मुख्यधारा की राजनीति में तब्दीली लाने की कल्पना कई अराजनीतिक समूह और चुनाव आयोग भी कर लिया करते हैं । खुद राजनीति का हिस्सा न होने के कारण इन जमातों और संस्थाओं में लोकतंत्र और राजनीति की बाबत बुनियादी समझदारी का अभाव अक्सर दिखाई देता है । चुनाव आयोग द्वारा सुधारों की प्रतिमूर्ति के रूप में अब भी याद किए जाने वाले शेषन की भोंडी महत्वाकांक्षा शिव सेना के समर्थन से राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने में प्रकट हुई थी । भोंडी इसलिए कि नारायण साहब के लिए बन रही सुन्दर सर्वसम्मति में यह दखल थी । पांच राज्यों में हुए हालिया चुनावों के दौरान केन्द्रीय मंत्रियों के साथ आयोग की नोंकझोंक को भी जरूरत से ज्यादा तूल दिया गया । इन सभी ने अपनी सफाई दी और यह सभी मामले वापिस भी ले लिए गए हैं ।
बहुदलीय – संसदीय – लोकतंत्र में सुधार की चर्चा अक्सर उन समूहों के द्वारा उठाई जाती है जो स्वयं प्रत्यक्षरूप से इस खेल के खिलाड़ी नहीं होते हैं। जनता इस खेल की सीधे तौर पर भागीदार होती है । टीम अण्णा ने जनता से सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने का आवाहन किया था । वाराणसी जिले में डेढ़ सौ लोगों ने इस औजार का इस्तेमाल किया । लोकतंत्र के स्वच्छ करने के लिए टीम अण्णा के आवाहन पर चलने वाले इन डेढ़ सौ लोगों में से एक सौ तीन मेरे विधान सभा क्षेत्र के मतदाता थे । बाकी के तिरालिस वाराणसी के अन्य सात विधान सभा क्षेत्रों के थे । सभी प्रत्याशियों को अस्वीकृत करने वाले मतों से ज्यादा मत शायद हर प्रत्याशी पायेगा ।
चुनावों में ‘कीमत अदा की गई खबरों ‘ को रोकने के लिए इस बार आयोग ने जिला – स्तर पर निगरानी समितियां बनाई थीं । एडिटर्स गिल्ड , प्रेस परिषद् जैसी संस्थाओं ने भी ऐसी खबरों पर चिंता व्यक्त की थी । इस बार इन कदमों से अखबारों द्वारा प्रत्याशियों से की जानी वाली कमाई पर कुछ अंकुश जरूर लगा परंतु ‘ब्लैक आउट ‘ न किए जाने के लिए मुख्य अखबारों ने उम्मीदवारों से २५ हजार रुपये लिए । घूस न देने वालों को इसका खामियाजा भुगतना ही था । इस मामले में चुनाव प्रेक्षकों की समझ सबसे हास्यास्पद थी । चनाव-खर्च में प्रेस विज्ञप्ति फोटोस्टेट कराने के खर्च को देखकर एक खर्च-प्रेक्षक चौंक उठा । उसने कहा ,’प्रेस विज्ञप्ति क्यों जारी करते हो? यह ‘पेड़ न्यूज ‘ तो नहीं ?’ राजनीति के बारे में सामान्य समझ के अभाव वाली चुनाव मशीनरी , राजनीति से असम्पृक्त और राजनीति-विरोधी समाज सुधारक और मुख्यधारा की राजनीति अलग-अलग खाचों में बंटे हुए हैं ,इसलिए यथास्थिति में तबदीली की आशा नहीं की जा सकती है । चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने वाले दल चुनाव – सुधार का एजेंडा अपनाएं यह जरूरी हो गया है |
मतदान का प्रतिशत बढ़ने को लेकर आयोग अपनी पीठ ठोंक कर प्रसन्न है । नए परिसीमन के बाद हुए पहले विधान सभा चुनावों में कितने नागरिक मतदान केन्द्रों से बिना वोट दिए निराश लौटे इसका अंदाज लगाने की चिंता चुनाव आयोग को नहीं है । आयोग द्वारा जारी मतदाता परिचय पत्र लिए यह नागरिक जब मतदाता सूची से अपना नाम ‘विलोपित’ पाते हैं तब उनपर क्या गुजराती है ,सोचिए । उत्तर प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारी की वेबसाईट दावा है कि इस वेबसाईट पर मतदाता अपना नाम ,परिचय पत्र संख्या से खोज सकते हैं। इस वेबसाईट पर सितम्बर २०११ को प्रकाशित सूची है जबकि चुनाव जनवरी २०१२ को प्रकाशित सूची से कराए गए । इस चूक के कारण ऐसे मतदाता जिन्हें इंटरनेट से मतदाता पर्ची मिली परंतु मूल सूची से वे ‘विलोपित’ थे , मताधिकार से वंचित रहे । पूरे राज्य में मतदाता सूची में सुधार के लिए भरे जाने वाले फार्म इंटरनेट पर चढाने काम निजी कम्पनियों को दिया गया था और वे इसे नहीं कर सकीं । सुधार बीस दिसंबर २०११ तक किए जाने थे । इसके सप्ताह-भर पहले से ही जिले मुख्य निर्वाचन अधिकारी की वेबसाईट से जुड़ ही नहीं पा रहे थे । नए मतदाताओं के नाम चढ़े लेकिन पूरे प्रांत में मतदाता सूची में सुधार न हो सका ।
मुख्य चुनाव आयुक्त ने यह याद दिलाया है कि चुनाव आचार संहिता राजनैतिक दलों की सहमती से ही बनी थी | मौजूदा क़ानून में दलों द्वारा किए गए चुनाव खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं है | ऐसे में प्रत्याशी के खर्च की सीमा होना मजाक हो जाता है | व्यक्तिगत खर्च सीमा से बहुत कम खर्च करने वाले प्रत्याशियों को भी एक पखवारे के प्रचार अभियान में तीन बार प्रेक्षकों के समक्ष खर्च का हिसाब देने के लिए अपने चुनाव एजेंट को भेजना पड़ता है | चुनाव आयोग चाहे तो इस एक पखवारे के लिए हर प्रत्याशी को लेखा-जोखा रखने का प्रशिक्षण प्राप्त हिसाबनवीस मुहैया करा सकता है | सरकार द्वारा चुनाव खर्च किए जाने के आदर्श को हासिल करने की दिशा में यह पहला कदम हो सकता है |