रुको
कविता रुको
समाज, सामाजिकता रुको
रुको जन, रुको मन।
रुको सोच
सौंदर्य रुको
ठीक इस क्षण इस पल
इस वक्त उठना है
हाथ में लेना है झाड़ू
करनी है सफाई
दराजों की दीवारों की
रसोई गुसल आँगन की
दरवाजों की
कथन रुको
विवेचन रुको
कविता से जीवन बेहतर
जीना ही कविता
फतवों रुको हुंकारों रुको।
इस क्षण
धोने हैं बर्त्तन
उफ्, शीतल जल,
नहीं ठंडा पानी कहो
कहो हताशा तकलीफ
वक्त गुजरना
थकान बोरियत कहो
रुको प्रयोग
प्रयोगवादिता रुको
इस वक्त
ठीक इस वक्त
बनना है
आदमी जैसा आदमी।
(इतवारी पत्रिकाः ३ मार्च १९९७)
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स्केच
एक इंसान रो रहा है
औरत है
लेटर बाक्स पर
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
बिलख रही है
टेढ़ी काया की निचली ओर
दिखता है स्तनों का उभार
औरत है
औरत है
दिखता है स्तनों का उभार
टेढ़ी काया की निचली ओर
बिलख रही है
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
लेटर बाक्स पर
औरत है
एक इंसान रो रहा है
(पश्यंती १९९५)
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खबर
जाड़े की शाम
कमरा ठंडा ठ न् डा
इस वक्त यही खबर है
– हालाँकि समाचार का टाइम हो गया है
कुछेक खबरें पढ़ी जा चुकी हैं
और नीली आँखों वाली ऐश्वर्य का ब्रेक हुआ है
है खबर अँधेरे की भी
काँच के पार जो और भी ठंडा
थोड़ी देर पहले अँधेरे से लौटा हूँ
डर के साथ छोड़ आया उसे दरवाजे पर
यहाँ खबर प्रकाश की जिसमें शून्य है
जिसमें हैं चिंताएं, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ
अकेलेपन का कायर सुख
और बेचैनी……..
……..इसी वक्त प्यार की खबर सुनने की
सुनने की खबर साँस, प्यास और आस की
कितनी देर से हम अपनी
खबर सुनने को बेचैन हैं।
(इतवारी पत्रिका – ३ मार्च १९९७)
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बकवास
कुछ पन्ने बकवास के लिए होते हैं
जो कुछ भी उन पर लिखा बकवास है
वैसे कुछ भी लिखा बकवास हो सकता है
बकवास करते हुए आदमी
बकवास पर सोच रहा हो सकता है
क्या पाकिस्तान में जो हो रहा है
वह बकवास है
हिंदुस्तान में क्या उससे कम बकवास है
क्या यह बकवास है
कि मैं बीच मैदान हिंदुस्तान और पाकिस्तान की
धोतियाँ खोलना चाहता हूँ
निहायत ही अगंभीर मुद्रा में
मेरा गंभीर मित्र हँस कर कहता है
सब बकवास है
बकवास ही सही
मुझे लिखना है कि
लोगों ने बहुत बकवास सुना है
युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो
हम लोगों ने बहुत बकवास सुना है
और यह बकवास नहीं कि
हम और बकवास नहीं सुनेंगे।
(पश्यंतीः अक्तूबर-दिसंबर २०००)
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दिखना
आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं?
अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो?
बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में
कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?
कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है
जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है
बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है
इंसान खाते हुए दिखता है
आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ
वैसे आदम किस को दिखता है !
देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है
मुझे कहना है दिखने के बारे में
यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं
जब आप सबसे कम दिख रहे हों।
–पहल-७६ (२००४)
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एक और रात
दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है
उसे रातें गुजारने की आदत हो गई है
रात की मक्खियाँ रात की धूल
नाक कान में से घुस जिस्म की सैर करती हैं
पास से गुजरते अनजान पथिक
सदियों से उनके पैरों की आवाज गूँजती है
मस्तिष्क की शिराओं में।
उससे भी पहले जब रातें बनीं थीं
गूँजती होंगीं ये आवाजें।
उससे भी पहले से आदत पड़ी होगी
भूखी रातों की।
(पश्यंतीः – अक्तूबर-दिसंबर २०००; पाठ २००९)
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सखीकथा
हर रोज बतियाती सलोनी सखी
हर रोज समझाती दीवानी सखी
गीतों में मनके पिरोती सखी
सपनों में पलकें भिगोती सखी
नाचती है गाती इठलाती सखी
सुबह सुबह आग में जल जाती सखी
पानी की आग है
या तेल की है आग
झुलसी है चमड़ी
या फंदा या झाग
देखती हूँ आइने में खड़ी है सखी
सखी बन जाऊँ तो पूरी है सखी
न बतियाना समझाना, न मनके पिरोना
न गाना, इठलाना, न पलकें भिगोना
सखी मेरी सखी हाड़ मास मूर्त्त
निगल गई दुनिया
निष्ठुर और धूर्त्त।
(पश्यंती; अप्रैल-जून २००१)
———————– लाल्टू .

लाल्टू की अभिव्यक्ति
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