उठी लोकमानस में आंधी निहारो,
तुम्हें जो गगन से धरा पर उतारे.
क्षितिज लाल होता चला जा रहा है,
तुम्हें ये प्रकृति की छटा जंच रही है,
दबी दीन आहों की ज्वाला धधक कर,
रुधिर क्रान्ति की नव दिशा रच रही है,
अभी पात पीले ही केवल झड़े हैं,
कभी आगे चल कर न जड़ से उखाड़े. उठी लोक….
दलित और शोषित जगी भावनाएं,
तुम्हारे वैभव के भवन हिल रहे हैं,
स्वयं अपने ऊंचे कंगूरे झुकाकर,
झुपड़ियों से जा जा गले मिल रहे हैं.
उजड़ भी चुके और सूने पड़े हैं,
खड़े राह में थे जो सीना उभारे. उठी लोक….
धरा पर कहां और क्या बीतती है,
तुम्हे क्या खबर तुम बने व्योमचारी,
बुलन्दी के सपनों से फ़ुरसत नहीं है,
कहां देख पातीं हैं आखें तुम्हारी,
सुनो युग चुनौती, न बरबाद कर दें
समय पर तुम्हें कारनामे तुम्हारे. उठी लोक….
किये हैं बहुत भूल उत्पात तुमने
निजी सम्पदा के क्षणिक चोचलों में,
भले आज जनमत न मुंह पर कहे कुछ
खटकते बुरे हो बहुत तुम दिलों में.
फ़क़त एक धक्के की बाकी कसर है
समझ लो खड़े हो पतन के किनारे. उठी लोक….
बहुत सुन्दर रचना!
“धरा पर कहां और क्या बीतती है,
तुम्हे क्या खबर तुम बने व्योमचारी,
बुलन्दी के सपनों से फ़ुरसत नहीं है,
कहां देख पातीं हैं आखें तुम्हारी,
सुनो युग चुनौती, न बरबाद कर दें
समय पर तुम्हें कारनामे तुम्हारे. उठी लोक….”
बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ ! सुन्दर प्रविष्टि !