श्यामबहादुर ‘नम्र’ आज सुबह गुजर गए | अविश्वसनीय | सम्पादक , कवि , क्रान्तिधर्मी सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में हमारे दिलों में वे हमेशा रहेंगे | अमन , अनुराग और अनुराधा बहन के कष्ट और शोक में हम सब शरीक हैं | नन्हे -से अमन को हल्की सी चपत लगा कर ‘मार खाओ’ कहने पर वह उस जगह से ‘मार’ को अपने हाथ में लेकर मुंह में डालता और चबाकर खाने लगता – यह था श्यामबहादुर भाई द्वारा घुट्टी में हिंसा की अप्रासंगिकता पिलाना , सिखाना |उनकी स्मृति को प्रणाम | उनकी तीन कवितायें जिन्हें पहले भी प्रकाशित किया था |
1
हमे नहीं चाहिए शिक्षा का ऐसा अधिकार,
जो गैर-जरूरी बातें जबरन सिखाये ।
हमारी जरूरतों के अनुसार सीखने पर पाबन्दी लगाये,
हमें नहीं चाहिए ऐसा स्कूल
जहाँ जाकर जीवन के हुनर जाँए भूल।
हमें नहीं चाहिए ऐसी किताब
जिसमें न मिलें हमारे सवालों के जवाब
हम क्यों पढ़ें वह गणित,
जो न कर सके जिन्दगी का सही-सही हिसाब।
क्यों पढ़ें पर्यावरण के ऐसे पाठ
जो आँगन के सूखते वृक्ष का इलाज न बताये॥
गाँव में फैले मलेरिया को न रोक पायें
क्यों पढ़ें ऐसा विज्ञान,
जो शान्त न कर सके हमारी जिज्ञासा ।
जीवन में जो समझ में न आये,
क्यों पढ़ें वह भाषा ।
हम क्यों पढे़ वह इतिहास जो धार्मिक उन्माद बढ़ाए
नफ़रत का बीज बोकर,
आपसी भाई-चारा घटाये।
हम क्यों पढ़ें ऐसी पढ़ाई जो कब कैसे काम आएगी,
न जाए बताई ।
परीक्षा के बाद, न रहे याद,
हुनर से काट कर जवानी कर दे बरबाद ।
हमे चाहिए शिक्षा का अधिकार,
हमे चाहिए सीखने के अवसर
हमे चाहिए किताबें ,
हमें चाहिए स्कूल।
लेकिन जो हमें चाहिए हमसे पूछ कर दीजिए।
उनसे पूछ कर नहीं जो हमें कच्चा माल समझते हैं ।
स्कूल की मशीन में ठोक-पीटकर
व्यवस्था के पुर्जे में बदलते हैं,
हमें नहीं चाहिए शिक्षा का ऐसा अधिकार जो
गैर जरूरी बातें जबरन सिखाये
हमारी जरूरतों के अनुसार सीखने पर पाबन्दी लगाये ।
-श्याम बहादुर ’ नम्र ’
2
एक बच्ची स्कूल नहीं जाती, बकरी चराती है
वह लकडियां बटोरकर घर लाती है
फिर मां के साथ भात पकाती है
एक बच्ची किताब का बोझ लादे स्कूल जाती है
शाम को थकी मांदी घर आती है
वह स्कूल से मिला होमवर्क मां-बाप से करवाती है
बोझ किताब का हो या लकडी का
बच्चियां ढोती हैं
लेकिन लकडी से चूल्हा जलेगा
तब पेट भरेगा
लकडी लाने वाली बच्ची यह जानती है
वह लकडी की उपयोगिता पहचानती है
किताब की बातें कब किस काम आती हैं
स्कूल जाने वाली बच्ची
बिना समझे रट जाती है
लकडी बटोरना
बकरी चराना
और मां के साथ भात पकाना
जो सचमुच घरेलू काम हैं
होमवर्क नहीं कहे जाते
लेकिन स्कूलों से मिले पाठों के अभ्यास
भले ही घरेलू काम न हों
होमवर्क कहलाते हैं
कब होगा
जब किताबें
सचमुच
होमवर्क से जुडेंगी
और लकडी बटोरने वाली बच्चियां भी
ऐसी किताबें पढेंगी
श्याम बहादुर “नम्र”
3.
तुम तरुण हो या नहीं
तुम तरुण हो या नहीं यह संघर्ष बतायेगा ,
जनता के साथ हो या और कहीं यह संघर्ष बतायेगा ।
तुम संघर्ष में कितनी देर टिकते हो ,
सत्ता के हाथ कबतक नहीं बिकते हो ?
इससे ही फैसला होगा –
कि तुम तरुण हो या नहीं –
जनता के साथ हो या और कहीं ।
तरुणाई का रिश्ता उम्र से नहीं, हिम्मत से है,
आजादी के लिए बहाये गये खून की कीमत से है ,
जो न्याय-युद्ध में अधिक से अधिक बलिदान करेंगे,
आखिरी साँस तक संघर्ष में ठहरेंगे ,
वे सौ साल के बू्ढ़े हों या दस साल के बच्चे –
सब जवान हैं ।
और सौ से दस के बीच के वे तमाम लोग ,
जो अपने लक्ष्य से अनजान हैं ,
जिनका मांस नोच – नोच कर
खा रहे सत्ता के शोषक गिद्ध ,
फिर भी चुप सहते हैं, वो हैं वृद्ध ।
ऐसे वृद्धों का चूसा हुआ खून
सत्ता की ताकत बढ़ाता है ,
और सड़कों पर बहा युवा-लहू
रंग लाता है , हमें मुक्ति का रास्ता दिखाता है ।
इसलिए फैसला कर लो
कि तुम्हारा खून सत्ता के शोषकों के पीने के लिए है,
या आजादी की खुली हवा में,
नई पीढ़ी के जीने के लिए है ।
तुम्हारा यह फैसला बतायेगा
कि तुम वृद्ध हो या जवान हो,
चुल्लू भर पानी में डूब मरने लायक निकम्मे हो
या बर्बर अत्याचारों की जड़
उखाड़ देने वाले तूफान हो ।
इसलिए फैसले में देर मत करो,
चाहो तो तरुणाई का अमृत पी कर जीयो ,
या वृद्ध बन कर मरो ।
तुम तरुण हो या नहीं यह संघर्ष बतायेगा ,
जनता के साथ हो या और कहीं यह संघर्ष बतायेगा ।
तुम संघर्ष में कितनी देर टिकते हो ,
सत्ता के हाथ कबतक नहीं बिकते हो ?
इससे ही फैसला होगा –
कि तुम तरुण हो या नहीं –
जनता के साथ हो या और कहीं ।
– श्याम बहादुर नम्र
bahut khoob. sunil
स्व.श्री श्याम बहादुर नम्र जी की प्रेषित कविता का पाठ सुनने के लिए नीचे की लिंक पर क्लिक करे
http://www.cgnetswara.org/index.php?id=865
http://www.cgnetswara.org/index.php?id=943
उनकी एकलम्बी, कविता है – राष्ट्र नहीं होती भुख्खड़ जनता, जिसे मैं लम्बे अरसे से खोज रहा हूँ। अगर आप भेज सकेें तो मदद होगी।
शुभकामना
अमित
अमन नम्र से पूछता हूँ।