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Posts Tagged ‘द्रोह का दायित्व’

सक्रिय निष्ठा और और सक्रिय द्रोह के मध्य कोई बीच का रास्ता नहीं हुआ करता है । ‘ यदि किसी व्यक्ति को खुद को मनमुटाव का दोषी न होना साबित करना है तो उसे अपने को सक्रिय रूप से स्नेही साबित करना होगा ।’-मरहूम न्यायमूर्ति स्टीफन की इस टिप्पणी में काफ़ी सच्चाई है । लोकतंत्र के इस जमाने में किसी व्यक्ति के प्रति निष्ठा का प्रश्न नहीं उठता। इसके बजाए अब आप संस्थाओं के प्रति निष्ठावान या द्रोही होते हैं । इस प्रकार जब आप आज के जमाने में द्रोह करते हैं तब किसी व्यक्ति का नहीं संस्था का नाश चाह रहे होते हैं । जो मौजूदा राज्य-व्यवस्था को समझ सके हैं  वह जानते हैं कि यह कत्तई निष्ठा उत्पन्न करने वाली संस्था नहीं है । वह भ्रष्ट है । लोगों के व्यवहार को निर्धारित करने के लिए उसके द्वारा बनाए गए कई कानून निश्चित तौर पर अमानवीय हैं । राज्य व्यवस्था के प्रशासन की स्थिति बदतर है । अक्सर एक व्यक्ति की इच्छा कानून बन जाया करती है । यह आराम से कहा जा सकता है कि हमारे देश में जितने जिले हैं उतने शासक हैं। ये शासक कलक्टर कहे जाते हैं तथा इन्हें कार्यपालिका और न्यायिक कार्य करने के अधिकार एक साथ मिले हुए हैं । यूँ तो यह माना जाता है कि इनके कार्य कानूनों से संचालित होते हैं जो अपने आप में अत्यधिक दोषपूर्ण होते हैं । अक्सर ये शासक स्वेच्छाचारी होते हैं तथा अपनी सनक के अलावा इन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता । अपने परदेशी आकाओं अथवा मालिकों के सिवा वे किसी के हित का प्रतिनिधित्व नहीं करते । इन करीब तीन सौ लोगों ने लगभग गुप्त-सा एक संघ बना लिया है जो दुनिया में सबसे ताकतवर है । यह अपेक्षा की जाती है कि एक न्यूनतम राजस्व वे हासिल करें , इसीलिए जनता से व्यवहार में अक्सर वे अनैतिक हो जाते हैं । सरकार की यह व्यवस्था ऐलानिया असंख्य भारतवासियों के निर्दय शोषण पर आधारित है । गाँवों के मुखिया से लगायत इन क्षत्रपों के निजी सहायकों तक इन्होंने मातहतों का एक वर्ग तैयार कर रखा है , जो अपने विदेशी मालिकों के समक्ष घिघियाता है जबकि जनता के प्रति उनका रोजमर्रा का व्यवहार इतना गैर जिम्मेदाराना और कठोर होता है कि उनका मनोबल गिर जाए तथा एक आतंकी व्यवस्था द्वारा जनता भ्रष्टाचार का प्रतिकार करने के काबिल न रह जाए । भारत सरकार की इस भयानक बुराई की जिन्होंने शिनाख्त कर ली है उनका यह दायित्व है कि वे इसके प्रति द्रोह करने का जोर-शोर से प्रचार करें । ऐसे भ्रष्ट राज्यतंत्र के प्रति भक्ति प्रकट करना एक पाप है , द्रोह एक सद्गुण है ।

इन तीन सौ लोगों के आतंक के साये में संत्रस्त तीस करोड़ लोगों का तमाशा  निरंकुश शासकों तथा उनके शिकार दोनों के प्रति समान तौर पर मनोबल गिराने वाली बात है । इस व्यवस्था की बुराई को जो समझ चुके हैं उन्हें इसे बिना देर नष्ट करने में लग जाना चाहिए भले ही बिना सन्दर्भ देखने पर इसकी कुछ विशिष्टतायें आकर्षक प्रतीत हों । ऐसे लोगों का यह स्पष्ट दायित्व है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे हर जोखिम उठायें ।

परन्तु यह भी साथ-साथ स्पष्ट रहे कि इस व्यवस्था के इन तीन सौ संचालकों और प्रशासकों को नष्ट करने की मंशा यदि यह तीस करोड़ लोग पाल लेते हैं तो वह कायरता होगी । इन प्रशासकों तथा उनके भाड़े के टट्टूओं को खत्म करने की युक्ति निकालना घोर अज्ञान का द्योतक होगा । इसके अलावा यह भी जान लेना चाहिए कि प्रशासकों का यह तबका परिस्थितिजन्य कठपुतलियां हैं । इस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला सर्वाधिक निष्कलुष व्यक्ति भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता तथा इस बुराई के  दुष्प्रचार का औजार बन जाता है । इसलिए  स्वभावत: इस व्याधि का इलाज प्रशासकों के प्रति क्रुद्ध होकर उन्हें  चोट पहुंचाकर नहीं होगा अपितु व्यवस्था से समस्त -संभव ऐच्छिक सहयोग वापस लेकर एवं कथित लाभ लेने से इनकार द्वारा अहिंसक असहयोग से होगा । तनिक विचार द्वारा हम पायेंगे कि सिविल नाफ़रमानी असहयोग का अनिवार्य हिस्सा है । आदेशों और फ़रमानों का पालन कर हम किसी भी प्रशासन का सर्वाधिक कारगर ढंग  से सहयोग करते हैं । कोई भी अनिष्टकर प्रशासन ऐसी साझेदारी का कत्तई पात्र नहीं होता । इससे वफ़ादारी का मतलब पाप का भागी होना होता है । इसीलिए हर अच्छा व्यक्ति ऐसी बुरी व्यवस्था या प्रशासन का अपनी पूरी आत्मा से प्रतिकार करेगा । किसी बुरे राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों की नाफ़रमानी इसलिए दायित्व बन जाता है । हिंसक नाफ़रमानी का साबका उन लोगों से होता है जिनका स्थान अन्य कोई ले सकता है । हिंसक नाफ़रमानी द्वारा पाप अछूता रह जाता है तथा अक्सर उसे बल मिलता है । जो खुद को इस बुराई से जुदा रखना चाहते हैं उनके लिए अहिंसक यानी सिविल नाफ़रमानी एक मात्र तथा सबसे कारगर इलाज है तथा यह करना उनका फर्ज है ।

बतौर इलाज सिविल नाफ़रमानी अब तक आंशिक तौर पर आजमाया हुआ उपाय ही है , यह ही इसका खतरा भी है चूंकि हिंसाग्रस्त वातावरण में ही इसका प्रयोग किया जाना चाहिए ।  जब अबाध तानाशाही फैली हुई होती है तब उससे पीडित जनता में क्रोध पैदा होता है। पीडितों की कमजोरी के कारण यह क्रोध अव्यक्त रहता है किन्तु मामूली बहाने से ही इसका विस्फोट पूर्ण उन्माद के साथ होता है । सिविल नाफ़रमानी इस गैर-अनुशासित , जीवन-नाशक छिपी उर्जा को अचूक सफलता वाली अनुशासित ,जीवन-रक्षक उर्जा में रूपान्तरित करने का राम-बाण उपाय  है । सफलता के वादे के कारण इस प्रक्रिया में निहित जोखिम उठाना कुछ भी नुकसानदेह नहीं है । उड्डयन के विज्ञान का विकास एक ऊंचा स्तर हासिल कर चुकने के बावजूद जब दुनिया सिविल नाफ़रमानी के इस्तेमाल की आदी हो जाएगी तथा जब इसके सफल प्रयोगों की शृंखला बन चुकी होगी तब इसमें उड्डयन से भी कम जोखिम रह जाएगा ।

यंग इंडिया , २७-३-’३० , पृ. १०८

( मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अफ़लातून )

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