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बहुत शिद्दत के सथ कल एक चिट्ठे पर ‘शीर्षक-विचार’ किया गया है । शीर्षक-विचार यानी चिट्ठों के शीर्षकों पर विचार । चिट्ठालोक जिस सानेहा से गुजरा है उससे साथी चिट्ठाकार प्रभावित है । मौजूदा कारगुजारियों से मैं भी प्रभावित हूँ । अपने चिट्ठों (प्रविष्टियों के अर्थ में ) पर विचार कर रहा था और दुष्यन्त ,भवानीप्रसाद ,सर्वेश्वर और महेश्वर की कविताएँ और गज़ल पढ़ रहा था ।
मुझे लगता है कि ‘ श्रद्धान्जलि-श्रद्धान्जलि ‘ खेल का समय आ गया है । इस खेल की चर्चा मैं ने मौजूदा किच्चाइन से बहुत पहले एक टिप्पणी में की थी।
मसलन अनूप शुक्ल या देबाशीष की याद मुझे दुष्यन्त के इस मिसरे को पढ़ते हुई आती है ,एक उम्मीद के साथ-
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या कहो
इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है
दोनों चिट्ठेकार मुझसे ज्यादा जवान और कम बूढ़े हैं । हिन्दी चिट्ठेकारी के शुरुआती युग से लिख रहे हैं इस कारण शेर में इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल मुझे आपत्तिजनक नहीं लगता । दुष्यन्त ने जेपी को याद करते हुए कहा था जिन्हें हम बहत्तर साल का युवा मानते ही थे । उस दौर में अमृतलाल नागर ने भी ‘ नाच्यो बहुत गोपाल’ अपने प्रिय पाठक जयप्रकाश को समर्पित की थी। जेपी बीमारी के बिस्तर पर लेटे-लेटे ‘मानस का हंस’ सुनते थे।
चलो , अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा ।
घुघूति बासूति या सुनील दीपक का हँसमुख चेहरा और उनसे सम्बन्धित यादें इस शेर को पढ़ते हुए मेरी कल्पना में तिर जाती हैं ।
पहरेदारी से बचते हुए दुष्यन्त के यह दोनों शेर शायद दरवाजे से भीतर प्रवेश कर जाँए ।
और नारद जो कबूतर की तरह हम तक सभी चिट्ठाकारों का पैगाम पहुँचाता रहा है , उस पर लिखी पोस्ट का शीर्षक यदि , ‘ इस कबूतर को जरा प्यार से पालो यारों ‘ या ‘ अब कोई ऐसा तरीका निकालो यारों ‘ दिया जाए तब ? अनामदास , प्रमोद कुमार , धुरविरोधी , अभय या चौपटस्वामी की चिन्तायें उक्त प्रविष्टि में व्यक्त की जा सकती हैं । खींच-तान के यह भी शायद कैडबर्रीज़ के पप्पू की तरह पास हो जाए ।
और नारद प्रतिदावे के इस हिस्से का क्या होगा , कालिए ?
नारद सिर्फ एक मशीनी, स्वचालित एकत्रक (एग्रीगेटर) है जो कि सार्वजनिक आरएसएस फ़ीड स्रोतों से पोस्ट का सारांश संकलित कर प्रस्तुत करता है. अतः चिट्ठों (ब्लॉगों) के आरंभिक पोस्टों पर आधारित फ़ीड को चयनित करने के उपरांत उनकी निगरानी संभव नहीं है. हम चिट्ठों की सामग्री के लिए उत्तरदायी नहीं हैं और न ही चिट्ठे हमारे विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
मौजूदा स्थिति फैसलों से यह हिस्सा घोर आपत्तिजनक और अप्रासंगिक हो चुका है , इसलिए दोषी करार दिया जाएगा । संशोधन के लिए शायद अमेरिकी अदालत में तो न जाना पड़े , संचालक मण्डल को ।
धुरविरोधी के चिट्ठे पर जब जब उनसे और मुझसे स्कूल – मास्टर शैली में सवाल दागे गए तब दिमाग में आया –
‘ हमने सोचा था जवाब आएगा
एक बेहूदा सवाल आया है ।
या
इस अंधेरे में दिया रखना था ,
तू उजाले में ही बाल आया है ।
दुष्यन्त के ये मिसरे निश्चित तौर पर आपत्तिजनक माने जाते । इसमें तो बेहूदा जैसी गाली भी है !
या
वो सलीबों के करीब आए तो हमको
कायदे – कानून समझाने लगे हैं ।
अथवा उसी गजल से
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं ।
इन पर पाबन्दी की गारन्टी है । क्या अन्य फूल नहीं कुम्हलाते ?
( कुछ अन्य साथी चिट्ठाकारों के प्रति श्रद्धा – सुमन भविष्य में । चिट्ठाकारों के कौन से विचार अब आपत्तिजनक हो करार दिए जाएँगे इन पर भी , जल्द ही )
लाजवाब!
भाई साहब सब कुछ अच्छा लगा, बस एक शेर को सुधार दूं ।
एक बूढ़ा जी रहा है इस शहर में या यूं कहें
एक अंधेरी कोठरी में एक रोशन दान है ।।
आपने साबित कर दिया कि आप सही बनारसी हैं । हालात की सही टीका की है आपने ।
अफलातून जीं
बात अगर दुष्यंत कुमार की हो रही हो तो मुझे एक कवि मित्र ने उनका एक शेर सुनाया था।
यह तो सागर की लहरें हैं
इन्हें मेरी किश्ती से खेलने दो
वह कोई और है जो उसे पर लगायेगा
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मुझे पता नहीं उन्होने कहा या नहीं या शब्द कुछ और तरह से हैं ,पर हाँ यह संकट में मुझे याद आते हैं और प्रेरणा देते हैं । इसमें आपके द्वारा प्रस्तुत गजले मुझे पसन् आयीं और आपके इस शौक़ ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
दीपक भारतदीप
ये अंधेरा है या उनके कहने पे मानें कहते हैं उजाला है.. मलते हैं आंखें तकते हैं बार-बार..
यूनुस भाई, आपको भी सुधारना चाहूंगा…
एक बूढ़ा जी रहा इस शहर में या यूं कहें
इस अंधेरी कोठरी में एक रोशन दान है
क्या खूब लिखा है आपने. वैसे कौवे वाली कविता पर वाह वाह करने को दिल कर रहा है. शुक्रिया
सही है। इसी बहाने तमाम शेर याद आ गये।
kya khub likha hai ise padhkar ghalib ka ek ser yaad a gaja
laazim nahi ki khizra ki hum pehravi kare
mana ki ek bujurg hame humsafar mele
ye sakinan-e-kocha-e-dildar dekhana
tumko hahi jo ghalib-e-ashuftasar mile
[…] काएदे कानून समझाने लगें हैं : दुष्यन्त… […]
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