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पिछले दो हिस्से । पूर्व – पश्चिम एकता की दो धुरियाँ स्पष्ट ही कृष्ण – काल में थीं । एक पटना – गया की मगधपुरी और दूसरी हस्तिनापुर – इन्द्रप्रस्थ की कुरु-धुरी । मगध – धुरी का भी फैलाव स्वयं कृष्ण की मथुरा तक था जहाँ मगध – नरेश जरासंध का दामाद कंस राज्य करता था । बीच में शिशुपाल आदि मगध के आश्रित – मित्र थे । मगध – धुरी के खिलाफ़ कुरु – धुरी का सशक्त निर्माता कृष्ण था । कितना बड़ा फैलाव किया कृष्ण ने इस धुरी का । पूर्व में मणिपुर से ले कर पश्चिम में द्वारका तक इस कुरु – धुरी में समावेश किया । देश की दोनों सीमाओं , पूर्व की पहाड़ी सीमा और पश्चिम की समुद्री सीमा को फाँसा और बाँधा , इस धुरी को कायम और शक्तिशाली करने के लिए कितनी मेहनत और कितने पराक्रम करने पड़े , और कितनी लम्बी सूझ सोचनी पड़ी ।उसने पहला ही वार अपने ही घर मथुरा में मगधराज के दामाद पर किया । उस समय सारे हिन्दुस्तान में यह वार गूँजा होगा । कृष्ण की यह पहली ललकार थी , वाणी द्वारा नहीं । उसने कर्म द्वारा रण-भेरी बजायी । कौन अनसुनी कर सकता था । सबको निमन्त्रण हो गया यह सोचने के लिए कि मगध राजा को अथवा जिसे कृष्ण कहे उसे सम्राट के रूप में चुनो । अन्तिम चुनाव भी कृष्ण ने बड़े छली रूप में रखा । कुरु – वंश में ही न्याय-अन्याय के आधार पर दो टुकड़े हुए और उनमें अन्यायी टुकड़ी के साथ मगध – धुरी को जुड़वा दिया। संसार ने सोचा होगा कि वह तो कुरुवंश का अन्दरुनी और आपसी झगड़ा है । कृष्ण जानता था कि वह तो इन्द्रप्रस्थ हस्तिनापुर की कुरु – धुरी और राजगिरि की मगध-धुरी का झगड़ा है ।
राजगिरि राज्य कंस – वध पर तिलमिला उठा होगा । कृष्ण ने पहले ही वार में मगध की पश्चिमी को खतम-सा कर दिया । लेकिन अभी तो ताकत बहुत ज्यादा बटोरनी और बढ़ानी थी । यह तो सिर्फ आरम्भ था । आरम्भ अच्छा हुआ । सारे संसार को मालूम हो गया । लेकिन कृष्ण कोई बुद्धू थोड़े ही था जो आरम्भ की लड़ाई को अन्त बना देता । उसके पास अभी इतनी ताकत तो थी नहीं जो कंस के ससुर और उसकी पूरे हिन्दुस्तान की शक्ति से जूझ बैठता । वार करके , संसार को डंका सुना के कृष्ण भाग गया । भागा भी बड़ी दूर द्वारका में । तभी से उसका नाम रणछोड़दास पड़ा । गुजरात में आज भी हजारों लोग शायद एक लाख से भी अधिक लोग होंगे जिनका नाम रणछोड़दास है । पहले मैं इस नाम पर हँसा करता था , मुसकाना तो कभी न छोड़ूँगा । यों , हिन्दुस्तान में और भी देवता हैं जिन्होंने अपना पराक्रम भाग कर दिखाया जैसे ज्ञानवापी के शिव ने । यह पुराना देश है । लड़ते – लड़ते थकी हड्डियों को भागने का अवसर मिलना चाहिए । लेकिन कृष्ण थकी पिण्डलियों के कारण नहीं भागा । वह भागा जवानी की बढ़ती हड्डियों के कारण । अभी हड्डियों को बढ़ाने और फैलाने का मौका चाहिए था । कृष्ण की पहली लड़ाई तो आजकल की छापामार लड़ाई की तरह थी , वार करो और भागो । अफ़सोस यही है कि कुछ भक्त लोग भगाने ही में मजा लेते हैं ।
द्वारका मथुरा से सीधे फासले पर करीब ७०० मील है । वर्तमान सड़कों की यदि दूरी नापी जाए तो करीब १०५० मील होती है । बिचली दूरी इस तरह ८५० मील होती है । कृष्ण अपने शत्रु से बड़ी दूर तो निकल ही गया , साथ ही साथ देश की पूर्व – पश्चिम एकता हासिल करने के लिए उसने पश्चिम के आखरी नाके को बाँध लिया । बाद में , पाँचों पाण्डवों के बनवासयुग में अर्जुन की चित्रांगदा और भीम की हिडिम्बा के जरिये उसने पूर्व के आखिरी नाके को भी बाँधा । इन फासलों को नाँपने के लिए मथुरा से अयोध्या , अयोध्या से राजमहल और राजमहल से इम्फाल की दूरी जाननी जरूरी है ।यही रहे होंगे उस समय के विशाल राजमार्ग । मथुरा से अयोध्या की बिचली दूरी करीब ३०० मील है ।अयोध्या से राजमहल करीब ४७० मील है । राजमहल से इम्फाल की बिचली दूरी करीब सवा पाँच सौ , यों वर्तमान सड़कों से फासला करीब ८५० मील और सीधा फासला करीब ३८० मील है । इस तरह मथुरा से इम्फाल का फासला उस समय के राजमार्ग से करीब १६०० मील रहा होगा । कुरु – धुरी के केन्द्र पर कब्जा करने और उसे सशक्त बनाने के पहले कृष्ण केन्द्र से ८०० मील दूर भागा और अपने सहचरों और चेलों को उसने १६०० मील दूर तक घुमाया । पूर्व-पश्चिम की पूरी भारत-यात्रा हो गयी । उस समय की भारतीय राजनीति को समझने के लिए कुछ दूरियाँ और जानना जरूरी है है । मथुरा से बनारस का फासला करीब ३७० मील और मथुरा से पटना करीब ५०० मील है । दिल्ली से , जो तब इन्द्रप्रस्थ थी , मथुरा का फासला करीब ९० मील है । पटने से कलकत्ते का फासला करीब सवा तीन सौ मील है । कलकत्ते के फासले का कोई विशेष तात्पर्य नहीं ,सिर्फ इतना ही कि कलकत्ता भी कुछ समय तक हिन्दुस्तान की राजधानी रही है , चाहे गुलाम हिन्दुस्तान की ।मगध-धुरी का पुनर्जन्म एक अर्थ में कलकत्ते में हुआ । जिस तरह कृष्ण – कालीन मगध-धुरी के लिए राजगिरि केन्द्र , उसी तरह ऐतिहासिक मगध-धुरी के लिए पटना या पाटलिपुत्र केन्द्र है , और इन दोनों का फासला करीब ४० मील है । पटना – राजगिरि केन्द्र का पुनर्जन्म कलकत्ते में होता है , इसका इतिहास के विद्यार्थी अध्ययन करें , चाहे अध्ययन करते समय सन्तापपूर्ण विवेचन करें कि यह काम विदेशी तत्वाधान में क्यों हुआ ।
कृष्ण ने मगध धुरी का नाश करके कुरु – धुरी की प्रतिष्ठा क्यों करनी चाही ? इसका एक उत्तर तो साफ है , भारतीय जागरण का बाहुल्य उस समय उत्तर और पश्चिम में था जो राजगिरि और पटना से बहुत दूर पड़ जाता था । उसके अलावा मगध – धुरी कुछ पुरानी पड़ चुकी थी ,शक्तिशाली थी , किन्तु उसका फैलाव संकुचित था । कुरु – धुरी नयी थी और कृष्ण इसकी शक्ति और इसके फैलाव का सर्वशक्तिसम्पन्न निर्माता था , मगध – धुरी को जिस तरह चाहता शायद न मोड़ सकता ,कुरु – धुरी को अपनी इच्छा के अनुसार मोड़ और फैला सकता था । सारे देश को बाँधना जो था उसे । कृष्ण त्रिकालदर्शी था । उसने देख लिया होगा कि उत्तर – पश्चिम में आगे चल कर यूनानियों , हूणों ,पठानों , मुगलों आदि के आक्रमण होंगे इसलिए भारतीय एकता की धुरी का केन्द्र कहीं वहीं रचना चाहिए , जो इन आक्रमणों का सशक्त मुकाबला कर कर सके । लेकिन त्रिकालदर्शी क्यों न देख पाया कि इन विदेशी आक्रमणों के पहले ही देशी मगध – धुरी बदला चुकाएगी और सैंकड़ों वर्ष तक भारत पर अपना प्रभुत्व कायम करेगी और आक्रमण के समय तक कृष्ण की भूमि के नजदीक यानि कन्नौज और उज्जैन तक खिसक चुकी होगी , किन्तु अशक्त अवस्था में । त्रिकालदर्शी ने देखा शायद यह सब कुछ हो , लेकिन कुछ न कर सका हो । वह हमेशा के लिए अपने देशवासियों को कैसे ज्ञानी और साधु दोनों बनाता । वह तो केवल रास्ता दिखा सकता था । रास्ते में भी शायद त्रृटि थी । त्रिकालदर्शी को शायद यह भी देखना चाहिए था कि उसके रास्ते पर ज्ञानी ही नहीं , अनाड़ी भी चलेंगे और वेकितना भारी नुकसान उठायेंगे ।राम के रास्ते पर चल कर अनाड़ी का भी अधिक नहीं बिगड़ता , चाहे बनना भी कम होता हो । अनाड़ी ने कुरु – पांचाल संधि का क्या किया ?
अनोखी विवेचना है..
वैसे अनाड़ी की व्युत्पत्ति अनार्य से है..
और आर्य का अर्थ कोई जाति विशेष नहीं.. श्रेष्ठ जन है..
अगले लेख की प्रतीक्षा है ।
घुघूती बासूती
लोहिया के विचारों की मौलिकता का रसपान करके बहुत मजा आ रहा है।
मगध धुरी की नए सिरे से प्रतिष्ठा करने का जो काम कृष्ण अधूरा छोड़ गए थे, बाद में उसे चाणक्य ने बखूबी पूरा किया।
अच्छी श्रृंखला है। लोहिया जी को ज्यादातर लोग राजनीतिक धुरंधर के रूप में ही जानते हैं, लेकिन पौराणिक भारतीय मिथकों की अदभुत ऐतिहासिक-राजनीतिक व्याख्या का जो काम उन्होंने किया है, उससे बहुत से लोग अनजान हैं।
आगामी लेखों का इंतजार है।
bahut achch likha apane. hamane http://www.mauryas.net par ek link de rakha hai jaha se log directly apke blog ko open kar sakte hai..
thanks
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