जैसे देशों में बाजार खोज रही हैं।

देश की जनता की कीमत पर कंपनियों के स्वार्थों को तरजीह देने का काम एक तरह से देखें तो भोपाल से ही खुलकर शुरु हुआ। यूनियन कार्बाइड के कारखाने में पहले भी गैस रिसी थी और इक्का-दुक्का मौतें हुई थी। भोपाल शहर के आयुक्त एम.एन.बुच ने कारखाने को शहर से बाहर ले जाने की सिफारिश की थी, जिसे नजरअंदाज कर दिया गया। पत्रकार राजकुमार केसवानी की रपटों और मुख्यमंत्री के नाम चिट्ठी तथा मजदूर संघ के ज्ञापनों का भी वही हश्र हुआ। दिसंबर 1982 में विधानसभा में सवाल उठा तो श्रम मंत्रीने जबाब दिया – ‘इसमें 25 करोड़ रु. की लागत लगी है, यह कोई छोटा सा पत्थर नहीं है कि इसको उठाकर किसी दूसरी जगह रख दूं। इसका पूरे देश से संबंध है। ऐसा नहीं कि भोपाल को इससे बहुत बड़ा खतरा पैदा हो गया है और ऐसी कोई संभावना नहीं है।’

यदि मध्यप्रदेश सरकार ने तब कोई ध्यान दिया होता तो शायद भोपाल गैसकांड नहीं हुआ होता और लाखों लोगों की जिंदगियां बच जाती। लेकिन जनहित पर 25 करोड़ रु. की पूंजी भारी पड़ गई। जनहित व देशहित को ताक में रखकर कार्पोरेट पूंजी को आमंत्रति करने, जमीन देने, करों में राहत तथा सुविधाएं देने और मनमानी की खुली छूट देने का काम भोपाल कांड के बाद बंद नहीं हुआ, बल्कि कई गुना बढ़ गया है। भोपाल कांड के 1984 के बाद तो इस देश में 1991 में वैश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की शुरुआत होनी ही नहीं चाहिए थी, लेकिन हुई। भोपाल में ही बैठा मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर, खजुराहो में कई इन्वेस्टर्स मीट कर रहा है तथा कंपनियों व पूंजीपतियों को दावत देने खुद बंगलौर, मुंबई , दिल्ली और लंदन जा रहा है। वही काम लगभग सभी प्रांतो के मुख्यमंत्री कर रहे हैं, चाहे वे किसी भी राजनैतिक दल के हों।

जिस तरह का स्वच्छन्द, उन्मुक्त और अनियंत्रति ‘कंपनी राज’ आज देश में कायम हो रहा है, वह अभूतपूर्व है। भोपाल कांड के वक्त और आज के बीच यही फरक आया है कि अब विदेशी कंपनियों के साथ भारत की भी कुछ कंपनियां बड़ी बन गई हैं। इसी कंपनी राज के नतीजे के रुप में सिंगूर, नंदीग्राम, कलिंगनगर, काशीपुर, नियमगिरी, पोस्को, दादरी, सिंगरौली, रीवा जैसे कांड सामने आ रहे हैं। एक तरह से यह भोपाल की ही व्यापक पुनरावृत्ति है। भोपाल गैसकांड और इनमें बुनियादी समानता यही है कि सरकारें पूरी तरह कार्पोरेट पूंजी के सामने समर्पण कर देती है और उनकी तरफ से अपनी जनता पर जुल्म ढाने लगती है।

विधानसभा में 1982 में मंत्री ने यूनियन कार्बाइड के संबंध में कहा था कि इसका संबंध देश से है। दलील यही दी जाती है कि देश के विकास के लिए यह सब जरुरी है। औद्योगीकरण से ही देश में रोजगार पैदा होंगें तथा विकास होगा।  लेकिन ये जुमले देश की जनता काफी समय से सुनती आ रही है। विकास चंद मुट्ठी भर लोगों का हो रहा है, वह तो बाहर हाशिए पर खड़ी है, लुट रही है। उसका मोहभंग हो रहा है। आधुनिक औद्योगीकरण से रोजगार पैदा होंगे व बेरोजगारी की समस्या हल होगी, यह दलील भी पूरी तरह झूठी साबित हुई है। दूसरी पंचवर्षीय योजना से भारत सरकार ने भारी औद्योगीकरण की राह पकड़ी थी। पांच दशक से ज्यादा होने के बाद भी देश के साढ़े सात प्रतिशत से ज्यादा रोजगार संगठित क्षेत्र में नहीं मिल पाए हैं। तब देश की बहुसंख्यक आबादी को औद्योगीकरण की इस दावत में शामिल होने के लिए कितने युगों तक इंतजार करना पडेगा ? अब तो उल्टा हो रहा है। सरकार की मदद से कंपनियों द्वारा संगठित रोजगार को खतम करके ठेकेदारों को काम दिया जा रहा है, जहां जमकर शोषण होता है। तेजी से हो रहे मशीनीकरण ने भी रोजगार खतम करने का काम किया है।

दूसरी ओर, तीव्र औद्योगीकरण और कंपनीकरण ने जल-जंगल-जमीन को तेजी से हड़पना शुरु किया है, जिससे करोड़ों लोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तरीके से विस्थापित हो रहे हैं। यानी जीविका के पारंपरिक स्त्रोत भी संकट मंे आ गए हैं। देश के साधारण जन तो धोबी के कुत्ते बन गए हैं, जो न घर के रहे, न घाट के। उन्हें गांवों से और जंगलों से खदेड़ा जा रहा है तथा शहरों में उनकी जगह नरकतुल्य झोपड़पटि्टयों मंे ही है। क्या इसी को ‘विकास’ कहेंगें ?

भोपाल गैसकांड की 25वीं बरसी पर यही सबसे बड़ा सवाल उभर कर आता है। विकास की एक गलत, अनुपयुक्त, आयातित और साम्राज्यवादी अवधारणा का नतीजा यह कांड था। ऐसा लगता है कि भारत की सरकारों ने इस कांड से कोई सबक नहीं सीखा है। शायद वे सीखना भी नहीं चाहती है, क्योंकि शासक वर्ग के गहरे नीहित स्वार्थ इस कथित ‘विकास’ में है। इसीलिए वे एक अंधविश्वास की तरह आधुनिक औद्योगीकरण और विकास के इस मॉडल से चिपके हुए हैं। लेकिन देश के बाकी लोगों को तो इस पर गंभीरता से चिंतन-मनन करना होगा और इसका विकल्प खोजना होगा। यही भोपाल का सबसे बड़ा सबक है और आज की सबसे बड़ी चुनौती है। यदि इस सबक को याद नहीं रखा गया, तो कई भोपाल होगें और ऐसे दर्दनाक मंजर बार-बार अलग-अलग रुपों में आते रहेगें।

( लेखक समाजवादी जनपरिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है । सम्पर्क : केसला, जि. होशंगाबाद , म.प्र. , 461111, )

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१९३६ में गुजरात साहित्य परिषद के समक्ष परिषद के पत्रकारिता प्रभाग की रपट महादेव देसाई ने प्रस्तुत की थी । उक्त रपट के प्रमुख अनुदित हिस्से इस ब्लॉग पर मैंने दिए थे । नीचे की कड़ी ऑनलाईन पीडीएफ़ पुस्तिका के रूप में पेश है । मुझे उम्मीद है कि पीडीएफ़ फाइल में ऑनलाईन पेश की गई इस पुस्तिका का ब्लॉगरवृन्द स्वागत करेंगे और उन्हें इसका लाभ मिलेगा । महादेव देसाई गांधीजी के सचिव होने के साथ-साथ उनके अंग्रेजी पत्र हरिजन के सम्पादक भी थे । कई बार गांधीजी के भाषणों से सीधे टेलिग्राम के फार्म पर रपट बना कर भाषण खतम होते ही भेजने की भी नौबत आती थी । वे शॉर्ट हैण्ड नहीं जानते थे लेकिन शॉर्ट हैण्ड जानने वाले रिपोर्टर अपने छूटे हुए अंश उनके नोट्स से हासिल करते थे ।

पत्रकारिता : महादेव देसाई-पीडीएफ़

इस ब्लॉग पर पुस्तिका की पोस्ट-माला (लिंक सहित) नीचे दी हुई है :

पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य

पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई

पत्रकारिता (३) : खबरों की शुद्धता , ले. महादेव देसाई

पत्रकारिता (४) : ” क्या गांधीजी को बिल्लियाँ पसन्द हैं ? ”

पत्रकारिता (५) :ले. महादेव देसाई : ‘ उस नर्तकी से विवाह हेतु ५०० लोग तैयार ‘

पत्रकारिता (६) : हक़ीक़त भी अपमानजनक हो, तब ? , ले. महादेव देसाई

समाचारपत्रों में गन्दगी : ले. महादेव देसाई

क्या पाठक का लाभ अखबारों की चिन्ता है ?

समाचार : व्यापक दृष्टि में , ले. महादेव देसाई

रिपोर्टिंग : ले. महादेव देसाई

तिलक महाराज का ‘ केसरी ‘ और मैंचेस्टर गार्डियन : ले. महादेव देसाई

विशिष्ट विषयों पर लेखन : ले. महादेव देसाई

अखबारों में विज्ञापन , सिनेमा : ले. महादेव देसाई

अखबारों में सुरुचिपोषक तत्त्व : ले. महादेव देसाई

अखबारों के सूत्रधार : सम्पादक , ले. महादेव देसाई

कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार (१९३८) : महादेव देसाई

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१२ दिसम्बर को मणिपुर में सरकारी छुट्टी मनाई गई । उन साहसी महिलाओं की स्मृति में जिन्होंने अंग्रेज संगीनों और मारवाड़ी व्यापारियों की मिली – भगत से हुए षड़यंत्र का मुकाबला अपनी एकजुटता दिखा कर किया था । यह गौरतलब है कि इन बहादुर महिलाओं की स्मृति में कार्यक्रम आयोजित करने वाले भाजपा महिला मोर्चा और मणिपुर मुस्लिम शहीद स्मृति समिती से लगायत प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी जन मोर्चा तक के लोग थे । स्वाभाविक है कि राज्यपाल और मुख्य मन्त्री भी किसी न किसी आयोजन में शामिल हुए ।

’नूपी लान’ यानी महिलाओं द्वारा युद्ध या लड़ाई । मणिपुरी महिलाओं के युद्ध का इतिहास १८५१ से ही शुरु होता है।

पहली नूपी लान १९०४ में हुई। जनता द्वारा अंग्रेज सहायक रेसिडेन्ट का बंग्ला जला दिया गया था। इसके फलस्वरूप अंग्रेज फौजी अफ़सर लेफ़्टिनेन्ट कर्नल मैक्सवेल ने हुक्म जारी किया था कि १७-६० वर्ष तक के हर पुरुष को प्रत्येक चालीस दिनों में १० दिन की बेगारी करनी होगी। लाजमी तौर पर मणिपुरी महिलायें भी बेगारी के इस हुक्म से पीडित थीं ।

इसके साथ ही महिलाओं के गुस्से का एक अन्य प्रमुख कारण भी था । मणिपुर में चावल की एक किस्म हुआ करती थी जो अत्यन्त स्वादिष्ट होने के साथ साथ पौष्टिक भी थी । देश के अन्य भागों की तरह अंग्रेज यहां भी स्थानीय राजा के काम काज,दमन-शोषण में दखल नहीं देते थे। बदले में उन्हें राजा से नियमित लगान मिल जाया करता था । अंग्रेज अधिकारियों ने मारवाड़ी व्यापारियों से मिली-भगत कर चावल निर्यात करवाना शुरु कर दिया जिसके फलस्वरूप मणिपुर की जनता भुखमरी की कगार पर आ गई। फुटकर धान बेचने वाली महिलाओं की गुहार का अंग्रेज अधिकारों के बहरे कानों पर पर कोई असर नहीं हुआ ।

इन दोनों प्रमुख कारणों से मणिपुरी महिलाओं का गुस्सा फूटा । ५ , अक्टूबर १९०४ के ऐतिहासिक दिन मणिपुर का अंग्रेज पॉलिटिकल एजेन्ट जब सुबह की सैर से लौटा तो उसने पाया तो उसने पाया कि करीब ३००० महिलायें उसके बंग्ले को घेरे हुए थीं तथा कुछ ही देर में २००० अन्य महिलायें भी वहां आ जुटीं। इनमें कई फुटकर धान बेचने वाली महिलायें थीं । इस घटना का विवरण मैक्सवेल ने इन अल्फ़ाज़ में किया है :

’ जंगली बिल्लियों की ऐसी भीड़ के साथ क्या सलूक किया जाए यह सोचना बहुत कठिन है लेकिन अगली बार इतनी बड़ी तादाद में वे जुटती हैं उसके पहली ही उन्हें तितर-बितर करने के उपाय मैं कर लूँगा’ ।

अंग्रेज अफ़सरों ने असम राईफ़ल्स के जवानों को बुला भेजा । इन जवानों ने अपनी बन्दूकों की संगीन से महिलाओं पर हमला कर दिया । कई महिलाएँ जख्मी हो गयीं लेकिन वे तितर बितर नहीं हुईं ।

भयभीत अंग्रेज अफ़सरों को आखिरकार धान निर्यात रोकने का आदेश देना पड़ा । मणिपुर की जनता की आवश्यकताओं को नजरअन्दाज करते हुए मारवाड़ी व्यापारी इसके बावजूद ’लाल पास (Red Pass) की मदद से इस रोक का उल्लंघन करते रहे ।

[ काशी विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करम मणिमोहन सिंह द्वारा लिखी पुस्तक – नूपी लान तथा अखबारों की खबरों के आधार पर । ]

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छनकर बचा हुआ तबका  उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठानों तक पहुंच पाता हो भले ही लेकिन शिक्षा के बजट का बड़ा हिस्सा इसी मद में खर्च होता है । इसके बावजूद यह अपेक्षा की जा रही है कि उच्च शिक्षा के संस्थान और विश्वविद्यालय अपने स्तर पर संसाधन जुटायें ।

देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय (काशी विश्वविद्यालय) में संसाधन जुटाने के तरीकों में जो फर्क आया है उस पर इस पोस्ट में ध्यान आकर्षित किया गया है ।

यह विश्वविद्यालय  इंजीनियरिंग की पढ़ाई देश में सबसे पहले शुरु करने वाले केन्द्रों में से एक है । इसके फलस्वरूप आई.आई.टियों के निर्माण के पहले अधिकांश बड़े इंजीनियरिंग के पदों पर यहीं के स्नातक पाए जाते थे । बनारस के दो प्रमुख उद्योगों के विकास में इस विश्वविद्यालय का हाथ रहा । संस्थापक महामना मालवीय के आग्रह पर एक चेकोस्लोवाकियन दम्पति यहां के सेरामिक विभाग से जुड़े़ । इन लोगों ने विश्वविद्यालय के आस पास के लोगों को मानव निर्मित मोती बनाने का प्रशिक्षण दिया । आज यह बनारस का प्रमुख कुटीर उद्योग है । इसी विभाग द्वारा उत्पादित चीनी मिट्टी के कप – प्लेट भी काफ़ी पसन्द किए जाते थे । बनारस का एक अन्य प्रमुख लघु उद्योग छोटा काला पंखा रहा है। इसके निर्माताओं ने भी पहले पहल काशी विश्वविद्यालय से ही प्रशिक्षण पाया । इंजीनियरिंग कॉलेज के औद्योगिक रसायन विभाग द्वारा टूथ पेस्ट भी बनाया और बेचा जाता था ।

इस प्रकार इन उत्पादों द्वारा न सिर्फ़ विश्विद्यालय संसाधन अर्जित करता था अपितु बनारस वासियों के लिए  रोजगार के नये अवसर भी मुहैय्या कराता था ।

ग्लोबीकरण के दौर को किशन पटनायक ने एक प्रतिक्रान्ति के तौर पर देखा था । जैसे क्रान्ति जीवन के हर क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन लाती है  वैसे ही प्रतिक्रान्ति हर क्षेत्र में नकारात्मक दिशा में ले जाने वाली तब्दीलियाँ लाती है । काशी विश्वविद्यालय के संसाधन अर्जन के मौजूदा तरीकों पर गौर करने से यह प्रतिक्रान्ति समझी जा सकती है ।

हमारे छात्र जीवन में किसान -घर के लड़के विश्वविद्यालय परिसर के हॉ्स्टेल में कमरा पाना चाहते थे क्योंकि उसका भाड़ा १० रुपये प्रति माह होता तथा घर से आये अनाज से कमरे के हीटर पर भोजन बन जाता । ऐसे ही दाल बनाते हुए कवि गोरख पांडे ने लिखा था ,’देश गल रहा है,या दाल गल रही है’ । बहरहाल ,बढ़ी हुई फीस तथा मेस में खाने की अनिवार्यता से बचने के लिए अब किसान घर के बच्चे परिसर के बाहर रहने के लिए बाध्य हैं । जैसे सूती कपड़े पहनने वाले सिंथेटिक पहनने के लिए बाध्य हो गये हैं ।

संसाधन कमाने के नाम पर देश के संसाधनों की लूट को पोख्ता करने के उपाय अब विश्वविद्यालय की शोध परियोजनायें कर रही हैं । भूभौतिकी विभाग ने कोका कोला से समझौता किया है । इस प्रोजेक्ट द्वारा कम्पनी इन ’विद्वानों’ से कहलवाना चाहती है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस दानवाकार बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा भूगर्भ जल दोहन से कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ने वाला । विभाग में इस प्रोजेक्ट को चलाने वाला विश्विद्यालय प्रशासन का पसन्दीदा व्यक्ति है चूंकि वह रैंगिंग विरोधी समिति का अधिकारी भी बनाया गया है ।

भारत की खेती को पराश्रित बनाने में विशाल बीज कम्पनियाँ प्रमुख भूमिका अदा कर रही हैं । कई विकासशील देशों की राष्ट्रीय आय से ज्यादा का सालाना व्यवसाय करने वाली यह कम्पनियां लूट के साधन के तौर पर विकसित नई किस्मों पर शोध के लिए करोड़ों रुपये दे रही हैं । लाजिम है कि मोन्सैन्टों जैसी इन कम्पनियों के प्रवक्ताओं को ही सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जा रहा है ।

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