भालू की आँखें तुझे देख रही हैं तूने उसे जो पानी का सोता दिखाया था वह ऊपर गुफा तक जाता है भालू की आँखें कहती हैं तुझे गुफा तक ले जाऊँ वहाँ तू भालू को सीने से लगा सोएगी बीच रात उठ पेड़ों से डर मेरा कंधा माँगेगी भालू पड़ा होगा जहाँ तू सोई थी कीट पतंगों की आवाज के बीच बोलेगी चिड़िया तुझे प्यार करने के लिए भालू को पुचकारुँगा तू ले लेगी भालू को फिर देगी अपना नन्हा सीना बहुत कोशिश कर पूछेगी बापू भालू मैं सुनूँगा भालू भालू गाऊँगा सो जा भालू सो जा भालू नहीं कह पाऊँगा उस वक्त दिमाग में होगी सुधा छत्तीसगढ़ में मजदूर औरत की बाँहों से तुझे लेती तब तक कहता रहूँगा सो जा भालू सो जा जब तक तेरी आँखों में फिर से आ जाएगा जंगल जहाँ वह सोता है जो ऊपर गुफा तक जाता है.......... किस डर से आया हूँ यहाँ डरों की लड़ाई में कहाँ रहेगा हमारा डर तेरा भविष्य बोस्निया से भागते अंतिम क्षण हे यीशुः कितनी बार क्षमा क्या अयोध्या में आए सभी निर्दोषों को करेगा ईश्वर मुआफ तू क्या जाने ईश्वर बड़ा पाखंडी वह देगा और ताकत उन्हें जो हमें डराते भालू को थामे रख यह पानी का सोता जंगल में बह निकल जहाँ जाता है वहाँ पानी नहीं खून बहता है तब चाँद नहीं दिखता भालू डर जाएगा......... भालू को थामे रख वह नहीं हिंदू मुसलमान खेल और गा भालू खा ले आलू कोई मसीहा नहीं जो भालू को बचा पाएगा कोई नहीं माता पिता बंधुश्चसखा इस जंगल से बाहर ... भालू को थामे रख। (रविवारी जनसत्ता १९९२)
Dear friend:
Inspite of my frequent request for sending your mail in pdf format, you keep on sending it in such a format that I get it scarmbled. It’s too bad I could not read even today’s poem so no way I could add any comments.
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