” गांधी – एक सख़्त पिता । जेपी – एक असहाय मां । विनोबा – एक पुण्यात्मा बड़ी बहन ।
लोहिया – गांव-दर-गांव भटकने वाला यायावर । अम्बेडकर – पक्षपाती हालात से नाराज होकर घर से बाहर रहने वाला बेटा ।
यह है हमारा हमारा कुटुंब । हम हैं इस परिवार की संतान। इसे और किस नजरिए से देखा जा सकता है ?”
– देवनूर महादेव , (प्रख्यात कन्नड़ साहित्यकार और अध्यक्ष , सर्वोदय कर्नाटक पक्ष)
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सर्वोदय कर्नाटक / देवनूर महादेव.
Posted in किशन पटनायक, Karnataka, tagged Ambedkar, देवनूर महादेव, लोहिया, विनोबा, सर्वोदय कर्नाटक, Devanoor Mahadev, Gandhi, lohia, Sarvoday karnataka, vinoba on जनवरी 18, 2014| Leave a Comment »
भारत की नदियाँ / राममनोहर लोहिया
Posted in lohia, tagged नदियां, लोहिया, interval during politics, lohia, rivers on जून 29, 2013| 2 Comments »
अब मैं ऐसे मुद्दे पर बोलना चाहता हूँ जिसका ताल्लुक आमतौर पर धर्माचार्यों से है लेकिन जब से वे ग़ैरज़रूरी और बेकार बातों में लिप्त हो गये हैं, इससे विरत हैं. जहाँ तक मेरा सवाल है, यह साफ़ कर दूँ कि मैं एक नास्तिक हूँ. किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि मैं ईश्वर पर विश्वास करने लगा हूँ. आज के और अतीत के भी भारत की जीवन-पद्धति, दुनिया के दूसरे देशों की ही तरह, लेकिन और बड़े पैमाने पर, किसी न किसी नदी से जुड़ी रही है. राजनीति की बजाय अगर मैं अध्यापन के पेशे में होता तो इस जुड़ाव की गहन जाँच करता. राम की अयोध्या सरयू के किनारे बसी थी. कुरु, मौर्य और गुप्त साम्राज्य गंगा के किनारों पर फले-फूले, मुग़ल और शौरसेनी रियासतें और राजधानियाँ यमुना के किनारों पर स्थित थीं. साल भर पानी की ज़रूरत एक वजह हो सकती है, लेकिन कुछ सांस्कृतिक वजहें भी हो सकती हैं. एक बार मैं महेश्वर नाम की जगह में था जहाँ कुछ समय के लिए अहल्या ने एक शक्तिशाली शासन स्थापित किया था. वहाँ ड्यूटी कर रहे संतरी ने यह पूछकर मुझे दंग कर दिया कि मैं किस नदी का हूँ. यह दिलचस्प सवाल था क्योंकि मेरी भाषा, मेरे शहर या मेरे क़स्बे के बारे में पूछताछ करने की बजाय उसने मुझसे मेरी नदी के बारे में पूछा. सभी बड़े साम्राज्य नदी-तटों पर बसते आए हैं, – चोल, पांड्य और पल्लव साम्राज्य क्रमशः कावेरी, व्यगीर और पालर नदियों के किनारों पर थे.
हमारे देश की कुल चालीस करोड़ की आबादी में से तक़रीबन एक या दो करोड़ लोग रोज़ाना नदियों में डुबकी लगाते हैं और पचास से साठ लाख लोग नदी का पानी पीते हैं. उनके दिल और दिमाग़ नदियों से जुड़े हुए हैं. लेकिन नदियाँ शहरों से गिरने वाले मल और अवजल से प्रदूषित हो गयी हैं. गंदा पानी ज़्यादातर फैक्ट्रियों का होता है और कानपुर में ज़्यादातर फैक्ट्रियां चमड़े की हैं जो पानी को अब और भी नुक़सानदेह बना रही हैं. फिर भी हज़ारों लोग यही पानी पीते हैं, इसी में नहाते हैं. साल भर पहले इस दिक़्क़त पर कानपुर में मैं बोला भी था.
क्या हमें नदियों के प्रदूषण के ख़िलाफ़ एक आंदोलन शुरू करना चाहिए? अगर ऐसा आंदोलन सफल हो जाय तो अकूत धन की बचत भी हो पायेगी. अवजल को शोधित करके गंगा या कावेरी में ही डाल देने की बजाय ड्रेन पाइपों के ज़रिये उन्हें नदी से दस-बीस मील दूर ले जाया जाय और मैदानों में छोड़ा जाय. इस जगह पर खाद बनाने की फैक्ट्री खोली जा सकती है. देखने में यह ख़र्चीला लगता है. लेकिन समूची दृष्टि को क्रांतिकारी तरीक़े से बदलना होगा. ख़र्च करोड़ों में होगा लेकिन सरकार पंचवर्षीय योजनाओं में २२०० करोड़ रूपये सालाना क्या नहीं ख़र्च कर दे रही है? मुमकिन है, कुछ अन्य परियोजनाओं के अमल को टालना पड़े. लेकिन ऐसी योजना को लागू करने के रास्ते में आने वाले अवरोधों को भी मैं जानता हूँ. हमारे वर्तमान शासक और भविष्य में शासक बनने के आकांक्षी जन नक़ली और सतही तौर- तरीक़ों से देश का यूरोपीयकरण कर डालने के बारे में सोचते हैं. और आज के शासक हैं कौन? वे एक लाख होंगे, या इससे भी कम, जो ज़रा-सी अंग्रेज़ी जानते हैं. वे जानते हैं कि छुरी-काँटे का इस्तेमाल कैसे किया जाता है और टाई और कोट कैसे पहनना चाहिए. उन्होंने एक ताक़तवर संसार बना लिया है और उनके नेता हैं पंडित नेहरू. श्री संपूर्णानंद भी उसी संसार का प्रतीक हैं, हालाँकि अपने कपड़े-लत्ते से वह यूरोपियन नहीं लगते लेकिन अगर श्रीयुत नेहरू को अमेरिका जाना हो तो वहाँ वह भी ऐसी ही शख्सियतों में गिने जायेंगे.
शहर बनारस में भगवान विश्वनाथ को लेकर आंदोलन चला है. अब उनका एक नया मंदिर भी बनाया जा रहा है. दरअसल यह आंदोलन भगवान विश्वनाथ के लिए था ही नहीं. संघर्ष तो ब्राह्मणों के देवता और चमारों के देवता के बीच था. हिन्दू मानस बेकार ही फालतू मामलों में उलझा रहता है. अगर सिर्फ़ करपात्री जी ने उस अंदाज़ में काम कर दिखाया होता जिसका संकेत मैंने किया है, तो समस्या सुलझ गयी होती. लेकिन करपात्री जी कौन सी दुनिया की नुमाइंदगी करते हैं. वे राजस्थान के धनकुबेरों और घनघोर सामंतों के प्रतिनिधि हैं. एक की बजाय दो विश्वनाथ मंदिर बनवा देने से कोई समाधान नहीं होगा. ज़रूरत पूरे देश की पुनर्रचना और गरीबी के उन्मूलन की है.
आज हमारी सेना के जवान कौन हैं? ये ग़रीब के बेटे हैं और वे लोग हैं जो जान देते हैं. ये वे हैं जो देहरादून और सैंडहर्स्ट के नक़ली माहौल में प्रशिक्षित अधिकारियों के हुक्म की तामील करते हैं. अफसर समृद्ध वर्गों के हैं. वे आधुनिक विश्व के नुमाइंदे हैं. वे क्यों इस देश के लाखों लोगों के लिए दिक हों? उनके पास भारतीय दिमाग़ है भी नहीं. अगर ऐसा होता तो नदियों की सफ़ाई की योजनाएँ आज बिल्कुल तैयार होतीं. मैं चाहता हूँ कि पार्टी से बाहर के लोग बैठकें करने, जुलूस निकालने और संगोष्ठियाँ आयोजित करके सरकार को नदी-प्रदूषण-निवारण परियोजनाओं को उठाने के लिए बाध्य करने की ख़ातिर सोशलिस्ट पार्टी से हाथ मिला लें. हमें ख़ुद भी इस संकल्प के साथ तैयार रहना होगा कि यदि तीन से छह महीने के भीतर अवजल के प्रवाह को मैदानों की ओर नहीं मोड़ा गया तो हम वर्तमान ड्रेनेज सिस्टम को तोड़ देंगे और इस तोड़फोड़ में किसी किस्म की हिंसा नहीं होगी.
कबीर ने कहा है:
माया महाठगनि मैं जानी
केशव की कमला बन बैठी,
शिव के भवन भवानी
पंडा की मूरत बन बैठी,
तीरथ में भई पानी
तीर्थ में क्या है? – सिर्फ़ पानी. तो लोगों को सरकार को डाँटना चाहिए, ‘तुम बेशर्म लोग, बंद करो यह मलिनता.’ मैं तो फिर भी नास्तिक हूँ. मेरे लिए सवाल तीर्थ का नहीं है, यह है कि हमारा देश तीस लाख लोगों का है कि चालीस करोड़ का.
***
अनुवाद : व्योमेश शुक्ल
{ १९५८ की फरवरी में बनारस में दिया गया भाषण
राममनोहर लोहिया की मशहूर किताब ‘इंटरवल ड्यूरिंग पॉलिटिक्स’, नवहिंद प्रकाशन, हैदराबाद, प्रथम संस्करण १९६५ में शामिल निबंध. साथ में दी गई तस्वीर गूगल से. }
डॉ. लोहिया की दुर्लभ तस्वीरें
Posted in lohia, tagged अलबम, चित्र, लोहिया, सुधेन्दु on मार्च 23, 2011| 2 Comments »
अलबम के कैप्शन ’डॉ. राममनोहर लोहिया’ पर खटका मारें ।) १५ चित्रों का यह संग्रह सुधेन्दु पटेल ने आज ही फेसबुक पर जारी किया है । उनका नोट –
“डॉ. लोहिया को बंदगी डॉ. राम मनोहर लोहिया की देशभक्ति नि:सीम थी | देश की चतुर्दिक सीमाओं, ‘उर्वसीअ’ से कच्छ तक, हिमालय से कन्याकुमारी तक, अपने देश के हर हिस्से में वे गये थे | उस क्षेत्र को संपूर्णतया में समझने की कोशिश की थी | वहां के लोगो को अपना बनाया था | वे उनके सगे से थे | वे जाग्रत नेता थे | उनका चिंतन विश्वचित्त मूलक था | सप्तक्रांति के स्वप्नदृष्टा की कथनी करनी में संभव मेल था | मानवीयता में रंच मात्र झोल उन्हें अस्वीकार था | आदमी पर आदमी की सवारी उन्हें नामंजूर था | पशु पर भी भारी भरकम बोझ लादना ठीक नहीं मानते थे | वे मेरे “नायक” रहे हैं, अब भी हैं | संभव कोशिश करता हूँ कि उनकी कथनी की कसौटी पर अपने को घिसता रहूँ | यह और बात है कि समय की जेट रफ़्तार ने सब कुछ “सुनामी” सा उलट पलट गया है, मर्मान्तक की हद को लांघता हुआ | संभवतया, पहली बार “सब के लिए” डॉ. राम मनोहर लोहिया के चंद दुर्लभ छायाचित्र | ( भगत सिंह की शहादत का दिन २३ मार्च, इसीलिए डॉ लोहिया अपना जन्मदिन नहीं मनाने देते थे | इन दोनों पुरखो को नमन | )”
द्वारा: Sudhendu Patel
भ्रष्टाचार की एक पड़ताल (२) :किशन पटनायक : राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार
Posted in भ्रष्टाचार, corruption, tagged किशन पटनायक, नेहरू, फिजूलखर्ची, भ्रष्टाचार, लोहिया, kishan pattanayak on फ़रवरी 26, 2011| 6 Comments »
राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार
राजनैतिक और आर्थिक दोनों क्षेत्रों में अवरोध पैदा करनेवाले इस सामाजिक रोग का निदान और प्रतिकार ढूँढ़ने का कोई गम्भीर प्रयास न होना मौजूदा भारतीय स्थिति का एक स्वाभाविक पहलू है । बुद्धिजीवी और राजनेता , दोनों एक सर्वग्रासी जड़ता के शिकार हैं । भ्रष्टाचार का मुद्दा पिछले कई महीनों से भारतीय राजनीति का सबसे गरम मुद्दा बना हुआ है । राजीव गांधी की गद्दी हिल गई है । इस मुद्दे को हथियार बनाकर सारा विपक्ष चुनाव लड़ेगा । लेकिन किसी दल की ओर से यह नहीं बताया जाता है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उसके पास क्या कार्यक्रम है ? कम्युनिस्ट राजनेता और बुद्धिजीवी यह कहकर छुटकारा पा लेते हैं कि क्रांति के द्वारा भ्रष्टाचार का उन्मूलन हो जायेगा ।यह उस तरह की बात है जैसे कुछ लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए तानाशाही चाहिए ।
जब कम्युनिस्ट चीन को भी भ्रष्टाचार बढ़ने की चिन्ता होने लगी और भारत में क्रांति होने के पहले ही कम्युनिस्टों ने राज्यों की सरकार सँभालने के लिए रणनीति बनाई है तो कम्युनिस्ट प्रवक्ताओं को भी क्रांति की सपाट बात न कहकर अधिक ब्यौरे में जाकर इस प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा ।
जब तक भ्रष्टाचार के सामाजिक – आर्थिक कारणों के बारे में समझ पैदा नहीं होगी , तब तक यह सिद्धान्त प्रचलित रहेगा कि शासकों के व्यक्तिगत चरित्र को उन्नत करना ही भ्रष्टाचार निरोध का निर्णायक उपाय है । यही वजह है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए जाँच और छापे मारने की कार्रवाइयों के अलावा दूसरे उपाय भी हो सकते हैं , यह बात लोगों के दिमाग में नहीं आती ।
सबसे पहले यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार का कारण न व्यक्ति है , न विकास है । अगर विकास के ढाँचे में भ्रष्टाचार का बढ़ना अनिवार्य है तो तो वह फिर विकास ही नहीं है । मनुष्य स्वभाव की विचित्रता में बुराइयाँ भी हैं , कमजोरियाँ भी हैं । मनुष्य स्वभाव में जिस मात्रा में बुराई होती है वह तो मनुष्य समाज में रहेंगी ही । उस पर नियंत्रण रखने के लिए सभ्यता में धर्म , संस्कृति , राज्यव्यवस्था आदि की उत्पत्ति हुई है । अगर उन पर नियंत्रण नहीं रह पाया तो धर्म , संस्कृति , राज्य, अर्थव्यवस्था – हरेक पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा । अगर प्रशासन और अर्थव्यवस्था सही है तो समाज में भ्रष्ट आचरण की मात्रा नियंत्रित रहेगी । उससे राज्य को कोई खतरा नहीं होगा । उतना भ्रष्टाचार प्रत्येक समाज में स्वाभाविक रूप से रहेगा । परंतु जब प्रशासन और अर्थव्यवस्था असंतुलित है और सांस्कृतिक परिवेश भी प्रतिकूल है तब भ्रष्टाचार की मात्रा इतनी अधिक हो जाएगी कि वह नियंत्रण के बाहर होगा , उससे जनजीवन और राज्य दोनों के लिए खतरा पैदा हो जाएगा । इसी अर्थ में हम कहते हैं कि विकसित देशों में भ्रष्टाचार की समस्या नगण्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि वहाँ भ्रष्टाचार की घटनायें नहीं होती हैं । उन देशों में भ्रष्टाचार राज्य और समाज के इतने नियंत्रण में है कि उसकी मात्रा खतरे की सीमा से ऊपर नहीं जाती ।
यह भी समझना चाहिए कि बड़ा’ और ’छोटा’ भ्रष्टाचार एक जैसा नहीं होता है ।जनसाधारण को यह सिखाया गया है कि छोटा चोर और बड़ा चोर दोनों एक हैं । कानून में भी वे दोनों एक नहीं हैं । भ्रष्टाचार की जिस घटना से राज्य और मानव समाज को अधिक हानि पहुँचती है उसे अक्षम्य अपराध माना जाना चाहिए । सत्ता में प्रतिष्ठित व्यक्तियों का भ्रष्टाचार अधिक हानिकारक होता है । रक्षक का भक्षक होना अधिक जघन्य है । सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्तियों के गलत तौर- तरीकों को नीचेवाले लोग सहज ढंग से अपनाते हैं । इसीलिए नीचे के स्तर का भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत कम दोषवाला होगा । इस आपेक्षिक दृष्टि को बगैर अपनाये हम भ्रष्टाचार की जड़ तक नहीं पहुँच पाएँगे । १९६२ में राममनोहर लोहिया ने जब यह सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री पर इतना अधिक तामझाम , फिजूल खर्च क्यों होता है ? तब देश के राजनेताओं ने और बुद्धिजीवियों ने इस सवाल को अप्रासंगिक मानकर या तो मखौल उड़ाया या चुप्पी साध ली ।मंत्रियों का खर्च और उनकी नकल करने वालों का खर्च इस दरमियान बढ़ गया । वर्तमान प्रधा्नमंत्री का फिजूल खर्च तो इतना बढ़ गया है कि अखबारवाले भी ताना कस रहे हैं । जो लोग लोहिया के आरोपों को बकवास या द्वेषपूर्ण कहते थे इस वर्ग के लोग भी प्रधामंत्री , मंत्रियों और सांसदों की फिजूलखर्ची से चिन्तित हैं । लोहिया ने उन्हीं दिनों कहा था कि सर्वोच्च पद पर बैठे हुए आदमी का फिजू्ल खर्च तथा भोग-विलास पूरे समाज को भ्रष्ट बनाता है । अगर उसको हटाया नहीं गया तो उसके सहयोगियों में , नौकरशाहों में भोगवृत्ति बढ़ जाएगी ।
( जारी ,अगला भाग – फिजूलखर्ची और विलास) पिछला भाग (१) , सम्बन्धित आलेख (राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक )
सोचने – समझने में गलती से बचने के लिए लोहिया देते थे जातियों की तादाद के आँकड़े
Posted in caste, caste census, lohia, women, tagged जनगणना, जाति, जाति जनगणना, डॉ. लोहिया, लोहिया, caste, caste census, caste data, caste enumeration, census, estimates, lohia on जून 26, 2010| 8 Comments »
किसी आबादी के छोटे हिस्से की गणना (सैम्पल सर्वे ) और उस के आधार पर पूरी मूल आबादी के आँकड़ों के अनुमान लगाने के फायदों में प्रमुख पैसे और समय की बचत बताया जाता है । परन्तु जब पूरी आबादी की गणना यूँ भी हर दस साल पर होती है तब सिर्फ़ कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को मर्दुम शुमारी की प्रश्नावली में जोड़ लेना तो खर्चीला भी नहीं होगा । विद्वानों का एक तबका सोच – समझ कर सोचने – समझने की गलतियाँ करना चाहता है इसलिए पूरी आबादी में जातियों की गिनती की मुख़ालफ़त कर रहा है । भारत में जाति – प्रथा को समझने तथा उसको समाप्त करने की दिशा में कदम उठाने की बाबत डॉ. राममनोहर लोहिया ने अपनी पैनी मेधा से प्रकाश डाला । अपनी बातों को बल प्रदान करने के लिए लोहिया आँकड़ों और अनुमानों का जगह – जगह हवाला देते हैं । इन्हें पढ़ते हुए लगता है कि मुल्क के पैमाने पर काश इस प्रकार के आँकड़े उपलब्ध होते।
इस आलेख में लोहिया के ऐसे वैचारिक उद्धरण लिए जा रहे हैं जिनमें उन्होंनेआँकड़े या अनुमानों का हवाला दिया है :
* सारे देश के पैमाने पर अहीर , जिन्हें ग्वाला , गोप भी कहा जाता है , और चमार , जिन्हें महार भी कहा जाता है , सबसे ज्यादा संख्या की छोटी जातियाँ हैं । अहीर तो हैं शूद्र और चमार हैं हरिजन। हिन्दुस्तान की जाति प्रथा के वे वृहत्काय हैं , जैसे द्विजों में ब्राह्मण और क्षत्रीय । अहीर , चमार, ब्राह्मण और क्षत्रीय , हर एक २ से ३ करोड़ हैं । सब मिला कर ये हिन्दुस्तान की आबादी के करीब १० से १२ करोड़ हैं । फिर इनकी सीमा से हिन्दुस्तान की कुल आबादी के तीन चौथाई से कुछ कम बाहर ही रह जाते हैं । कोई भी आन्दोलन जो उनकी हैसियत और हालत को बदलता नहीं , उसे थोथा ही मानना चाहिए । इन चार वृहत्कायों की हैसियत और हालत के परिवर्तन में उन्हें ही बहुत दिलचस्पी हो सकती है पर पूरे समाज के लिए उनका कोई खास महत्व नहीं है ।
उत्तर हिन्दुस्तान के अहीरों और चमारों ने भी , शायद पर्याप्त जागरूक न रहते हुए , रेड्डियों और मराठों जैसे ही प्रयत्न किये हैं । उन्हें असफल होना ही था, पहले तो इसलिए उत्तर में द्विज बहुत संख्या में हैं और दूसरे इसलिए कि उत्तर की नीची जातियों के बीच संख्या में वे उतने शक्तिशाली नहीं हैं । इसके बावजूद कुछ दब कर प्रयत्न हो ही रहा है । कई मानी में जनतंत्र है संख्या का ही शासन । ऐसे देश में जहाँ समुदायों का संसर्ग जन्म और पुरानी परम्परा के आधार पर होता है , सबसे ज्यादा संख्या वाले समुदाय राजनैतिक और आर्थिक विशेषाधिकार प्राप्त कर ही लेते हैं । संसद और विधायिकाओं के लिए उन्हीं के बीच से उम्मीदवारों का चयन करने के लिए राजनीतिक दल उनके पीछे भागते फिरते हैं । और व्यापार और नौकरियों में अपने हिस्से के लिए ये ही सबसे ज्यादा शोर मचाते हैं । इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होते हैं । सैंकड़ों नीची जातियाँ जो संख्या में प्रत्येक कमजोर हैं, पर सब मिला आबादी का बहुत बड़ा तबका हैं ,निश्चल हो जाती हैं । जाति पर हमले का मतलब होना चाहिए सबकी उन्नति न कि सिर्फ किसी एक तबके की उन्नति । एक ही तबके की उन्नति से जातिप्रथा के अन्दर कुछ रिश्ते परिवर्तित होते हैं , किन्तु जातियों के आधार में कोई बदलाव नहीं आता ।
एक और मानी में भी किसी एक तबके की उन्नति घातक होती है । नीची जातियों के जो लोग ऊँची जगहों पर पहुँच जाते हैंवे मौजूदा ऊँची जातियों में घुल मिल जाना चाहते हैं । इस प्रक्रिया में वे लाजमी तौर पर ऊँची जातियों के दुर्गुण सीख जाते हैं । ऊँची जगह पर पहुँचने के बाद , सभी जानते हैं कि नीची जाति के लोग कैसे अपनी औरतों को परदे में कर देते हैं जो कि उच्च जातियों नहीं होता , बल्कि बिचली उच्च जाति में ही होता है । इसके अलावा, ऊँची उठने वाली नीची जातियाँ द्विज की तरह जनेऊ पहनने लगती हैं ,जिससे वे अब तक वंचित रखे गये , लेकिन जिसे अब सच्ची ऊँची जाति उतारने लगी है । इस तरह की उन्नति से नीची जातियों के बीच कोई गरमी नहीं आती । जो उन्नत हो जाते हैं वे अपने ही समुदाय से अलग हो जाते हैं, अपने ही मूल नीचे समुदायों को गरमाने के बजाय , वे जिन जगहों पर पहुँचते हैं वहां की ही ऊंची जातियों का अंग बन जाने की कोशिश करते हैं । इस उन्नति को अच्छे गुण सीखने या योग्य बनने का टेक नहीं मिलता, बल्कि जाति भड़काने और लड़ाने का भिड़ाने का टेक मिलता है ।
……. औरत , शूद्र , हरिजन,मुसलमान और आदिवासी , समाज के इन ५ दबे हुए समुदायों को , उनकी योग्यता आज जैसी भी हो , उसका लिहाज किए बिना , उन्हें नेतृत्व के स्थानों पर बैठाना इस आन्दोलन का लक्ष्य होगा । योग्यता का प्रेक्षण भी ऐसा होता है कि वह ऊँची जाति के ही पक्ष में जाता है । इतिहास के हजारों बरसों ने जो किया उसे धर्मयुद्ध के द्वारा ही दूर किया जा सकता है । समाज के दबे हुए समुदायों में सभी औरतों को ,द्विज औरतों समेत जो कि उचित ही है , शामिल कर लेने पूरी आबादी में इनका अनुपात ९० प्रतिशत हो जाता है ।
….इस बात बार बार जोर डालना चाहिए कि नीची जातियों के सैंकड़ों , जिन पर अन्यथा ध्यान नहीं जा पाता, उन पर पूर्व नियोजित नीति द्वारा ध्यान देना चाहिए,बनिस्बत उन दो वृहत्काया वालों के जो किसी न किसी तरह ध्यान आकर्षित कर ही लेते हैं ।
…. हिन्दुस्तान की जनता को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं १. द्विज या जनेऊधारी , २. हरिजन या अछूत , और ३. शूद्र ।पहले की जनसंख्या ७ करोड़ के आसपास है, हरिजनों की ५ करोड़ और शूद्रों की १७ करोड़ ।
…द्विज लाख की चोरी करके भी उसे आदर्शवाद का जामा पहना सकता है , जबकि शूद्र अठन्नी-चवन्नी की चोरी में भी बुरी तरह पकड़ा जाता है ।
काफ़ी हाउस में बैठ कर बातें करने वालों में एक दिन मैं भी बैठा था जब किसी ने कहा कि काफ़ी के प्यालों पर होने वाली ऐसी बातचीत ने ही फ्रांस की क्रान्ति को जन्म दिया । मैं गुस्से में उबल पड़ा । हमारे बीच एक भी शूद्र नहीं था । हमारे बीच एक भी औरत न थी । हम सब ढीले ढाले , चुके हुए और निस्तेज लोग थे , कल के खाये चारे की जुगाली करते हुए ढोर की तरह ।
…. देश की सारी राजनीति में – कांग्रेसी , कम्युनिस्ट अथवा समाजवादी चाहे जानबूझ कर अथवा प्रम्परा के द्वारा राष्ट्रीय सहमति का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है , और वह यह कि शूद्र और औरत को , जो कि पूरी आबादी का के तीन चौथाई हैं, दबा कर और राजनीति से अलग रखो ।
जनगणना में जाति की गिनती और विधायिका में महिला आरक्षण की बहस में कितनी औरते और शूद्र शरीक हैं ?
मित्र की किताबों के जैकेट : हुसैन
Posted in कला, communalism, husain, lohia, paintings, tagged रामायण, लोहिया, हुसैन, हैदराबाद, husain, hyderabad, lohia, ramayan on अप्रैल 1, 2010| 2 Comments »
उत्तराखण्ड की किसी वादी में हुसैन नैसर्गिक सौन्दर्य को अपनी पेन्टिंग में उकेर रहे थे । वहीं लोहिया ने उनसे कहा कि हिन्दुस्तान के दिमाग़ पर ऐतिहासिक लोगों से भी ज्यादा असर राम और कृष्ण और शिव का है । राम और कृष्ण तो इतिहास के लोग माने जाते हैं , हों या न हों , यह दूसरे दर्जे का सवाल है। लोहिया ने कहा ,’किसी भी देश की हँसी और सपने ऐसी महान किंवदंतियों में खुदे रहते हैं । हँसी और सपने , इन दो से और कोई चीज बड़ी दुनिया में हुआ नहीं करती है । जब कोई राष्ट्र हँसा करता है तो वह खुश होता है , उसका दिल चौड़ा होता है। और जब कोई राष्ट्र सपने देखता है , तो वह अपने आदर्शों में रंग भर कर किस्से बना लिया करता है ।”
हुसैन ने आठ साल लगा कर रामायण पर पेन्टिंग्स की सिरीज बनाई जिसकी प्रदर्शनी हैदराबाद शहर से सटे देहातों में साईकिल रिक्शों पर सजा कर दिखाई गई । प्रदर्शनी के पूर्व उन्होंने काशी के पंडितों से उनकी बारीकियों पर चर्चा की । यह छठे दशक के शुरुआत की बात है । किसी भी बड़े काम के पहले हुसैन गणेश आँकते हैं । रामायण सिरीज रचना के दौरान कुछ कट्टर मुसलमानों ने हुसैन से पूछा था कि वे इस्लाम की थीम पर क्यों नहीं बनाते ? हुसैन ने उनसे पूछा था कि क्या आप में उतनी सहनशीलता है?
उर्दू रामायण ,राममनोहर और भारतमाता ?
Posted in फोटो Photographs, lohia, tagged उर्दू रामायण, घर, बन्दर, भारतमाता, लोहिया on मार्च 24, 2010| 9 Comments »
बन्दर नहीं बनाते घर ,
घूमा करते इधर-उधर,
आ-कर करते खों-खों-खों
’रोटी हमे न देते क्यों ? ’
भान्जी और बिटिया के बचपन में यह कविता उनके बीच लोकप्रिय थी । बनारस स्टेशन के प्लैटफ़ोर्म की छत पर रात साढ़े ग्यारह बजे यह समूह सो रहा है – एक दूसरे को सहारा और संतुलन देते हुए । इन सैकड़ों लोगों के विस्थापन के पीछे का सच बहुत बड़े परिवर्तन से जुड़ा है । आज-कल बनारस स्टेशन के प्लटफोर्म पर मौजूद सैंकड़ों बन्दर पहले माल गोदाम में बसते थे । बोरियों के छेद से निकले अनाज को ग्रहण करते थे । आज-कल मालगोदाम में अनाज न के बराबर आ रहा है और उनका स्थान ले लिया है सिमेन्ट ने । सिमेन्ट की धूल से भी दिक्कत होती होगी । प्लैटफोर्म पर फल और यात्रियों द्वारा दिए गए अथवा उनसे छीने गया भोजन अभी तक सिमेन्ट नहीं हुआ है ।
उर्दू में लिखी रामायण की गज़लें राम-नवमी के मौके पर गाते हुए यह हैं एक मन्दिर के पुजारी हैं । गर्दन से झूलते , वजनी हारमोनियम का स्थान सिन्थेसाइजर ने ले लिया है ।
राजगुरु , सुखदेव और भगत सिंह को २३ मार्च १९३१ जब फाँसी हुई तब शहीदे आज़म भगत सिंह की उमर २३ वर्ष थी । राममनोहर लोहिया की उमर उसी दिन २१ वर्ष की हुई थी । उनका कोई दोस्त उन्हें जनम दिन के मौके पर दावत देना चाहता था तो वे उससे निवेदन करते ,’ आस-पास की कोई तारीख रख लो ’।
अगस्त क्रान्ति के दौ्र में जयप्रकाश नारायण के साथ उन्हें भी लाहौर के किले में रखा गया । जयप्रकाश को ’ऑगस्ट हीरो’ -या अगस्त क्रान्ति का नायक कहा गया । दोनों ही लाहौर में दी गई यातनाओं का जिक्र नहीं करते थे किन्तु तथ्य यह था कि लगातार ५-७ दिन-रात जगा कर रख उनसे पूछताछ की जाती ।
संवेदनशील पाठकों से अपील है कि इनके बारे में वे बतायें । रघुवीर सहाय जी ने दिनमान के मुखपृष्ट पर छपे चित्र की बाबत पाठकों से ऐसा ही सवाल किया था।
भारतीय शिल्प (२) : राममनोहर लोहिया
Posted in lohia, sculpture, tagged भारतीय शिल्प, मूर्तिकला, लोहिया, शिल्प, dr.lohia, indian sculpture, lohia, ramamanohar, sculpture on जुलाई 23, 2009| 7 Comments »
भाग : एक
मुझे इस प्रसंग में अमरीका के राष्ट्रीय नेताओं की चार मूर्तियों की याद आती है । वे प्रचंड हैं । एक दफ़ा अमरीका में हवाई जहाज से जाते समय उन पुतलों पर से मेरा हवाई जहाज उड़ा । मैंने मेरे हवाई जहाज चालक को फिर से उन मूर्तियों पर से हवाई जहाज लेने को कहा। इच्छा थी कि हो सका तो उन अखंड मूर्तियों की कला का सार जान लूँ । यह कहना संभव है कि वास्तविक दृष्टि से वे मूर्तियाँ भारतीय मूर्तियों की अपेक्षा ज्यादा अच्छी हैं । वे मूर्तियाँ ग्रीक और रोमन शिल्प परम्परा को सम्मान पूर्वक आगे चला रही हैं । लेकिन मैं नहीं कह सकता कि उन मूर्तियों से कुछ संदेश मिलता है या नहीं । हालाँकि उन मूर्तियों की पृष्टभूमि की कथाएं ज्यादा वेधक पद्धति से चित्रांकित करने में उस शिल्प ने सफलता हासिल की है । और वे कथाएं ही एक महान संदेश हैं । मूर्तियाँ केवल चेहरों की हैं । मान लीजिए कि शरीर का उर्वटित हिस्सा यदि बनाया जाता तो ज्यादा से ज्यादा लिंकन और वाशिंग्टन के आगे की ओर उठाए हुए पैरों में अविष्कृत जादू केवल प्रेक्षकों को महसूस होता । ऐसा भी कहना संभव है कि मुझे ही मूर्तियों का मतलब पूरी तरह से मालूम नहीं हुआ । जो कि जल्दी में देखने वालों को महान कृतियाँ अपना रहस्य कभी भी बता नहीं सकतीं । लेकिन मुझे वे अमरीकी मूर्तियाँ प्यारी लगीं । खूबसूरती रेखांकित करने में में व्यक्त हुई प्रतिभा और कारीगरी के कारण वे पुतले भारतीय कलाकृतियों से ज्यादा पसंद आये । भारतीय पुतलों में ऐसी सुन्दरता और ऐसी कारीगरी प्रतीत नहीं होती ।
यद्यपि भारतीय मूर्तिकरण की एक अलग विशेषता है । मूर्ति में मानव की केवल शरीराकृति चित्रित करने पर भारतीय शिल्पाकृति चित्रित करने पर भारतीय शिल्प ज्यादा जोर नहीं देता । भारतीय शिल्प में तो उस व्यक्ति के जीवन और आशय को ज्यादा महत्व दिया गया है । उस व्यक्ति का एकाध भाव अथवा सारे के सारे के भाव शिल्पांकित करने में भारतीय कलाकारों को समाधान नहीं मिलता तो जिस अमूर्त जीवन शक्ति के आधार से उस व्यक्ति को , उसकी पाषाण मूर्ति को या हम सभी को अस्तित्व उपलब्ध होता है वह जिंदापन , वह जीवन शक्ति भारतीय शिल्पों में संक्षिप्त रूप में चित्रित होने का अहसास होता है जिसको देखकर आदमी (मोहित) पागल होता है । शायद ऐसा लगेगा कि सभी भारतीय कलाकार बौद्ध व जैन पंथ के प्रभाव में चले गये और उन्हें हिंदू धर्म के बारे में आस्था नहीं रही । लेकिन ऐसा नहीं हुआ ।
शिवशंकर पर अन्य किसी भी देवता की अपेक्षा भारतीय शिल्पकारों को ज्यादा प्रेम है । शिव के शांत , स्तब्ध व्यक्तित्व ने तत्ववेत्तओं को अधिक सर्वांगीण विचार करने की प्रेरणा दी । उसी तरह शिव के व्यक्तित्व ने शिल्पकारों को शिल्पकला का सम्पन्न रूप ज्यादा पैमाने पर दुनिया के सामने रखा । सातवीं सदी के और उसके बाद काल के शिल्पों में अथवा बारहवीं सदी के और उसके बाद के काल में खजुराहो के शिल्प में शंकर पार्वती के शरीर को लपेटकर और वक्ष:स्थल के नीचे हाथ घेरकर बैठा हुआ है और पार्वती उसके बायीं गोदमें बैठी है । निहायत संतुष्ट अवस्था में वे दोनों बैठे दिखाई देते हैं । काल निश्चल खड़ा है । कालगति पर नियंत्रण रखनी की चाह कहीं भी दिखाई नहीं देती । क्षय अनन्त है । भविष्यकाल अपने पीछे दौड़े ऐसी उत्कंठा वर्तमान काल में नहीं दिखायी देती । भूतकाल को भी चिंता नहीं है । तत्काल स्वयंपूर्ण होती है और अपने अस्तित्व का औचित्य स्वयं ही बताती है । तत्काल कृति एक निस्तब्ध कृति है । अचर का चर कर्म । क्या आदमी अपने व्यवहार में तात्कालिकता का यह तत्व अमल में ला सकता है ? कहना मुश्किल है । शिल्पकार द्वारा खोदा गया शिव का सनातन व्यक्तित्व मात्र आदमी को उस दिशा की ओर गति दिखाता है । अगले क्षण के बारे में आदमी की उत्सुकता शायद पूरी तरह से कभी भी खत्म नहीं होगी । लेकिन वर्तमान काल में स्वयं को काफ़ी उलझाकर , उससे ज्यादा से ज्यादा फल प्राप्त करना उससे संभव हो सकता है।
शिव के असीम व्यक्तित्व के कारण भारतीय शिल्पकारों को हिंदुओं का धर्म सम्बन्धी चिन्तन श्रेष्ठ और संपन्न रूप में और संक्षिप्त रीति से व्यक्त करना संभव हुआ । धारापुरी के आठवीं सदी के और नौवीं व सोलहवीं सदी के चितुर की गुफाओं में शिव की तीन विभिन्न रूप की मोहक मूर्तियाँ हैं । एक ध्यानमग्न दूसरी रौद्र और तीसरी लारयुक्त । शिल्पकारों ने शिव का एक भी रूप चित्रित करने से बहीं छोड़ा । तन्हाई में महान और प्रसिद्ध तांडवनृत्य शिव करता है । उस शिल्प में शिव की निश्चलता में चलता , और चलता में निश्चलता प्रत्यक्षकारक है । सिंह और भेड़ को एक जगह रखने जैसा बुद्धि का अगम्य चमत्कार उस मूर्ति में शिल्पित
किया है । आधे हिस्से में स्त्री और आधे हिस्से में पुरुष ,अर्धाँग शंकर वह अर्ध नारी नटेश्वर का रूप सर्वोच्च और सजीव जैसे सभी भेद मिटाने वाला सृजन लगता है ।
भारतीय शिल्प : राममनोहर लोहिया
Posted in शिल्प, lohia, sculpture, tagged बुद्ध, भारतीय शिल्प, महावीर, लोहिया, शिल्प, indian sculpture, lohia, sculpture on जुलाई 20, 2009| 9 Comments »
इतिहास के ग्रन्थों का कभी ना कभी नाश होना अटल है । यह जान कर ही शायद भारतीय जनता ने अनंत काल तक प्रचलन में रहने वाली कथा कहानियों के माध्यम से इतिहास बनाया है। इतिहास को क्रोध आया । उसने बदला लिया और सबसे ज्यादा समय तक अभंग रहने वाले पाषाणों पर उसने अपनी आत्मा खोदकर रखी । भारतीय धर्म ने भी अपनी कथा पाषाणों पर ही चित्रित की है ।
भारतीयों का धर्म जैसे जैसे उत्कर्ष तक पहुंचने लगा वैसे वैसे उसका रूप अधिकाधिक सत्वहीन और चिंतनहीन बनता गया । पाषाण जैसी सबसे भारी चीज पर जब भारत का धर्म ज्यादा पैमाने पर खोदा जा रहा था , उसी समय चिंतन में खोखलापन बढ़ रहा था । दुनिया के किसी भी अन्य देश ने अपनी आत्मा के इतिहास को और अपने इतिहास की आत्मा को भारत के समान पत्थर पर खोदकर लुभावनी शकल नहीं दी होगी । एक तरफ इतिहास और धर्म विषयक चिंतन में स्मिता और वहीं दूसरी तरफ धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं के काल्पनिक चित्रों में श्वास रोकने वाली लगभग चिरंतन सुन्दरता ।
भगवान बुद्ध व महावीर न जाने वास्तव में कैसे दिखाई देते थे । मगर उनकी मृत्यु के के करीबन ३ सौ साल बीत जाने के बाद जिन शिल्पकारों ने उनकी मूर्तियाँ खोदीं , उन्होंने उन मूर्तियों में महापुरुषों की शिक्षा का मर्म इस तरह साकार किया है कि वे गोया सजीव प्रतीत होती हैं । कई तरह के रूपों में बुद्ध और महावीर को मूर्तियों में चित्रित किया गया है । कहीं चिंतन मग्न तो कहीं करुणा निधि , कहीं अभय मुद्रा में तो कहीं विकारों पर विजय प्राप्त किये हुए । जिस तरह हाथों और पैरों पर ठोंकी हुई कीलों की एक ही शकल में ईसा मसीह का स्वरूप दिखाई देता है वैसे बुद्ध और महावीर की मूर्तियों का नहीं । भारतीय शिल्पकारों ने उनका एक ही एक रूप चित्रित करने का बन्धन नहीं स्वीकारा। अपनी इच्छा के अनुसार अपने आराध्य देवता का चित्र रेखांकित करने की आजादी युरोपीय चित्रकारों को होगी । लेकिन शिल्पकारों को नहीं होगी भारतीय शिल्पकार ही इस सम्बन्ध में पूर्णतया स्वतंत्र मालूम होते हैं ।
बुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ अनेक रूपों में होने पर भी उन सभी की आस्था व शिल्पशैली एक जैसी है । सभी मूर्तियाँ किसी एक्च ही शिल्पकार ने नहीं खोदीं हैं । कितने भी महान शिल्पकार के लिए यह असंभव था । पीढ़ी पीढियों के अथक परिश्रमों का वह फल है । तो भी बुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ एक जैसी दिखती हैं ऐसा शायद ही कोई कह सकता है ।
बुद्ध की प्रतिमा में बुद्ध निश्चिंत दिखाई देते हैं तो महावीर की मुद्रा एक तरह से तंग दिखाई देती है । दोनों की मूर्तियाँ देखने पर लगता है कि मानव को उपलब्ध होने वाली श्रेष्ठ विजय दोनों को प्राप्त हुई है । मगर विजीत बुद्ध मुद्रा पर निश्चिंतता है तो विजयी महावीर का चेहरा जो तंग है । इन धर्म प्रवर्तकों की सीख समझाने का जो काम बड़े बड़े ग्रन्थ और धर्म प्रबन्ध कर नहीं पाये , वह काम इन शिल्पकारों ने अपने धर्म पुरुषों की प्रतिमाएं खोदकर अत्यधिक संक्षिप्त लेकिन साफ साफ तय किया है ।
सारनाथ उसी तरह मथुरा , नालंदा , अजंता , वेरूळ के महान बुद्ध की मूर्ति के चेहरे पर सब जगह प्रसन्न विजेता का भाव मालूम होता है । श्रवण बेळगोळा में महावीर परम्परा के बाहुबली की एक बहुत ही प्रचंड मूर्ति है । जो कि दुनिया की सबसे प्रचंड मूर्ति है । विजयी बाहुबली की मुद्रा पर अन्यत्र के समान यहां भी आत्मनिग्रह प्रतीत होता है ।उस मुद्रा की तरह ही लगता है कि यह मुद्रा गोया हमें कहती है कि आदमी कभी भी स्वयं पर अति विजय नहीं पा सकता । मन के बैल को पकड़ने में सफलता मिल जाने के बाद भी उसे अनिर्बंध नहीं छोड़ना चाहिए । जैन धर्म और उसके अनुयायिओं की , विशेष रूप से जैन मुनियों कीकठोर व्रत साधना उस धर्म के कट्टर पंथ की एवं निरंतर दक्षता वृत्ति की साख है । बुद्ध का ऐसा नहीं है । बुद्ध मूर्ति देखने पर ऐसा लगता है कि विजय प्राप्ति के बाद भी विजय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लगेगा ऐसी मनोदशा प्राप्त करना संभव है । यहाँ यह सवाल ही नहीं उपस्थित होता कि दोनों में से कौन सी प्रवृत्ति ठीक है । जो कि दोनों धर्म पंथों का आगे चलकर अध:पतन ही हुआ है । कौन अधिक अच्छा था यह सवाल भी अप्रस्तुत है । चूंकि कहा जा सकता है कि मानवीय दृष्टि से बुद्ध ज्यादा योग्य था तो ऐसा भी कहना संभव है कि तार्किक दृष्टि से महावीर ज्यादा ठीक थे । मैं यहाँ केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि शिल्पकारों ने उन दोनों की विचार प्रणाली को उनकी शरीराकृतियों के और मुद्राओं के माध्यम के द्वारा उत्तम रीति से पाषाणांकित की है ।
( जारी )