आठ अगस्त १९४२ को मुम्बई के ग्वालिया टैक के मैदान में अपने ऐतिहासिक भाषण में महात्मा गाँधी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो – करो या मरो’ का नारा दिया । ९अगस्त की भोर में महात्मा गाँधी , श्रीमती सरोजनी नायडू और महादेव देसाई को गिरफ़्तार कर पुणे के आगा खाँ महल में बन्द कर दिया गया। १५ अगस्त , १९४२ को महादेव देसाई की इस जेल में ही मृत्यु हुई। उनकी चौथी पुण्य तिथि पर श्रीमती सरोजिनी नायडू का लिखा यह लेख यहाँ दिया जा रहा है। इस शहादत की स्मृति को ताजा करते हुए १५ अगस्त २००६ को मैंने हिन्दी चिट्ठेकारी शुरु की थी।
वे जिन्दा हैं
महादेव देसाई की चौथी पुण्यतिथि के मौके पर मेरा दिल और दिमाग उस प्रतिभाशाली और प्रिय आदमी की खुश करने वाली और रंजीदा बनानेवाली दोनों तरह की यादों से घिर जाता है , जिसकी दोस्ती का मेरे लिए ख़ास महत्त्व था और जिसके साथ रहने में मुझे खुशी होती थी ।
सारी दुनिया की लालचों के सामने होते हुए भी जब महादेव ने महात्मा की जादूभरी बुलाहट को महसूस किया , उस वक्त उनकी उमर सिर्फ़ पचीस वर्ष की थी ।उस वक्त मैंने उन्हें देखा था , जब वे पहलेपहल अपनी चमकती जवानी और जिन्दगी के आदर्शों की सारी दौलत और धूप-दीप लेकर ,अनोखी साहित्यिक प्रतिभा , विद्वत्ता और उग्र देशभक्ति का अर्ध्य लेकर अपने महान गुरु के चरणों पर चढ़ाने आये थे – वह गुरु जिनकी उन्होंने लगातार पचीस वर्ष तक सच्ची भक्ति और वफ़ादारी से सेवा की थी ।
महात्मा की प्रेमभरी सेवा करते हुए महादेव ने कितने अलग – अलग ढंग के काम किये , कितने जुदा-जुदा फर्ज़ अदा किये थे ।
मेरी आँखों के सामने महादेव की दर्दभरी यादों की अनगिनत तसवीरें तेजी के साथ घूमने लगती हैं । गांधीजी के साबरमती ,वर्धा और सेवाग्राम के आश्रमों में अगुआ बनकर रहने वाले महादेव; हँसते-खिलखिलाते ,प्रशंसकों के खुशनुमा केन्द्र,और ताजे विचारों,और तीखे विनोद में मस्त रहनेवाले महादेव;झुकी पलकों से साहित्य – साधना में लगे रहनेवाले और अपने या अपने गुरु के विचारों का सुन्दर और सजीव भाषा में उलथा करनेवाले महादेव ; राजनीतिक काम के साथ भूरा दुशाला ओढ़कर दिल्ली के वायसराय-भवन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए महादेव ; दूध-सी सफेद खद्दर में महात्मा के साथ बादशाह के आतिथ्य पाने के लिए लण्डन के बकिंघम पैलेस में जाते हुए महादेव ;यूरोप ,अमेरिका व दूर और नजदीक के पूर्वीय देशों से आनेवाले विदेशी मुसाफ़िरों को प्यार और अटूट शान्ति के साथ अपने गुरु के अहिंसा और सत्य के सन्देश को समझाते हुए महादेव ; स्फटिक मणि के समान अपने गुरु की अन्दरूनी-से-अन्दरूनी भावनाओं का साफ प्रतिबिम्ब दिखानेवाले महादेव ।
लेकिन जिस तरह वे अकस्मात मरे और उसके बाद घंटों में जो कुछ गुजरा ,उसकी याद सबसे ज्यादा हृदयद्रावी और ताजा बनी रहनेवाली है । ऐतिहासिक ९ अगस्त के दिन जब हम लोगों को गिरफ़्तार किया गया और पूना के आगाखान महल में भेज दिया गया,तभी से महादेव एक भावी भय की फिक्र से दबे और घिरे रहने लगे थे।उन्हें यही दर लगा रहता था कि जिस आमरण उपवास का गांधीजी बार-बार इरादा जाहिर किया करते थे,वह नजरबन्दी में अमली रूप न ले ले?१४ अगस्त १९४२ ई. की रात को ,जब सारे महल में खामोशी छायी हुयी थी,महादेव बड़ी रात तक मेरे कमरे में बैठकर जरूरी विषयों पर बातचीत करते रहे – मानो उन्हें यह भान हो गया था कि इन बातों के लिए कभी वक्त नहीं मिलेगा ।अपनी बातचीत के दौरान उन्होंने अपनी खुद की जिन्दगी की आलोचना की,प्यारी पत्नी और लड़के के साथ के तजरबे कह सुनाये। लेकिन उनकी बातचीत का मुख्य विषय था – महात्मा गांधी ,जिन्हें वे ईश्वर के जीते जागते प्रतीक मानते थे।फिर भी उस रात उनके आस-पास मौत का साया मँडराता-सा दिखाई देता था।लेकिन दूसरे दिन सुबह वे अनोखी खुशी और उम्मीद से भरे दिखाई देने लगे। सुबह वे गांधीजी के साथ बगीचा में घूमे।घर लौटने पर उन्होंने मुझसे कहा – ” पता नहीं ,आज मैं इतना खुश क्यों हूँ?” कुछ ही देर बाद वे विनोद करते हुए डॉक्टर के बुलाने पर उनसे मिलने आये ।और कुछ मिनटों के बाद हँसते-हँसते उन्होंने कहा- ” मेरा सिर घूम रहा है।” और हमारे जान सकने के पहले ही वे इस दुनिया से कूच कर गए।हम कितने ही उन्हें उठने और बोलने के लिए पुकारते रहे,लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
इस वज्रपात को सहकर भी गुरु ने अपने प्रियतम शिष्य का जिस ढंग से अन्तिम संस्कार किया ,उसका बयान करने के लिए जरूरी कोमल और सुन्दर शब्द मेरी कलम कहाँ से पावे?काँपते हाथों गांधीजी ने अकेले ही बरफ-से ठण्डे शव को नहलाया,उसे तिलक किया और धीमी आवाज से यह कहते हुए उसे फूलों से सजाया- ” महादेव , मैंने सोचा था कि यह संस्कार तुम मेरे लिये करोगे।लेकिन आज मुझे यह सब तुम्हारे लिये करना पड़ रहा है !” १५ अगस्त की चमकती दुपहरी में गमगीन लोगों का एक छोटा-सा जुलूस बना लिया गया।महल के एक कोने वह काम-चलाऊ स्मशान तक महादेव भाई की अर्थी के पीछे-पीछे गया ।..सुबह-सुबह जो जीती-जागती ज्वाला का पुंज था,वही शाम को नजदीक की पवित्र नदी की गोद में बिखेर दिये जाने के लिए सफेद राख का ढेर बन गया था ।
महादेव हमारी आँखों से ओझल हो गये हैं,लेकिन क्या वे सचमुच मर गये हैं? क्या वे आज भी अपने गुरु के प्रेम और मुल्क के दिल में ज़िन्दा नहीं हैं,जिनकी सेवा उन्होंने इतनी कामयाबी और कुरबानी के साथ की ? (१२-८-‘४६)
इसे पढकर ज्ञानवर्धन हुआ
ऐसे तो केवल कोई भाग्यवान ही संसार से विदा हो सकता है । पढ़कर अच्छा लगा ।
शशांक शेखर
क्या नारायणभाई देसाई इन्हीं के सुपुत्र हैं जो बापूकथा करते हैं?
इस ऐतिहासित और हृदयस्पर्शी लेख के लिए धन्यवाद.
महादेव देसाई के बारे में बताने का शुक्रिया।
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[…] वे जिन्दा हैं : ले. सरोजिनी नायडू […]
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इन भूली बिसरी यादों को हम तक पहुंचकर आपके बड़ा ही नेक काम किया हैं … महादेव भाई और गांधीजी का इस धरा पर आगमन किन्ही विशेष हेतु के लिए हैं … उनकी याद करने मात्र से ही मन अजीब सी शांति और सद्भाव से भर जाता हैं … आज़ादी तो उसका एक महत्वपूर्ण पड़ाव भर हैं … आपका पुनः दिल से आभार …