फिजूलखर्ची और विलास
फिजूल खर्च या विलासी खर्च दिखाई देता है , उसका हिसाब किया जा सकता है । रिश्वत , गबन , सार्वजनिक धन की चोरी आदि के लिए विशेष प्रकार के अनुसन्धान और प्रमाणों की जरूरत होती है । भारत जैस गरीब या पिछड़े देशों में भ्रष्टाचार की शुरुआत फिजूल खर्च और विलासी खर्च से होती है । शायद यह बात सारे मानव समाज के लिए सही होगी , लेकिन इस वक्त हम सिर्फ़ एशिया और अफ़्रीका के देशों के लिए यह समाजशास्त्रीय – अर्थशास्त्रीय नियम बता रहे हैं कि जैसे – जैसे इन समाजों में आर्थिक गैर-बराबरियाँ , खासकर जीवन स्तर की गैर-बराबरियाँ बढ़ती जाएँगी , सामाजिक भ्रष्टाचार की मात्रा भी बढ़ती जाएगी । अगर आज के चीन में माओ के जमाने के चीन के मुकाबले में अधिक भ्रष्टाचार है तो कारण यह है कि आज का चीन गैर-बराबरियों को प्रोत्साहित कर रहा है । इन समाजों में एक विचित्र विरोधाभास है – इनकी अर्थनीति जितने किस्म के आराम और विलास का सामान निजी उपभोग के लिए उत्पादन या आयात की इजाजत दे रही है , वह किसके लिए ? सरकारी गजटी अफ़सर , विधायक , जज या मंत्रियों की जो तनख्वाह है या वकील , डॉक्टरों की आय पर जो टैक्स की व्यवस्था है , उस आय के अन्दर पाँच सितारा होटल , वातानुकूलित मकान आदि का उपभोग कैसे हो सकता है ? वेतनमान और बाजार में स्पष्ट विरोधाभास है । विलासिता – बाजार का यह दबाव है कि लोग अपने वेतनमान से दो गुना – दस गुना अधिक उपार्जन करें । विलासिता के बाजार को बन्द कर देना , कम-से-कम बीस साल के लिए विलास की सामग्रियों को समाज और बाजार से बहिष्कृत कर देना – एशिया और अफ़्रीका के देशों में भ्रष्टाचार से मुक्ति का एकमात्र तरीका है । इसके बगैर सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक अनुशासन की परम्परा विकासशील देशों में बन नहीं पाएगी । औपनिवेशिक काल में यह अनुशासन खतम हो गया था । पुन: विकास के काल में इन समाजों को स्वस्थ बनाने के लिए सबसे पहले आर्थिक अनुशासन की जरूरत होगी ।
खर्च पर टैक्स लगाने से खर्च रुकेगा नहीं । किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि खर्च पर टैक्स लगाने का विचार एक प्रगतिशील विचार है । जनसाधारण को गुमराह करने के लिए बीच – बीच में इस प्रकार की चर्चाएँ चलाई जाती हैं । औपनिवेशिक प्रभाव वाले समाज में खर्च रोकने का एक ही तरीका है कि खर्चीले सामान को समाज और बाजार से बहिष्कृत कर दो । यह एक आर्थिक नीति होगी , लेकिन यह सचमुच एक सामाजिक नीति है जो राजनीति , संस्कृति , अर्थव्यवस्था – हर क्षेत्र को सशक्त ढंग से प्रभावित करेगी । इस नीति को कारगर बनाने के लिए एक नई संस्कृति का प्रचार आवश्यक होगा । रूस और चीन में खर्च पर काफ़ी रोक लगाई गई थी , क्रान्ति के बाद के अरसे में उनका जो भी विकास हुआ उसके पीछे खर्च रोकने की नीति का एक मौलिक योगदान है । शास्त्र और ग्रंथ लिखनेवालों ने अभी तक इसको महत्व नहीं दिया है । कम्युनिस्टों ने इस नीति को दीर्घकाल तक स्थायी बनाने के लिए कोई संस्कृति पैदा नहीं । मार्क्स ने एक नई मानव-सभ्यता का वायदा किया था , एक नई संस्कृति होगी जिसमें मनुष्य की प्रवृत्तियाँ भी बुर्जुआ समाज के मनुष्य से भिन्न होंगी । कम्युनिस्टों ने ऐसी संस्कृति बनाने की दिशा में कोई प्रयास भी नहीं किया । वे भौतिकवाद के दबाव में आकर अमरीकी नागरिक को आदर्श मानने लगे ।रूस के बाद अब चीन भी कहता है कि हम इतने साल के अन्दर अमरीका के समकक्ष हो जाएँगे । जो आर्थिक बराबरी क्रान्ति के फलस्वरूप आई थी उसको भी नष्ट करने में रूस और चीन लगे हुए हैं ; क्योंकि एक नया जीवन दर्शन , एक नई संस्कृति का निर्माण वे कर नहीं सके ।
( जारी , अगला भाग : प्रशासनिक सुधार )
यह भी देखें : राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक