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Archive for अक्टूबर 30th, 2008

भाग २,भाग ३
कहीं भी टकरा जाएंगे आप उनसे । मेट्रो में आपके सामने आई पॉड लिए बैठी वह किशोरी जो धड़ाधड अपने सेल फोन पर मेसेज टाइप कर रही है । गर्मियों में आपके दफ़्तर में प्रशिक्षु बन कर आया वह बाजीगरी हुनर वाला वह लड़का , जो आपके ईमेल के क्लाएन्ट के क्रश हो जाने पर क्या करना चाहिए यह जानता है । आठ साल की वह बच्ची जो बाजार में उपलब्ध किसी भी विडियो गेम में आपको शिकस्त दे सकती है , साथ ही आप से कहीं तेज टाइप कर भी लेती है । या लन्दन में पैदा आपकी भान्जी का वह बच्चा , जिससे अब तक आप नहीं मिले हैं , फिर भी हर हफ़्ते आने वाली उसकी तसवीरों को पा कर आपका उससे एक नाता-सा जुड़ गया है।

यह सभी “जन्मजात डिजिटल” हैं । यह सभी सन १९८० के बाद पैदा हुए हैं – जब यूज़नेट और बुलेटिन बोर्ड जैसे सिस्टम का आविर्भाव हो चुका था । डिजिटल टेक्नॉलॉजी इन सबकी पहुँच में है । सभी इन तकनीकों का इस्तेमाल जानते हैं,(सिवाय उस नवजात के ,जो अति शीघ्र उस तकनीक से परिचित हो जाएगा ।)

इन जन्मजात डिजिटलों के कुछ हूनरों से मुमकिन है आप प्रभावित हुए/हुईं हों । शायद आपके युवा मातहत ने आपको ऐसा प्रफुल्लित कर देने वाले राजनैतिक व्यंग्य खोज कर पढ़वाया हो जो आप न खोज पाते । अथवा उसने इतनी प्रभावशाली प्रस्तुति तैय्यार की हो कि आप द्वारा तैय्यार  पॉवर पॉइन्ट स्लाइड्स उसकी तुलना में मध्ययुगीन लगने लगी हों ! या आपके बेटे ने परिवार की छुट्टियों के चित्रों द्वारा फोटोशॉप से काएदे का क्रिसमस कार्ड बना दिया हो । शायद उसी आठ साल की बच्ची ने ऐसा मजाकिया विडियों खुद तैयार किया हो कि जिसे हजारों लोग यूट्यूब पर देख चुके हों ।

लेकिन यह भी मुमकिन है कि कोई जन्मजात डिजिटल आपकी नाराज़गी का कारण बना हो । यह बहुत संभव है कि आपका वही मातहत आपके ग्राहकों को अत्यन्त बेपरवाह हो कर ईमेल भेजता हो और काएदे का मुद्रित पत्र कैसे बनाया जाए यह जानता ही न हो । हो सकता है कि आपकी बिटिया कभी खाने पर वक्त से पहुँचती ही न हो क्योंकि वह मित्रों से चैटियाती हुई ऑनलाइन व्यस्त रहती हो । भोजन के टेबल पर पहुँचने के बाद भी यह संभव है कि वह टेबल के नीचे मोबाइल छुपा कर एसेमेस कर रही हो ।

अलग-से हैं ये बच्चे । पढ़ने , काम करने , लिखने , परस्पर संवाद के उनके तरीके आप जब बड़े हो रहे थे तब इन्हीं कामों को जैसे करते थे उन तरीकों से बिलकुल जुदा हैं । क्या पता इन पैदाइशी डिजिटलों से आप कुछ डरते भी हों । आपका बेटा बताता है कि नौवीं कक्षा उसके एक सहपाठी ने अपने वेब पन्ने पर डरावनी और हिंस्र सामग्री चढ़ाई हैं ! या आपने भी सुना है कि कॉलेज-छात्रों की एक गोल ने ४८७ क्रेडिट कार्ड चुरा लिए थे , फिर पुलिस ने जिन्हें धर दबोचा ।

इनके बारे में यह तो पक्का है के वे अलग-से हैं । पढ़ने , काम करने,लिखने और संवाद उनके तौर तरीके जुदा है । वे ब्लॉग पढ़ते हैं , अखबार नहीं पढ़ते । रू-ब-रू मिलने के पहले कई बार वे ऑनलाइन मिल चुके होते हैं । संभवत: वे नहीं जानते होंगे कि लाइब्रेरी कार्ड कैसा दिखता है , उनका अपना कार्ड होने की बात तो दूर की बात है । यदि उनके पास लाइब्रेरी कार्ड हो तब भी ज्यादा मुमकिन है कि उसका इस्तेमाल उन्होंने किया ही न हो । उन्हें संगीत ऑनलाइन मिल जाता है -अक्सर मुफ़्त ही – रेकॉर्ड की दुकानों से उन्होंने संगीत नहीं खरीदा।शाम को मिलने का कार्यक्रम पक्का करने के लिए वे फोन नहीं करते,एसेमेएस करते है । वे पिल्ले पालते नहीं आभासी नियोपेट्स रखते हैं । वे एक दूसरे से एक संस्कृति विशेष से बँधे हैं । उनके सामाजिक-संवाद , दोस्तियाँ , गतिविधियाँ जैसे जीवन के मुख्य पहलू सब डिजिटल तकनीक की मध्यस्थता से निर्धारित हैं । इससे अलग किसी जीवन शैली से उनका तार्रुफ़ नहीं हुआ होता ।

७० के दशक के आखिरी सालों में शुरुआत हुई और दुनिया बड़ी तेजी से बदलने लगी।पहला बुलेटिन बोर्ड सिस्टम आया जिससे लोग दस्तावेजों का आदान करने लगे,ऑनलाइन खबरें पढ़ने लगे और सूचनाओं का आदान प्रदान करने लगे । ८० के दशक की शुरुआत में यूज़नेट समूह समुदायों में परिचर्चा आयोजित करने लगे , यह काफ़ी लोकप्रिय हुईं । ८० के दशक के आखिरी सालों में ईमेल लोकप्रिय होने लगा। १९९१ में वर्ल्ड वाइड वेब  का प्रादुर्भाव हुआ और ब्राउज़र कुछ ही वर्षों में आ गए।  ९० के दशक के आखिरी सालों में सर्च इंजन , पोर्टल और ई-कॉम्रर्स जाल स्थल आ गए।

शताब्दी की शुरुआत में पहले सामाजिक नेटवर्क और ब्लॉग आ गए । सन २००१ में पॉलेरॉएड ने खुद को दीवालिया घोषित किया , ठीक उसी समय जब डिजीटल कैमेरा बाजार में आना शुरु हुए।( पॉलेरॉएड कम्पनी के कैमेरा ‘तुरन्त-खींचा-तुरन्त पाया’ के लिए जाने जाते थे।)

२००६ में रेकॉर्ड बनाने वाली कम्पनियों का भट्टा बैठने लगा , २००८ आते-आते अमेरिका में संगीत बिक्री की सबसे बड़ी कम्पनी आई-ट्यून्स बन गयी। आज ज्यादातर युवा ,दुनिया के अधिकतर समाजों में ऐसे मोबाइल , साईडकिक , आई-फोन्स हर समय लिए फिरते हैं और इन उपकरणों से आप न सिर्फ़ फोन कर सकते हैं अपितु एसेमेस भेज सकते हैं , इन्टरनेट पर विचर सकते हैं तथा संगीत भी डाउनलोड कर सकते हैं ।

यह अब तक के सबसे त्वरित तकनीकी रूपान्तरण का दौर है , कम से कम सूचना के सन्दर्भ में सर्वाधिक त्वरित परिवर्तनों का। चीनियों ने यूरोप के जोहैनस गुटेनबर्ग द्वारा मध्य १५वीं सदी में विकसित छापेखाने से सैंकड़ों पहले यह खोज कर ली थी । इसके बाद की कुछ सदियों तक कुछ ही लोग मुद्रित पुस्तकें खरीदने की औकात रखते थे। इसके विपरीत पूरी दुनिया में एक अरब से ज्यादा लोग डिजिटल टेक्नॉलॉजी अपना चुके हैं । इसके बावजूद कि कई समाज डिजिटल तकनीक से संतृप्य हो चुके हैं अभी तक डिजिटल-युग में कोई पीढ़ी  जन्म से मौत तक नहीं गुजरी ।

पैदाइशी डिजिटल

पैदाइशी डिजिटल

सूचना तकनीक का प्रयोग हम जैसे कर रहे हैं उससे जीवन का कोई भी आयाम अछूता नहीं रह गया है । मसलन व्यापार को लें , गति बढ़ गयी है और ज्यादा दूर तक संभव हो गया है , अक्सर बहुत कम पूंजी की जरूरत पड़ती है । राजनेता अपने क्षेत्र के लोगों को ईमेल भेजते हैं ,  अपने अभियानों का परिचय अपनी वेबसाइट पर विडियो चढ़ा कर देते हैं,तथा अपने कार्यकर्ताओं डिजिटल औजारों से लैस कर सकते हैं ताकि वे अपने कार्यक्रम बेहतर ढंग से पेश कर सकें । धर्म भी रूपान्तरित हो रहा है : पादरी , पुजारी ,ईमाम,रैबी(यहूदी धर्म गुरु) , गुरु तथा बौद्ध भिक्षु तक अपने अनुयाइयों तक अपने ब्लॉगों के जरिए पहुंच रहे हैं । फिर भी , सबसे ज्यादा गौरतलब है कि डिजिटल-युग में लोगों के जीवन में जो परिवर्तन आया है तथा उनके परस्पर सम्बन्ध तथा आसपास की दुनिया से सम्बन्ध में जो तब्दीली आई है।

कुछ उम्रदराज पैदाइशी डिजिटल नहीं थे लेकिन वे इस लोक में ‘बस गये’ । ये ऑनलाइन भी आते हैं लेकिन पुरानी तकनीक के इस्तेमाल को भी जारी रखते हैं । नये माहौल से कुछ कम परिचित अन्य ऐसे हैं जो ‘डिजिटल प्रवासी’ कहे जा सकते है तथा ज्यादा उमर में यह सब सीखें हैं । इन पर काफ़ी व्यंग्य भी होते हैं । जो पैदाइशी डिजिटल हैं वे पुरानी तकनीक की दुनिया जिसमें पत्र लिखे और छापे जाते थे के बारे में कुछ नहीं जानते,हाथ लिखे ख़तों की बात की तो बात ही मत कीजिए। वह यह भी नहीं जानते कि लोग-बाग औपचारिक नृत्य समारोहों में मिला करते थे न कि फ़ेसबुक पर । मानव सम्बन्धों की प्रकृति में जो तब्दीलियां आ रही हैं वे कुछ के लिए दूसरा स्वभाव है तो कुछ के लिए सीखा हुआ बर्ताव ।

यह वृतान्त उनके बारे में है जो अपनी पहली नौकरी पर जाते हुए कानों में आई-पॉड के बटन खोसे हुए होते हैं , हम में से उनके बारे में नहीं है जिन्हें सोनी का वॉकमैन बजाना अभी भी याद है अथवा जिन्हें रेकॉर्ड अथवा टेप खरीदना याद है । युवा पीढ़ी संगीत के लिए कितना खर्च करती है ( अथवा नहीं करती,मुफ़्त जुगाड़ कर लेती है) -इस प्रश्न से बढ़कर तब्दीलियां हो रही हैं । विश्वविद्यालय के छात्र बनने वाले युवा अथवा नौकरी में नए शामिल तरुण ,अपने जीवन का काफ़ी समय ऑनलाइन बिताते हैं ,हम से कई पहलुओं से जुदा हैं। हमसे उम्र में थोड़ा अधिक लोगों की तरह इस नयी पीढ़ी को नये सिरे से कुछ सीखने की जरूरत नहीं पड़ी । इस पीढ़ी ने सीधे डिजिटल विश्व को ही जाना सीखा है ।

[ जारी ]

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