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सुनील
भा रत में वन्यप्राणियों को बचाने की मुहिम जोर शोर से चल राही है। देश में राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों की संख्या बढ़ते-बढ़ते छ: सौ के करीब पहुंच चुकी है। इस मुहिम में वन्य प्राणियों के बीच शेर या बाघ को विशेष दर्जा दिया गया। यह माना गया है कि वन्य प्राणियों की भोजन श्रृंखला में चूंकि शेर सबसे ऊपर है, इसलिए शेरों की उपस्थिति एवं संख्या कुल मिलाकर उस इलाके की पारिस्थितिकी हालत का पैमाना होती है। अंतर्राष्ट्रीय चिंता एवं दबाव के बीच भारत में 1973 से प्रोजेक्ट टाइगर शुरू हुआ। वर्ष 2005 तक देश में कुल 28 टाइगर रिजर्व बनाए जा चुके थे। बाद में आठ नए संरक्षित क्षेत्रों के टाइगर रिजर्व का दर्जा मिला है। इनमें से सबसे ज्यादा 6 मध्यप्रदेश में हैं। कहते हैं कि देश के लगभग तीन हजार शेरों में से 246 से 364 के बीच मध्यप्रदेश में है। लेकिन इस टाइगर स्टेट में भी शेरों के जीवन पर संकट छाया है। मशहूर कान्हा टाइगर रिजर्व में भी नवंबर 2008 से मार्च 2009 के बीच के मात्र 5 महीनों में 6 शेरों की मौत की खबर है।
आ जकल जंगल के राजा शेर की हवाई यात्राएं खबरों में छाई है। यह अलग बात है कि बेचारा शेर ये यात्राएं बेहोश हालत में करता है। पिछले वर्ष जून-जुलाई में राजस्थान के रणथंभौर रिजर्व से एक शेर और एक शेरनी के हेलीकॉप्टर से सारिस्का टाइगर रिजर्व में पहुंचाया गया था। स्थानांतरित शेरों में रेडियो कॉलर लगाए गए हैं और उपग्रहों की मदद से उन पर नजर रखी जा रही है। इस हाई-फाई कार्यक्रम पर डेढ़ करोड़ रुपया खर्च हुआ। शेरों को लाने के साथ सरिस्का टाइगर रिजर्व के गांव हटाए जा रहे हैं। एक गांव हटाया जा चुका है तथा दो और गांवों को बाहर बसाने के लिए केन्द्र सरकार ने 26 करोड़ रुपए की मंजूरी दी है।
फिर ‘टाइगर स्टेट’ मध्यप्रदेश की बारी आई। बांधवगढ़ और कान्हा टाइगर रिंजर्वों से दो शेरनियों को इसी तरह हेलीकॉप्टर व ट्रक से पन्ना टाइगर रिंजर्व में छोड़ा गया। पहले बताया गया कि पन्ना टाइगर रिजर्व में नर शेर ही बचे हैं। इसलिए मादाओं की जरूरत है। लेकिन जब मादा पहुंची, तो इकलौता नर भी गायब हो गया। कई जानकारों ने शंका प्रकट की है कि शेरों के ये नाटकीय व महंगे स्थानांतरण कितने सफल होंगे। प्रकृति में पलने वाले शेर कोई कागंजी शेर नहीं हैं, जिन्हें एक जगह से हटाकर दूसरी जगह स्थापित कर दिया जाए। सवाल यह भी है कि सरिस्का या पन्न रिंजर्वों से शेर गायब कैसे हो गए? साढ़े तीन दशकों से चल रहे प्रोजेक्ट टाइगर में अरबों रुपए खर्च करने के बाद ऐसे हालात क्यों पैदा हो रहे हैं? 2004 का दिसम्बर महीना भारत के वन्य जीव संरक्षण कार्यक्रम और वन्य प्राणी प्रेमियों के लिए एक बड़ा झटका लेकर आया था। पता चला कि राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व में एक भी शेर नहीं है। इसी वर्ष पहले वहां 16 से 18 शेर होने का दावा किया गया था। इसके पहले सरिस्का में 26-27 शेर बताए जा रहे थे। लगता है शेरों की गिनती काफी हद तक फर्जी थी।
सरिस्का के इस भंडाभोड़ ने देश के वन्य जीवन संरक्षण के पूरे ढांचे को झकझोर दिया। प्रधानमंत्री ने सरिस्का में सीबीआई जांच का आदेश दिया। भारत के शेर संरक्षण के कार्यक्रम का मूल्यांकन करने और सुझाव देने के लिए एक टास्क फोर्स प्रसिध्द पर्यावरणविद् सुनीता नारायण की अध्यक्षता में बनाई गई। इस टास्क फोर्स ने वर्ष 2005 में ही एक बहुमूल्य रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। लेकिन हालात नहीं बदले। इसके तीन वर्ष बाद मध्यप्रदेश पन्ना टाइगर रिजर्व का घपला सामने आया है। 542 वर्ग किमी में फैले पन्न टाइगर रिजर्व में वर्ष 2008 की गणना में 24 शेर होने का दावा किया गया था। वर्ष 2002 में 31 की संख्या बताई गई थी। अचानक वे गायब हो गए हैं और वहां शेरों को आबाद करने के लिए शेर आयात करना पड़ रहा है। हालांकि एक शोधकर्ता रघु चुंडावत ने 2005 में ही वहां शेरों की संख्या पर सवाल उठाया था। जवाब में इस शोधकर्ता को पन्ना टाइगर रिंजर्व के अधिकारियों ने काफी परेशान किया था और उनके शोध में रूकावटें पैदा की थीं। केंद्र सरकार ने अब पन्न के मामले के भी जांच बिठाई है। इसी प्रकार एक घपला मध्यप्रदेश के मूनो अभ्यारण्य में हुआ है। एशियाई सिंह (बब्बर शेर) सिर्फ गुजरात के गिर अभ्यारण्य में ही बचे हैं, किंतु वहां उनकी संख्या ंज्यादा हो गई है। इसलिए इन्हें कूनो में रखने की योजना बनी। वहां के सहारिया आदिवासियों के 24 गांवों को 1999-2001 के दरम्यान हटाकर बाहर बसाया गया। उनकी हालत अब बहुत खराब है। लेकिन उधर गुजरात सरकार के इंकार कर देने से सिंह भी नहीं आ पाए हैं।
भारत में वन्यप्राणियों को बचाने की मुहिम जोर शोर से चल राही है। देश में राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों की संख्या बढ़ते-बढ़ते छ: सौ के करीब पहुंच चुकी है। इस मुहिम में वन्य प्राणियों के बीच शेर या बाघ को विशेष दर्जा दिया गया। यह माना गया है कि वन्य प्राणियों की भोजन श्रृंखला में चूंकि शेर सबसे ऊपर है, इसलिए शेरों की उपस्थिति एवं संख्या कुल मिलाकर उस इलाके की पारिस्थितिकी हालत का पैमाना होती है। अंतर्राष्ट्रीय चिंता एवं दबाव के बीच भारत में 1973 से प्रोजेक्ट टाइगर शुरू हुआ। वर्ष 2005 तक देश में कुल 28 टाइगर रिजर्व बनाए जा चुके थे। बाद में आठ नए संरक्षित क्षेत्रों के टाइगर रिजर्व का दर्जा मिला है। इनमें से सबसे ज्यादा 6 मध्यप्रदेश में हैं। कहते हैं कि देश के लगभग तीन हजार शेरों में से 246 से 364 के बीच मध्यप्रदेश में है। लेकिन इस टाइगर स्टेट में भी शेरों के जीवन पर संकट छाया है। मशहूर कान्हा टाइगर रिजर्व में भी नवंबर 2008 से मार्च 2009 के बीच के मात्र 5 महीनों में 6 शेरों की मौत की खबर है।
आम तौर पर ऐसे संकटों के जवाब में सरकार, वन विभाग, वन्य जीव प्रेमियों और मीडिया जगत की प्रतिक्रिया स्टाफ, सुरक्षा और धनराशि बढ़ाने की मांग के रूप में होती है। किंतु मात्र ज्यादा नाकेदारों, ज्यादा बंदूकों और ज्यादा बजट से यह संकट हल नहीं होने वाला है। दरअसल टाइगर टास्क फोर्स ने अपने विश्लेषण में बताया है कि सरिस्का और पन्ना दोनों टाइगर रिजर्व ऐसे हैं, जहां देश के अन्य टाइगर रिजर्वों से काफी ज्यादा पैसा व स्टाफ लगाया गया है। धनराशि और स्टाफ के हिसाब से वे देश के सर्वोच्च पांच टाइगर रिजर्वों में हैं। पन्ना और सरिस्का टाइगर रिजर्व पर अभी तक क्रमश: 20 करोड़ और 25 करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च किए जा चुके हैं। यह वन विभाग के सामान्य बजट तथा कर्मचारियों के वेतन व भत्तों के अतिरिक्त हैं। यदि इतना खर्च करने के बाद भी वहां शेर गायब होते जाते हैं, तो यह इस गरीब देश के बहुमूल्य संसाधनों की बरबादी है। इसे शेर घोटाला कहा जा सकता है। वन विभाग की एक दूसरी प्रतिक्रिया स्थानीय गांववासियों के मत्थे दोष मढ़ने की होती है। यह कहा जाता है कि ये गांव वाले शिकार करते हैं या शिकारियों की मदद करते हैं। उनकी चराई, वनोपज संग्रह, निस्तार और उपस्थिति मात्र से जंगल नष्ट होता है, और शेरों के प्राकृतवास में व्यवधान पैदा होता है। इस समस्या का समाधान स्थानीय गांववासियों के ऊपर कई तरह के प्रतिबंध लगाने तथा गांवों के विस्थापन में खोजा जाता है। किंतु न तो अभी तक संरक्षित क्षेत्रों से गांव हटाने का पूरा काम हो पाया है और न गांववासियों के वन उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना संभव हो पाया है। दरअसल जंगल में रहने वाले आदिवासियों और अन्य गांववासियों की जिंदगी व रोजी-रोटी पूरी तरह जंगल पर आधारित है। इसलिए ये प्रतिबंध और विस्थापन न तो व्यावहारिक हैं और न वांछनीय। इस चक्कर में यह जरूर हो गया है कि वन विभाग और स्थानीय समुदाय के बीच स्थाई रूप से झगड़ा खड़ा हो गया है। वन्य जीवन संरक्षण और शेर बचाने के प्रयासों की नाकामी के पीछे यह एक बड़ा कारण है।
टाइगर टास्क फोर्स की रिपोर्ट में बताया है कि देश के 600 आरक्षित क्षेत्रों में करीब 40 लाख लोग रहते हैं, जिनमें बड़ी संख्या आदिवासियों की है। देश के 28 टाइगर रिजर्वों में 1487 गांव हैं, जिनमें करीब 4 लाख लोग रहते हैं। ‘सरिस्का’ में 27 गांव है और ‘पन्ना’ में 45 गांव है। इतने सालों के बाद भी इनमें चार-पांच गांवों को ही हटाकर दूसरी जगह बसाया जा सका है। गांव को दूसरी जगह बसाना व समुचित पुनर्वास करना भी आसान नहीं है। लोगों की जिंदगी बरबाद हो जाती है। फिर सवाल पैसे का भी है। सारे गांव के पुनर्वास में अरबों-खरबों रुपयों की जरूरत होगी। जिस दर से अभी गांवों को बाहर बसाया जा रहा है, देश के सारे आरक्षित क्षेत्रों को गांवमुक्त बनाने में सौ दो सौ साल लग जाएंगे। क्या तब तक देश के शेर व अन्य वन्य प्राणी सुरक्षित नहीं हो पाएंगे?
दरअसल भारत के वन्य जीव संरक्षकों की बुनियादी दृष्टिकोण इस संकट की जड़ में है। वे यह भूल गए कि जंगल में सिर्फ शेर, हाथी, गैंडे या हिरन ही नहीं रहते है बल्कि मनुष्य भी रहते हैं। भारत के आदिवासियों के बहुत सारे गांव घने जंगलों के बीच ही हैं। जंगल उनकी भी धरोहर है और उनका जीवन भी जंगल पर उतना ही आश्रित है। भारत के नक्शे पर आदिवासी इलाके और जंगल वाले इलाके लगभग एक ही हैं। ये ही इलाके देश के सबसे गरीब इलाके भी हैं। इन गरीब आदिवासियों और अन्य वनवासियों से उनका एकमात्र सहारा जंगल छीन लेना आजाद भारत के बड़े अमानवीय कृत्यों और अन्यायों में से एक है। इस दृष्टिदोष के कारण भारत के वन्य जीव संरक्षण के कानूनों, नियमों और योजनाओं में वनवासियों के जरूरतों व अस्तित्व की कोई जगह नहीं रखी गई है, बल्कि उसे गैर कानूनी बना दिया गया है। नतीजा यह हुआ है कि देश के सारे आरक्षित क्षेत्रों में वन विभाग और ग्रामवासियों के बीच तनाव एवं संघर्ष की स्थिति है। विभाग की जो ऊर्जा और संसाधन वास्तविक संरक्षण कार्य में लगने चाहिए, वे स्थानीय लोगों के खिलाफ प्रतिबंधों को लागू करने और उन्हें दूसरी जगह बसाने की तैयारी में लग रहे हैं।
विडंबना यह है कि देश के किसी भी आरक्षित क्षेत्र में इस बात का कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है कि वहां रहने वाले गांववासियों की चराई, वनोपज संग्रह, निस्तार, खेती या जंगल के वन्य उपयोग से वहां के वन्य प्राणियों को क्या एवं कितनी दिक्कत है? दोनों साथ-साथ रह सकते हैं या नहीं? ग्रामीणों की उपस्थिति से वन्य जीवन को अनिवार्य रूप से नुकसान होता है, यह देश के वन्य जीव संरक्षण प्रतिष्ठान की एक अंधविश्वास है, जिसके कारण समस्या का सही निदान नहीं हो पा रहा है। यह जरूरी नहीं है वन्य जीव तथा ग्रामवासियों के हितों में अनिवार्य रूप से टकराव हो। कुछ साल पहले एक अध्ययन में पता लगा कि राजस्थान के भरतपुर पक्षी अभ्यारण्य में वहां चरने वाली भैसों से पक्षियों को आकर्षित करने और भोजन में मदद मिलती है। लेकिन वहां भैंसों की चराई रोकने के लिए अभ्यारण्य के स्टाफ द्वारा चरवाहों पर गोली चलाने तक की घटनाएं हो चुकी हैं। जंगल में आग नियंत्रण में भी गांववासियों की बड़ी भूमिका है। न केवल वे आग बुझाने की मदद करते हैं, बल्कि उनके पालतू पशुओं की चराई से जंगल की घास व झाड़ियों की वृध्दि नियंत्रित रहती है। यदि जंगल क्षेत्र से गांवों को हटाकर चराई पूरी तरह रोक दी गई, तो घास व झाड़ियां इतनी बढ़ जाएंगी कि उनमें आग लगने पर उसे किसी हालत में काबू करना संभव नहीं होगा। ऑस्टे्रलिया और अमरीका में पिछले कुछ समय में जंगलों में भीषण आग की घटनाएं हमारे लिए एक सबक है। हेलीकॉप्टरों और अनेक फायर ब्रिगेडों के बावजूद इन आग पर काबू न पाया जा सका। भारत में भी जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। यदि ग्रामवासियों को बाहर करने की अंधी व आत्मघाती नीति चलती रही, तो भारत में भी ऐसी घटनाएं हो सकती हैं।
सच तो यह है कि भारत के जंगलों और जंगली जानवरों का विनाश वहां रहने वाले आदिवासियों के कारण नहीं हुआ है। यदि ऐसा होता, तो काफी पहले जंगल और शेर खत्म हो जाने चाहिए थे। दरअसल, जंगल, जंगली जानवरों और आदिवासियों का तो सह-अस्तित्व रहा है। वनों और वन्य प्राणियों के विनाश का असली कारण तो आधुनिक विकास है, जो पिछले दो सौ सालों में जंगलों को निगलता गया है। राजाओं, नवाबों व अंग्रेंज अफसरों द्वारा जानवरों का शिकार भी एक कारण रहा है। सुनीता नारायण की अध्यक्षता वाले टाइगर टास्क फोर्स ने वन्य प्राणी संरक्षण की इस जन विरोधीनीति की खामी को पहचाना है। वनों में एवं उनके आसपास रहने वाले समुदायों की सक्रिय भागीदारी के बगैर वन्य प्राणी संरक्षण की कोई योजना सफल नहीं हो सकती है, इसकी चेतावनी उसने दी है। इसके लिए उनके हितों, अधिकारों और अस्तित्व को भी सुनिश्चित करना होगा। टास्क फोर्स ने इस बात को सूत्र रूप में कहा है- ‘शेरों का संरक्षण उन जंगलों के संरक्षण से अभिन्न रूप से जुड़ा है जहां वे रहते हैं तथा जंगलों का संरक्षण अभिन्न रूप से जंगल में रहने वाले लोगों की जिंदगियों से जुड़ा है।’ लेकिन लगता है कि सरकार में बैठे वन्य प्राणी संरक्षण के पुरोधाओं ने टाइगर टास्क फोर्स की इस समझदारी पर कोई ध्यान नहीं दिया है, और उसका ढर्रा एवं रवैया नहीं बदला है। इसकी एक झांकी 2007 के अंतिम दिनों में मिली, जब ताबड़तोड़ ढंग से देश के टाइगर रिजर्वों में कोर क्षेत्र या ‘संवेदनशील शेर आवास’ घोषित किए गए। कानून की जरूरत के मुताबिक विशेषज्ञ समिति बनाने से लेकर उसकी रिपोर्ट तैयार होने और राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशन तक की कार्रवाईयां एक महीने में पूरी कर ली गई। मध्यप्रदेश की विशेषज्ञ समिति ने तो टाइगर रिजर्वों का दौरा करने या गांववासियों या अन्य व्यक्तियों से बात करने की भी जरूरत नहीं समझी, और मात्र भोपाल में एक बैठक करके आठ दिन के अंदर अपनी सिफारिशें दे दीं। कानून की भावना का मजाक बनाते हुए यह गजब की हड़बड़ी इसलिए की गई, क्योंकि 1 जनवरी 2008 से देश में वन अधिकार कानून लागू हो रहा था। टाइगर रिजर्वों में रहने वाले ग्रामवासियों को अधिकार न मिल पाए, इसलिए अचानक वन विभाग इतना मुस्तैद हो गया था। यह कदम टकराव को बढ़ाने का ही काम करेगा।
शेर घोटाला / सुनील
फ़रवरी 25, 2019 अफ़लातून अफलू द्वारा
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