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पिछली प्रविष्टी से आगे :
इसका यह अर्थ नहीं कि हिन्दू धर्म अपनी भावधारा ही छोड़ दे और जीवन और सभी चीजों की एकता की कोशिश न करे । यह शायद उसका सबसे बड़ा गुण है । अचानक मन में भर जाने वाली ममता , भावना की चेतना और प्रसार , जिसमें गांव का लड़का मोटर निकलने पर बकरी के बच्चे को इस तरह चिपटा लेता है जैसे उसी में उसकी जिन्दगी हो ,या कोई सूखी जड़ों और हरी शाखों के पेड़ को ऐसे देखता है जैसे वह उसी का एक अंश हो , एक ऐसा गुण है जो शायद सभी धर्मों में मिलता है लेकिन कहीं उसने ऐसी गहरी और स्थायी भावना का रूप नहीं लिया जैसा हिन्दू धर्म में । बुद्धि का देवता दया के से बिल्कुल अलग है । मैं नहीं जानता कि ईश्वर है या नहीं है लेकिन मैं इतना जानता हूं कि सारे जीवन और सृष्टि को एक में बांधने वाली ममता की भावना है , हालांकि अभी वह एक दुर्लभ भावना है । इस भावना को सारे कामों , यहां तक कि झगड़ों की भी पृष्ठभूमि बनाना शायद व्यवहार में मुमकिन न हो । लेकिन यूरोप केवल सगुण , लौकिक सत्य को स्वीकार करने के फलस्वरूप उत्पन्न झगड़ों से मर रहा है तो हिन्दुस्तान केवल निर्गुण , परम सत्य को ही स्वीकार करने के फलस्वरूप निष्क्रियता से मर रहा है । मैं बेहिचक कह सकता हूं कि मुझे सड़ने की अपेक्षा झगड़े से मरना ज्यादा पसन्द है । लेकिन विचार और व्यवहार के क्या यही दो रास्ते मनुष्य के सामने हैं ? क्या खोज की वैज्ञानिक भावना का एकता की रागात्मक भावना से मेल बैठाना मुमकिन नहीं है ? जिसमें एक दूसरे के अधीन न हो और समान गुणों वाले दो क्रमों के रूप में दोनों बराबरी की जगह पर हों । वैज्ञानिक भावना वर्ण के खिलाफ और स्त्रियों के हक में , सम्पत्ति के खिलाफ और सहिष्णुता के हक में काम करेगी और धन पैदा करने के ऐसे तरीके निकालेगी जिससे भूख और गरीबी दूर होगी । एकता की सृजनात्मक भावना वह रागात्मक शक्ति पैदा करेगी जिसके बिना मनुष्य की बड़ी-से-बड़ी कोशिशें लाभ , ईर्ष्या , और घृणा में बदल जाती हैं ।
यह कहना मुश्किल है कि हिन्दू धर्म यह नया दिमाग पा सकता है और वैज्ञानिक रागात्मक भावनाओं में मेल बैठ सकता है या नहीं । लेकिन हिन्दू धर्म दर असल है क्या ? इसका कोई एक उत्तर नहीं , बल्कि कई उत्तर हैं । इतना निश्चित है कि हिन्दू धर्म कोई खास सिद्धान्त या संगठन नहीं है न विश्वास और व्यवहार का कोई नियम उसके लिए अनिवार्य ही है । स्मृतियों और कथाओं , दर्शन और रीतियों की एक पूरी दुनिया है जिसका कुछ हिस्सा बहुत ही बुरा है और कुछ ऐसा है जो मनुष्य के काम आ सकता है । इन सबसे मिलकर हिन्दू दिमाग बनता है जिसकी विशेषता कुछ विद्वानों ने सहिष्णुता और विविधता में एकता बतायी है । हमने इस सिद्धान्त की कमियाँ देखीं और यह देखा कि कि दिमागी निष्क्रियता दूर करने के लिए कहां उसमें सुधार करने की जरूरत है । इस सिद्धान्त को समझने में आम तौर पर यह गलती हो जाती है कि उदार हिन्दू धर्म हमेशा अच्छे विचारों और प्रभावों को अपना लेता है चाहे वे जहां से भी आये हों , जबकि कट्टरता ऐसा नहीं करती । मेरे ख्याल में यह विचार अज्ञानपूर्ण है । भारतीय इतिहास के पन्नों में मुझे ऐसा कोई काल नहीं मिला जिसमें आजाद हिन्दू ने विदेशों में विचारों या वस्तुओं की खोज की हो । हिन्दुस्तान और चीन के हजारों साल के सम्बन्ध में मैं सिर्फ पांच वस्तुओं के नाम जान पाया हूं जिनमें सिन्दूर भी है , जो चीन से भारत लाइ गई । विचारों के क्षेत्र में कुछ भी नहीं आया ।
आजाद हिन्दुस्तान का आम तौर पर बाहरी दुनिया से एक तरफा रिश्ता होता था , जिसमें कोई विचार बाहर से नहीं आते थे और वस्तुएं भी कम ही आती थीं , सिवाय चांदी आदि के । जब कोई विदेशी समुदाय आ कर यहां बस जाता और समय बीतने पर हिन्दू धर्म का ही एक अंग या वर्ण बनने की कोशिश करता तब जरूर कुछ विचार और कुछ चीजें अन्दर आतीं । इसके विपरीत गुलाम हिन्दुस्तान और उस समय का हिन्दू धर्म विजेता की भाषा , उसकी आदतों और उसके रहन-सहन की बड़ी तेजी से नकल करता है । आजादी में दिमाग की आत्मनिर्भरता के साथ गुलामी में पूरा दिमागी दीवालियापन मिलता है । हिन्दू धर्म की इस कमजोरी को कभी नहीं समझा गया और यह खेद की बात है कि उदारवादी हिन्दू अज्ञानवश , प्रचार के लिए इसके विपरीत बातें फैला रहे हैं । आजादी की हालत में हिन्दू दिमाग खुला जरूर रहता है , लेकिन केवल देश के अन्दर होने वाली घटनाओं के प्रति । बाहरी विचारों और प्रभावों के प्रति तब भी बन्द रहता है । यह उसकी एक बड़ी कमजोरी है और भारत के विदेशी शासन का शिकार होने का एक कारण है । हिन्दू दिमाग को अब न सिर्फ अपने देश के अन्दर की बातों बल्कि बाहर की बातों के प्रति भी अपना दिमाग खुला रखना होगा और विविधता में एकता के अपने सिद्धान्त को सारी दुनिया के विचार और व्यवहार पर लागू करना होगा ।
आज हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिन्दू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है लेकिन हर ऐसा हिन्दू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित है , उन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्यान देगा जो पांच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए । कोई हिन्दू मुसलमानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक की वह उसके साथ ही वर्ण और सम्पत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे । उदार और कट्टर हिन्दू धर्म की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुंच गयी है और संभव है उसका अंत भी नजदीक ही हो । कट्टरपंथी हिन्दू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे न सिर्फ हिन्दू मुस्लिम दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रान्तों की दृष्टि से भी । केवल उदार हिन्दू ही राज्य को कायम कर सकते हैं । अत: पांच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई अब इस स्थिति में आ गयी है कि एक राजनीतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिन्दुस्तान के लोगों की हस्ती ही इस बात पर निर्भर है कि हिन्दू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो । धार्मिक और मानवी सवाल आज मुख्यत: एक राजनीतिक सवाल है । हिन्दू के सामने आज यही एक रास्ता है कि अपने दिमाग में क्रांति लाये , या फिर गिर कर दब जाय । उसे मुसलमान और ईसाई बनना होगा उन्हीं की तरह महसूस करना होगा । मैं हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात नहीं कर रहा , क्योंकि वह एक राजनीतिक , संगठनात्मक या अधिक-से-अधिक सांस्कृतिक सवाल है । मैं मुसलमान और ईसाई के साथ हिन्दू की रागात्मक एकता की बात कर रहा हूं , धार्मिक विश्वास और व्यवहार में नहीं , बल्कि इस भावना में कि ” मैं वह हूं” ऐसी रागात्मक एकता हासिल करना कठिन मालूम पड़ सकता है , या अक्सर एक तरफा हो सकता है और उसे हत्या और रक्तपात की पीड़ा सहनी पड़ सकती है । मैं यहां अमेरिकन गृहयुद्ध की याद दिलाना चाहूंगा जिसमें चार लाख भाई ने भाई को मारा और छ: लाख व्यक्ति मरे लेकिन जीत की घड़ी में अब्राहम लिंकन और अमेरिका के लोगों ने उत्तरी और दक्षिणी भाइयों के बीच ऐसी ही रागात्मक एकता दिखाई ।हिन्दुस्तान का भविष्य चाहे जैसा भी हो , हिन्दू को अपने आप को बदल कर मुसलमान के साथ ऐसी रागात्मक एकता हासिल करनी होगी । सारे जीवों और वस्तुओं की रागात्मक एकता हासिल करनी होगी । सारे जीवों और वस्तुओं की रागात्मक एकता में हिन्दू का विश्वास भारतीय राज्य की राजनीतिक जरूरत भी है कि हिन्दू मुसलमान के साथ एकता महसूस करे । इस रास्ते पर बड़ी रुकावटें और हार हारें हो सकती हैं , लेकिन हिन्दू दिमाग को किस रास्ते पर चलना चाहिए , यह साफ है । कहा जा सकता है हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता की इस लड़ाई को खतम करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि धर्म से ही लड़ा जाय। यह हो सकता है। लेकिन रास्ता टेढा है और कौन जाने कि चालाक हिन्दू धर्म , धर्म विरोधियों को भी अपना एक अंग बनाकर निगल जाय । इसके अलावा कट्टर पंथियों का जो भी अच्छे समर्थक मिलते हैं , वह कम पढ़े-लिखे लोगों में और शहर में रहने वालों में ; गांव के अनपढ लोगों में तत्काल चाहे जितना भी जोश आ जाय पर वे उनके स्थायी आधार नहीं बन सकते । सदियों की बुद्धि के कारण पढ़े-लिखे लोगों की तरह गांव वाले भी सहिष्णु होते हैं । कम्युनिज्म या फासिज्म जैसे लोकतंत्रविरोधी सिद्धान्तों से ताकत पाने की खोज में , जो वर्ण और नेतृत्व के मिलते जुलते विचारों पर आधारित हैं , हिन्दू धर्म का कट्टरपंथी अंश भी धर्मविरोधी का बाना पहन सकता है । अब समय है कि हिन्दू सदियों से इकट्ठा हो रही गन्दगी को अपने दिमाग से निकाल कर उसे साफ करे । जिन्दगी की असलियतों और अपनी परम सत्य की चेतना , सगुण सत्य और निर्गुण सत्य के बीच उसे एक सच्चा और फलदायक रिश्ता कायम करना होगा । केवल इसी आधार पर वह वर्ण , स्त्री , सम्पत्ति और सहिष्णुता के सवालों पर हिन्दू धर्म के कट्टर्पंथी को हमेशा के लिए जीत सकेगा जो इतने दिनों तक उसके विश्वासों को गन्दा करते रहे हैं और उसके देश के इतिहास में बिखराव लाते रहे हैं । पीछे हटते समय हिन्दू धर्म में कट्टरता अक्सर उदारता के अन्दर छिप कर बैठ जाती है । ऐसा फिर न होने पाये । सवाल साफ है । समजहुते से पुरानी गलतियां फिर दुहरायी जाएंगी । इस भयानक युद्ध को अब खतम करना ही होगा । भारत के दिमाग की एक नई कोशिश तब शुरु होगी जिसमें बौद्धिक का रागात्मक से मेल होगा , जो विविधता में एकता को निष्क्रिय नहीं बल्कि सशक्त सिद्धान्त बनायेगी और जो स्वच्छ लौकिक खुशियों को स्वीकार करके भी सभी जीवों और वस्तुओं की एकता को नजर से ओझल न होने देगी । समाप्त ( जुलाई १९५०)
पूरे लेख की कड़ियां : १. https://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/03/11/lohiahindu-banam-hindu/
२. https://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/03/12/lohiahindu-banam-hindu-2/
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