1989 में जब मंडल सिफारिशों को केंद्र की नौकरियों में लागू किया गया था तब विश्वविद्यालयों में गैर आरक्षित छात्रों का विशाल बहुमत था।अनुसूचित जाति/जनजाति का दाखिले में आरक्षण था।अन्य पिछड़े वर्गों के लिए दाखिले में आरक्षण न था।समाजवादी युवजन सभा दाखिले के मामले में ‘खुला दाखिला,सस्ती शिक्षा-लोकतंत्र की सही परीक्षा’ मानती थी। ‘खुला दाखिला’ का मतलब था जिसने भी पिछली कक्षा पास की हो और आगे पढ़ना चाहता हो उसे दाखिला मिले।यह सिद्धांत लागू हो तो दाखिले में आरक्षण का सवाल बेमानी हो जाता। 1977 में काशी विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष चंचल कुमार ने ‘खुला दाखिला’ करवाया था।यह अपवाद था।शिक्षा व्यवस्था की छलनियाँ लगातार छंटनी करती जाती है।सीट घटाना,फीस बढ़ाना,प्रवेश परीक्षा करना छंटनी के प्रिय औजार होते हैं।इस पूरी प्रक्रिया से निकली मलाई व्यवस्था को चलाती है,यथास्थिति तीजै रखती है ।
बहरहाल,1989 में विश्वविद्यालय मंडल विरोध का केंद्र बने और कुछ युवकों ने आत्मदाह द्वारा आत्महत्या की कोशिश की। इसी समूह ने मेरे जैसे आरक्षण समर्थक को जलाने की योजना बनाई थी।समाजवादी साथी और जिगरी दोस्त महताब आलम की मुस्तैदी से आग लगाने जैसा कुछ न हो सका।कुछ गुंडों ने मुझ पर हमला जरूर किया था।आरक्षण समर्थन की पहल परिसर के छात्रावासों के बाहर लॉजों,देहातों, कचहरी और पटेल धर्मशाला जैसे केंद्रों से होती थी।समता संगठन के साथी सुनील ने मंडल रपट का गहराई से अध्ययन किया था।वे हमारी गोष्ठियों में देश समाज के लिए आरक्षण का महत्व समझाते थे।मंडल आयोग में पिछड़ेपन के आकलन के लिए किन कारकों को गणना में लेकर इंडेक्स बनाया गया था,सुनील बताते थे।सामाजिक यथास्थिति को धक्का लगा था। CII,ASSOCHAM और FICCI जैसे पूंजीपतियों के संगठन ने मंडल का विरोध किया।मधु लिमये,किशन पटनायक, राजकिशोर,मस्तराम कपूर और सुनील जैसों के अग्रलेख सामाजिक न्याय को ताकत और दिशा देते थे।
1977 में प्रशासनिक सेवाओं में भारतीय भाषाओं के माध्यम की इजाजत से भी इस प्रकार का सकारात्मक तब्दीली आई थी।एक मौन क्रांति हुई जब अर्जुन सिंह ने गैर आरक्षित सीटों को बढ़ाते हुए दाखिले में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण देना शुरू किया।इसके पहले तक अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्र शिक्षा केंद्रों में अन्य पिछड़े वर्गों के छात्रों से अधिक संगठित थे।
मुझे 76-77 के दौर में हर साल नतीजे घोषित करते वक़्त लोक सेवा आयोग द्वारा यह प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया जाता था कि आरक्षित वर्ग के कितने परीक्षार्थी सामान्य सीटों पर चुने गए।यह आंकड़ा आरक्षण नीति की सफलता का द्योतक है। 8 लाख की आमदनी वाले सवर्णों को ‘आरक्षण’ देकर न सिर्फ गरीब सवर्णों के साथ अन्याय हुआ अपितु आरक्षित वर्गों के उन मेधावी बच्चों के साथ भी अन्याय हुआ है जो गैर आरक्षित सीटों पर खुली स्पर्धा में चुने जाते।मैंने ‘ ‘ का इस्तेमाल इसलिए किया कि आरक्षण ‘गरीबी हटाओ’ या ‘रोजगार दो’ का कार्यक्रम नहीं होता,एकाधिकार हटाने और नुमाइंदगी का औजार है।किशन पटनायक कहते थे साध्य नहीं साधन है आरक्षण,साध्य है समतामूलक समाज।
5 मार्च के भारत बंद का केंद्र विश्विद्यालय बने इसकी बहुत तसल्ली है।विश्विद्यालयों की छात्र- आबादी का स्वरूप बदल चुका है।ज्यादा चर्चा नहीं हो रही इसलिए यह भी दर्ज कर रहा हूँ कि जातिवार जनगणना और सार्वजनिक क्षेत्रों की सुरक्षा भी इस ‘भारत बंद’ के मुद्दे थे।भूलो मत! भूलो मत!
सामाजिक न्याय की लड़ाई मजबूत हुई है।
मार्च 6, 2019 अफ़लातून अफलू द्वारा
एक उत्तर दें