बनारस से प्रकाशित तीनों प्रमुख दैनिकों ने कल प्रथम पृष्ट पर यह संयुक्त विज्ञापन छापा था । मुझे कीटनाशकों के अवशेष पाए जाने के बाद तथाकथित गला-काट स्पर्धा वाली दोनों दानवाकार शीतल पेय कम्पनियों की संयुक्त प्रेस कॉन्फरेन्स की याद आई ।
From baghudi |
[ कृपया विज्ञापन पढ़ने के लिए चित्र पर खटका मारें ।]
पेट काट कर सात दिनों की हड़ताल करने वाले हॉकरों की एकता को अखबार प्रबन्धन ने तोड़ दिया । इन तीनों प्रमुख दैनिकों से लड़ने के लिए
हॉकरों ने बनारस के सब से पुराने दैनिक ‘आज’ को बाँटना शुरु किया था । ‘आज’ प्रबन्धन पिछले कुछ वर्षों से रियल एस्टेट के धन्धे को प्रथमिकता देते हैं और तीनों प्रमुख दैनिकों की माँग की भरपाई करने के लिए जरूरी प्रतियाँ छापने की उनकी औकात नहीं रह गयी थी ।
मसिजीवी जानना चाहते थे कि हड़ताल से सम्बन्धित खबर छपती थी या नहीं । पीडी का अनुमान बिलकुल सही था । तीनों दानवों ने आज कुछ हॉकरों द्वारा अखबार प्रबन्धन को दी गयी नये साल की शुभ कामना छापी है । हड़ताल के दौरान बनारस के प्रमुख सान्ध्य दैनिक ‘गांडीव’ हड़तालियों की खबर ढंग से छाप रहा था ।
इस प्रकार बनारस के नगर संस्करण की कीमत साढे़ तीन रुपये हो गयी और डाक संस्करण की चार रुपये । हॉकरों का कमीशन दोनों संस्करणों के लिए एक रुपये पाँच पैसे रहा ।
चिट्ठेकारों द्वारा प्रदर्शित सहानुभूति एवं समर्थन के लिए हार्दिक शुक्रिया।
इसे नए साल की अच्छी खबर कहा जा सकता है…
आने वाले तमाम दिनों के लिए शुभकामनाएं…
अखबार माफिया कहे तो कैसा रहेगा . यही अखबार दिल्ली ,पंजाब ,हरियाणा मे २ रु . के मिलते है .
yeh hai police aur media ka khula gathbandhan
यहाँ कोटा में अनेक हड़ताल देख चुका हूँ, और उन का परिणाम भी। आज कर्मचारी, मजदूर और श्रमजीवी वर्ग चाहे वह सोफ्टवेयर इंजिनियर क्यों न हो? अर्थवाद की सीमा से आगे जा कर राजनैतिक हो गया है।
ये वर्ग अपनी राजनैतिक लड़ाई में अभी आगे नहीं आना चाहते। यही कारण है कि उन का हर संघर्ष पिट रहा है।
बिना राजनैतिक संघर्ष के इन वर्गों के कुछ मिलना नहीं है। अंततः राजनैतिक संघर्ष पर इन्हें विवश होना पड़ेगा। और तब तक देश की राजनीति पूंजीवादी, सामंती और टटपूंजिया वर्गों और उन के प्रतिनिधि दलों के बीच ही घूमती रहेगी।
भविष्य में परिवर्तन अवश्यंभावी है। पर उस के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी होगी। नहीं कहा जा सकता।
पुलिसिये अखबार का वितरण कि कर्तव्य के अंतर्गत कर रहे थे? क्या उन्होंने कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी छोड दी थी ?
हाकरों की मांग कुछ नाजायज नहीं थी. वे सिर्फ अपने 33.33 प्रतिशत कमीशन के अंतर्गत सिर्फ 12 पैसे प्रति अखबार और चाहते होंगे लेकिन….
सामान्यत: अखबार जितना अपना सर्कुलेशन बताते हैं उससे कम ही छापते हैं क्योंकि इनकी विज्ञापन दरे सर्कुलेशन और पाठक के स्तर से तय होतीं है. यदि “आज” अधिक अखबार छापते तो उन्हें विज्ञापन में तो कुछ भी एक्स्ट्रा नहीं मिलता लेकिन छापने की लागत सर्कुलेशन से 20 प्रतिशत भी नही निकलती.
“आज” ही नहीं लगभग सारे अखबार वाले अखबार के भरोसे दूसरे धन्धे जमाने की जुगत में लगे हैं. जैसे भोपाल का एक अखबार रीयल एस्टेट जमा रहा है दूसरा रीयल एस्टेट वाला अपना अखबार जमा रहा है.
हाकर भले ही अभी कमजोर पड़ गये हों, लेकिन मानिये, इस घटना से इन अखबारों को नुकसान ही पहुंचेगा.
दोनों पोस्टें पढकर अचरज हुआ। पीडा उससे कहीं अधिक हुई। कार्यपालिका और विधायिका के अत्याचारों का प्रतिकार करने के लिए न्यायपालिका के बाद पत्रकारिता का ही भरोसा रह जाता है। लेकिन हमारी पत्रकारिता तो खुद ही ‘अत्याचारी’ हो गई!
जो अखबार-मालिक, पुलिस-संस्थान को अपना विक्रेता बना ले, वह पुलिस के विरूध्द भला कोई समाचार कैसे छाप सकेगा?
सारी बातें पढकर विचित्र सी अकुलाहट हो रही है। कुछ भी न कर पाने की अकुलाहट मर्मान्तक पीडा दे रही है।
काश! ‘उन’ क्षणों में हाकरों के साथ रहा होता।
जानता हूं कि शाब्दिक सहानुभूति से कुछ भी नहीं होता किन्तु इससे अधिक और कुछ भी नहीं कर पा रहा हूं। खुद से नजरें मिलाना तनिक कठिन हो रहा है।
ये एक बलवान और निर्बल की लड़ाई थी, जिसका परिणाम प्रत्याशित ही है। ऐसे हालात पहले भी बन चुके हैं, और शायद आगे भी बनें। मुझे याद है दस-बारह साल पहले गोरखपुर में इसी तरह हॉकरों की हड़ताल हुई थी। तब शहर से छपने वाले सभी बड़े अख़बारों ने क़ीमत दो रुपये से बढ़ाकर तीन रुपये की थी। हॉकरों का विरोध इस बात को लेकर था कि उनका कमीशन नहीं बढ़ाया गया था।
शुरुआती दौर में हड़ताल असरदार रही। दैनिक जागरण, आज और राष्ट्रीय सहारा समेत शहर से छपने वाले मुख्य अख़बारों ने चौराहों पर टेंट लगाकर अख़बार बेचा। तमाम कोशिशों के बावजूद अख़बारों के प्रसार पर ख़ासा असर पड़ा। लेकिन प्रकाशकों पर पड़ने वाला असर उन हॉकरों पर पड़ने वाले असर से कहीं कम था, जिन्हें पानी पीने के लिए रोज़ कुआं खोदना पड़ता है।
आख़िरकार प्रकाशक हॉकरों को तोड़ने में क़ामयाब हो गए। कुछ हॉकरों ने अख़बार उठाने शुरु कर दिए। नतीजतन क़रीब 15 दिनों बाद हड़ताल बिना किसी शर्त के ख़त्म हो गई। प्रकाशकों ने इसे एक बड़ी जीत के तौर पर लिया और दबे हुए हॉकरों को और दबाना शुरु किया।
क़ीमत बढ़ाने वाले अख़बारों ने हड़ताल की अगुवाई करने वाले शहर तीन सबसे पुराने और प्रतिष्ठित अख़बार विक्रेताओं को अख़बार की आपूर्ति बंद कर दी। शहर के अख़बार वितरण में इन तीनों की कुल हिस्सेदारी क़रीब चालीस फीसदी थी। कई दिनों तक ये सोचा समझा बॉयकॉट जारी रहा, जिसमें कई निहितार्थ छिपे थे। यही नहीं अख़बार ख़रीदने के लिए उधारी की जगह नगद और एडवांस पैसे अदा करने का सिस्टम भी शुरु किया गया, जो आजतक जारी है।
बरसों पहले हुई उस हड़ताल से कई नतीजे निकले। अख़बार विक्रेताओं का संगठन तहस-नहस हो गया। उस दिन के बाद आजतक गोरखपुर के हॉकर कोई हड़ताल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। प्रकाशक यही चाहते थे। बांटों और राज करो की रणनीति कामयाब हुई। इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं। पचास से दो सौ रुपये रोज़ाना कमाने वाला हॉकर पूंजीपति प्रकाशकों का मुक़ाबला नहीं कर सकता।
ये वही प्रकाशक हैं जो अपने अख़बारों की प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए हॉकरों का जमकर इस्तेमाल करते हैं। प्रतिद्वंद्वी अख़बार से गला काट प्रतियोगिता करते हैं। लेकिन जब बात साझा मुनाफे की आती है, तो सब एकजुट हो जाते हैं। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता (monopolystic competition) कहते हैं। पूंजीपति प्रकाशकों से सामाजवादी न्याय की उम्मीद करना बेमानी और बेवकूफी नहीं तो और क्या है?
विनोद अग्रहरि
vinod.virgo@gmail.com
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