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Archive for सितम्बर, 2008

” जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं । इस जड़ता और नि्ष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है , अन्यथा पतन और बरबादी का वातावरण छा जाता है । लोगों को गुमराह करनेवाली प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं । इससे इंसान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है । इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रान्ति की स्पिरिट ताजा की जाय , ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो । ” भगतसिंह

 

 

फांसी की सज़ा सुनकर बटुकेश्वर दत्त को पत्र

                            सेन्ट्रल जेल , लाहौर

                             अक्तूबर १९३०

      प्रिय भाई ,

             मुझे सुना दी गई है और फाँसी का हुक्म हुआ है । इन कोठरियों में मेरे अलावा फांसी का इन्तज़ार करनेवाले बहुत-से मुजरिम हैं । यह लोग यही प्रार्थनाएँ कर रहे हैं कि किसी तरह वे फांसी से बच जांए । लेकिन उनमें से शायद मैं अकेला ऐसा आदमी हूं जो बड़ी बेसब्री से उस उस दिन का इन्तज़ार कर रहा हूं जब मुझे अपने आदर्श के लिए फांसी के तख्ते पर चढ़ने का सौभा्ग्य मिलेगा । मैं खुशी फांसी के तख्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा दूंगा कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से कु्र्बानी दे सकते हैं ।

            मुझे फांसी की सज़ा मिली है , मगर तुम्हें उम्र कैद । तुम जिन्दा रहोगे और जिन्दा रहकर तुम्हें दुनिया को यह दिखा देना है कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए सिर्फ मर ही नहीं सकते , बल्कि ज़िन्दा रहकर हर तरह की यातनाओं का मुकाबला भी कर सकते हैं । मौत सांसारिक मुसीबतों से छुटकारा पाना का साधन नहीं बननी चाहिए , बल्कि जो क्रान्तिकारी संयोगवश फांसी के फन्दे से बच गए हैं , उन्हें जिन्दा रहकर दुनिया को यह दिखा देना चाहिए कि वे न सिर्फ अपने आदर्शों के लिए फांी पर चढ़ सकते हैं , बल्कि जेलों की अँधेरी कोठरियों में घुट-घुटकर हद दर्जे के अत्याचारों को भी सहन कर सकते हैं ।

                                     तुम्हारा ,

                                     भगतसिंह

 

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हिन्दू बनाम हिन्दू – डॉ. राममनोहर लोहिया के इस महत्वपूर्ण निबन्ध कल प्रस्तुत किया गया था ।  सम्पूर्ण निबन्ध पीडीएफ़ -रूप में यहाँ उपलब्ध है । सुधी पाठकों से प्रोत्साहन मिला तो और पॉडकास्ट भी प्रस्तुत किए जाएंगे ।

 

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[ स्वराज के बाद का भारत जिस प्रकार गांधी वाले रास्ते से विचलित हुआ उससे भवानी बाबू का हृदय हिल उठता था । १९५९ में लिखी यह कविता , विश्व बैंक से पहली बार कर्जा लेने की बात उसी समय शुरु हुई थी । ]

पहले इतने बुरे नहीं थे तुम

याने इससे अधिक सही थे तुम

किन्तु सभी कुछ तुम्ही करोगे इस इच्छाने

अथवा और किसी इच्छाने , आसपास के लोगोंने

या रूस-चीन के चक्कर-टक्कर संयोगोंने

तुम्हें देश की प्रतिभाओंसे दूर कर दिया

तुम्हें बड़ी बातोंका ज्यादा मोह हो गया

छोटी बातों से सम्पर्क खो गया

धुनक-पींज कर , कात-बीन कर

अपनी चादर खुद न बनाई

बल्कि दूरसे कर्जे लेकर मंगाई

और नतीजा चचा-भतीजा दोनों के कल्पनातीत है

यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है ।

– भवानीप्रसाद मिश्र .

[ चित्र स्रोत : अनहदनाद ]

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वरिष्ट पत्रकार और चिन्तक साथी राजकिशोर का यह लेख प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है । लेख पीडीएफ़ में है इसलिए संजाल से अलग कर इसे पढ़ना भी सरल है । आपकी टिप्पणियाँ राजकिशोर जी को भेजी जाएंगी ।

हिन्दी पत्रकारिता की भाषा : राजकिशोर 

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दिल्ली

कच्चे रंगों में नफ़ीस

चित्रकारी की हुई , कागज की एक डिबिया

जिसमें नकली हीरे की अंगूठी

असली दामों के कैश्मेम्प में लिपटी हुई रखी है ।

लखनऊ

श्रृंगारदान में पड़ी

एक पुरानी खाली इत्र की शीशी

जिसमें अब महज उसकी कार्क पड़ी सड़ रही है ।

बनारस

बहुत पुराने तागे में बंधी एक ताबीज़ ,

जो एक तरफ़ से खोलकर

भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है ।

इलाहाबाद

एक छूछी गंगाजली

जो दिन-भर दोस्तों के नाम पर

और रात में कला के नाम पर

उठायी जाती है ।

बस्ती

गांव के मेले में किसी

पनवाड़ी की दुकान का शीशा

जिस पर अब इतनी धूल जम गयी है

कि अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता ।

( बस्ती सर्वेश्वर का जन्म स्थान है । )

                 सर्वेश्वर की प्रतिनिधि कविताओं से

 

 

 

 

 

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