‘‘भोपाल गैसकांड इस देश की सरकारों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गहरी सांठगांठ का नतीजा था। कंपनियों की खुली तरफदारी और गुलामी का एक नया दौर इस कांड से शुरु हुआ। ………….. भोपाल गैसकांड से कोई सबक सीखे बगैर भारत की सरकारों ने वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों तथा देश-विदेशी कंपनियों की गुलामी को तेजी से आगे बढ़ाया है। ………………हम उस गलत विकास नीति और औद्योगीकरण की नीति का विरोध करते हैं जो भोपाल गैसकांड पैदा करती है। हम एक नयी दुनिया बनाने के लिए लड़ेंगें। हम इस बात के लिए संघर्ष करेंगे कि दुनिया में दोबारा भोपाल जैसा कांड न हो।’’
यह उस ऐलान का हिस्सा है, जो मध्यप्रदेश के जनसंगठनों के लोगों ने भोपाल गैस त्रासदी की 25वीं बरसी के मौके पर आयोजित एक संगोष्ठी के अंत में किया। सेमिनारों से अलग यह एक अनूठी संगोष्ठी थी। बंद वातानुकूलित सभागारों के बजाय इसका आयोजन एक पार्क के खुले मैदान में हुआ था। इसमें देश के कुछ चोटी के विद्वानों और विशेषज्ञों के साथ-साथ देश के गरीबतम लोगों ने भाग लिया था। भोपाल के गैस पीड़ि्तों तथा बुर्काधारी महिलाओं के साथ-साथ मध्यप्रदेश के सुदूर जंगलों से बीस-बीस कि.मी. रेल्वे स्टेशन तक पैदल चलकर आए आदिवासी भी इसमें शामिल हुए। इन सबमें एक बुनियादी समानता थी। ये सब आधुनिक ‘विकास’ के शिकार लोग थे और उस विकास को पूरी ताकत से लादने वाले ताकतवर राज्यतंत्र से वे जूझ रहे थे। इनमें बांधों के विस्थापित थे, अणुबिजली संयंत्र से होने वाले भावी विस्थापित थे और जल-जंगल-जमीन पर अपने हक की लड़ाई लड़ने वाले गांववासी भी थे। इनमें सबके दिमाग में एक बात साफ थी। वह यह कि आधुनिक विकास और औद्योगीकरण से बड़े-बड़े लोगों को फायदा होता होगा, लेकिन उनके लिए इसमें कोई जगह नहीं है। बल्कि उनकी जिंदगियों पर हमले और उनके कष्ट बढ़ते जा रहे हैं।
2 और 3 दिसंबर 1984 के बीच की रात को भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस ने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया और लाखों लोगों को हमेशा के लिए बीमार, अशक्त और अपाहिज बना दिया। लेकिन त्रासदी यहीं खतम नहीं हुई। गैस-पीड़ितों के इलाज, पुनर्वास और मुआवजे-वितरण में सरकार ने जो लापरवाही, कोताही और भ्रष्टाचार बरता, कंपनी के अमरीकी मालिक एंडरसन को जिस तरह से गिरफ्तार करके छोड़ दिया और भोपाल से व देश से भागने के लिए सरकारी हेलिकॉप्टर उपलब्ध कराया तथा उसके खिलाफ भोपाल की अदालत के वारंट को आज तक तामील नहीं करवाया, कंपनी के खिलाफ हरजाने-मुआवजे के दावे में जो समझौता किया, कारखाने के परिसर के अंदर व आसपास पड़े जहरीले कचरे को आज तक ठिकाने लगाने का काम नहीं किया — वह दूसरी त्रासदी है। दुनिया के सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा भारत में ही क्यों हुआ, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गरीब देशों में क्या भूमिका रहती है, ऐसे कारखानों की क्या जरुरत है और उनसे किसका विकास होता है — इन सारे सवालों पर न तो देश ने गंभीरता से विचार किया और न हमारी सरकारों ने कोई सबक सीखा। यह इस त्रासदी का तीसरा पहलू है। आजाद भारत की इस बड़ी त्रासदी के इस तीसरे किन्तु महत्वपूर्ण पक्ष पर बहुत कम चर्चा हुईहै।
यूनियन कार्बाइड के भोपाल कारखाने में कीटनाशक दवाई बनती थी। जैसा कि इस संगोष्ठी में गांधीवादी वैज्ञानिक डॉ. सुरेन्द्र गाडेकर ने ध्यान दिलाया कि कीटनाशक रसायन मूलत: जहर है और उन्हें दवाई कहना गलत है। जिसे हम दवाई समझ रहे थे वही एक बीमारी बन गई है। उसने पर्यावरण में और हमारे जीवन में जहर घोलने का काम किया है। भोपाल गैसकांड ने बताया कि यह जहर कितना जानलेवा और खतरनाक है। जहां भोपाल जैसा हादसा नहीं होता, वहां भी जीवन में और परिवेश में इस तरह के जहर धीरे-धीरे घुलते जा रहा है। भोपाल त्रासदी के वक्त किसी ने बताया था कि पूरी दुनिया में भारतीयों के शरीर में सबसे ज्यादा डीडीटी जमा है। भोपाल कांड के बाद हमने विकास की इस दिशा पर पुनर्विचार नहीं किया और कीटनाशकों व अन्य जहरीले रसायनों के अंधाधुंध उपयोग को बढ़ावा देते रहे। आज भारत कीटनाशकों के इस्तेमाल में दुनिया का तीसरे नंबर का मुल्क बन गया है।
भोपाल गैसकांड ने एक तरह से ‘हरित क्रांति’ के पर्यावरणीय खतरों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया था। लेकिन खतरे की इस घंटी को अनसुना करके हमारी सरकारें उसी आत्मघाती राह पर बढ़ती रही और अब वे ‘दूसरी हरित क्रांति’ की बात कर रही हैं। जैव तकनालॉजी तथा जीन संशोधित बीजों वाली इस नयी खेती को रासायनिक खेती का विकल्प बताया जा रहा है, लेकिन जो कंपनियां इसे ला रही है, उनकी रणनीति तो दोनों को मिलाकर अपने मुनाफों को अधिकतम करने की है। यह नयी तकनालॉजी पहले वाली से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि इसके क्या प्रभाव लोगों की जिंदगी व पर्यावरण पर पड़ेंगें, अभी पूरी तरह मालूम भी नहीं है। पहले वाली तकनालॉजी पूरी तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है। जिस तरीके से भारत सरकार ने बीटी-कपास के बाद बीटी-बैंगन को मंजूरी देने की ताबड़तोड़ तैयारी की है, वह खतरनाक है। एक अर्थ में, यह कई नए क्रमिक भोपाल बनाने की तैयारी है।
ऐसे ही कई भोपाल उन अणुबिजली कारखानों में तैयार हो रहे हैं, जिनके विस्तार का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम भारत सरकार ने बनाया है। भारत सरकार में बैठे लोग उसके लिए इतने बैचेन है कि देश की संप्रभुता के साथ समझौता करके सरकार को भी दांव पर चढ़ाकर, उन्होंने अमरीका के साथ परमाणु करार किया और फ्रांस, रुस, कनाडा आदि के साथ करते जा रहे हैं। यह मानव समाज की अभी तक की सबसे ज्यादा खतरनाक तकनालॉजी है, जिसके जहरीले कचरे को कहां डाला जाए व कैसे निपटाया जाए, इसका सुरक्षित तरीका अभी तक वैज्ञानिक नहीं खोज पाए हैं। हर अणुबिजली कारखाने की उम्र 25-30 साल होती है जिसके बाद वह हजारों सालों तक जहरीला रेडियोधर्मी विकिरण छोड़ने वाले हजारों टन कचरे का विशाल भंडार बन जाता है। हाल ही में कैगा के अणुबिजली कारखाने में ट्रिशियम की बहुत छोटी-सी मात्रा पानी में घुल जाने से पूरे देश में खलबली मच गई। ऐसा लाखों टन जहर हम तैयार कर रहे हैं। वह कहां जाएगा ? हिरोशिमा, नागासाकी और चेर्नोबिल के अनुभव के बाद भी हमने कुछ नहीं सीखा है। यदि चेर्नोबिल जैसी दुर्घटना नहीं भी हो, तो भी इन अणुबिजली कारखानों का रेडियोधर्मी प्रदूषण आसपास के इंसानों, पशुओं, मछलियों और वनस्पति को लगातार गहरा नुकसान पहुंचा रहा है, यह भी हमें जादुगुड़ा, रावतभाटा और तारापुर से मालूम हो गया है। हम यह भी नहीं समझ रहे हैं कि चेर्नोबिल दुर्घटना के बाद अमीर देशों में अणुबिजली संयंत्र बनाने वाली कंपनियों का धंधा मंदा पड़ गया है और वे भारत जैसे देशों में बाजार खोज रही हैं।
देश की जनता की कीमत पर कंपनियों के स्वार्थों को तरजीह देने का काम एक तरह से देखें तो भोपाल से ही खुलकर शुरु हुआ। यूनियन कार्बाइड के कारखाने में पहले भी गैस रिसी थी और इक्का-दुक्का मौतें हुई थी। भोपाल शहर के आयुक्त एम.एन.बुच ने कारखाने को शहर से बाहर ले जाने की सिफारिश की थी, जिसे नजरअंदाज कर दिया गया। पत्रकार राजकुमार केसवानी की रपटों और मुख्यमंत्री के नाम चिट्ठी तथा मजदूर संघ के ज्ञापनों का भी वही हश्र हुआ। दिसंबर 1982 में विधानसभा में सवाल उठा तो श्रम मंत्रीने जबाब दिया – ‘इसमें 25 करोड़ रु. की लागत लगी है, यह कोई छोटा सा पत्थर नहीं है कि इसको उठाकर किसी दूसरी जगह रख दूं। इसका पूरे देश से संबंध है। ऐसा नहीं कि भोपाल को इससे बहुत बड़ा खतरा पैदा हो गया है और ऐसी कोई संभावना नहीं है।’
यदि मध्यप्रदेश सरकार ने तब कोई ध्यान दिया होता तो शायद भोपाल गैसकांड नहीं हुआ होता और लाखों लोगों की जिंदगियां बच जाती। लेकिन जनहित पर 25 करोड़ रु. की पूंजी भारी पड़ गई। जनहित व देशहित को ताक में रखकर कार्पोरेट पूंजी को आमंत्रति करने, जमीन देने, करों में राहत तथा सुविधाएं देने और मनमानी की खुली छूट देने का काम भोपाल कांड के बाद बंद नहीं हुआ, बल्कि कई गुना बढ़ गया है। भोपाल कांड के 1984 के बाद तो इस देश में 1991 में वैश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की शुरुआत होनी ही नहीं चाहिए थी, लेकिन हुई। भोपाल में ही बैठा मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर, खजुराहो में कई इन्वेस्टर्स मीट कर रहा है तथा कंपनियों व पूंजीपतियों को दावत देने खुद बंगलौर, मुंबई , दिल्ली और लंदन जा रहा है। वही काम लगभग सभी प्रांतो के मुख्यमंत्री कर रहे हैं, चाहे वे किसी भी राजनैतिक दल के हों।
जिस तरह का स्वच्छन्द, उन्मुक्त और अनियंत्रति ‘कंपनी राज’ आज देश में कायम हो रहा है, वह अभूतपूर्व है। भोपाल कांड के वक्त और आज के बीच यही फरक आया है कि अब विदेशी कंपनियों के साथ भारत की भी कुछ कंपनियां बड़ी बन गई हैं। इसी कंपनी राज के नतीजे के रुप में सिंगूर, नंदीग्राम, कलिंगनगर, काशीपुर, नियमगिरी, पोस्को, दादरी, सिंगरौली, रीवा जैसे कांड सामने आ रहे हैं। एक तरह से यह भोपाल की ही व्यापक पुनरावृत्ति है। भोपाल गैसकांड और इनमें बुनियादी समानता यही है कि सरकारें पूरी तरह कार्पोरेट पूंजी के सामने समर्पण कर देती है और उनकी तरफ से अपनी जनता पर जुल्म ढाने लगती है।
विधानसभा में 1982 में मंत्री ने यूनियन कार्बाइड के संबंध में कहा था कि इसका संबंध देश से है। दलील यही दी जाती है कि देश के विकास के लिए यह सब जरुरी है। औद्योगीकरण से ही देश में रोजगार पैदा होंगें तथा विकास होगा। लेकिन ये जुमले देश की जनता काफी समय से सुनती आ रही है। विकास चंद मुट्ठी भर लोगों का हो रहा है, वह तो बाहर हाशिए पर खड़ी है, लुट रही है। उसका मोहभंग हो रहा है। आधुनिक औद्योगीकरण से रोजगार पैदा होंगे व बेरोजगारी की समस्या हल होगी, यह दलील भी पूरी तरह झूठी साबित हुई है। दूसरी पंचवर्षीय योजना से भारत सरकार ने भारी औद्योगीकरण की राह पकड़ी थी। पांच दशक से ज्यादा होने के बाद भी देश के साढ़े सात प्रतिशत से ज्यादा रोजगार संगठित क्षेत्र में नहीं मिल पाए हैं। तब देश की बहुसंख्यक आबादी को औद्योगीकरण की इस दावत में शामिल होने के लिए कितने युगों तक इंतजार करना पडेगा ? अब तो उल्टा हो रहा है। सरकार की मदद से कंपनियों द्वारा संगठित रोजगार को खतम करके ठेकेदारों को काम दिया जा रहा है, जहां जमकर शोषण होता है। तेजी से हो रहे मशीनीकरण ने भी रोजगार खतम करने का काम किया है।
दूसरी ओर, तीव्र औद्योगीकरण और कंपनीकरण ने जल-जंगल-जमीन को तेजी से हड़पना शुरु किया है, जिससे करोड़ों लोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तरीके से विस्थापित हो रहे हैं। यानी जीविका के पारंपरिक स्त्रोत भी संकट मंे आ गए हैं। देश के साधारण जन तो धोबी के कुत्ते बन गए हैं, जो न घर के रहे, न घाट के। उन्हें गांवों से और जंगलों से खदेड़ा जा रहा है तथा शहरों में उनकी जगह नरकतुल्य झोपड़पटि्टयों मंे ही है। क्या इसी को ‘विकास’ कहेंगें ?
भोपाल गैसकांड की 25वीं बरसी पर यही सबसे बड़ा सवाल उभर कर आता है। विकास की एक गलत, अनुपयुक्त, आयातित और साम्राज्यवादी अवधारणा का नतीजा यह कांड था। ऐसा लगता है कि भारत की सरकारों ने इस कांड से कोई सबक नहीं सीखा है। शायद वे सीखना भी नहीं चाहती है, क्योंकि शासक वर्ग के गहरे नीहित स्वार्थ इस कथित ‘विकास’ में है। इसीलिए वे एक अंधविश्वास की तरह आधुनिक औद्योगीकरण और विकास के इस मॉडल से चिपके हुए हैं। लेकिन देश के बाकी लोगों को तो इस पर गंभीरता से चिंतन-मनन करना होगा और इसका विकल्प खोजना होगा। यही भोपाल का सबसे बड़ा सबक है और आज की सबसे बड़ी चुनौती है। यदि इस सबक को याद नहीं रखा गया, तो कई भोपाल होगें और ऐसे दर्दनाक मंजर बार-बार अलग-अलग रुपों में आते रहेगें।
( लेखक समाजवादी जनपरिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है । सम्पर्क : केसला, जि. होशंगाबाद , म.प्र. , 461111, )
25.269112
82.996162
Like this:
पसंद करें लोड हो रहा है...
Read Full Post »