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Archive for the ‘corruption’ Category

सक्रिय निष्ठा और और सक्रिय द्रोह के मध्य कोई बीच का रास्ता नहीं हुआ करता है । ‘ यदि किसी व्यक्ति को खुद को मनमुटाव का दोषी न होना साबित करना है तो उसे अपने को सक्रिय रूप से स्नेही साबित करना होगा ।’-मरहूम न्यायमूर्ति स्टीफन की इस टिप्पणी में काफ़ी सच्चाई है । लोकतंत्र के इस जमाने में किसी व्यक्ति के प्रति निष्ठा का प्रश्न नहीं उठता। इसके बजाए अब आप संस्थाओं के प्रति निष्ठावान या द्रोही होते हैं । इस प्रकार जब आप आज के जमाने में द्रोह करते हैं तब किसी व्यक्ति का नहीं संस्था का नाश चाह रहे होते हैं । जो मौजूदा राज्य-व्यवस्था को समझ सके हैं  वह जानते हैं कि यह कत्तई निष्ठा उत्पन्न करने वाली संस्था नहीं है । वह भ्रष्ट है । लोगों के व्यवहार को निर्धारित करने के लिए उसके द्वारा बनाए गए कई कानून निश्चित तौर पर अमानवीय हैं । राज्य व्यवस्था के प्रशासन की स्थिति बदतर है । अक्सर एक व्यक्ति की इच्छा कानून बन जाया करती है । यह आराम से कहा जा सकता है कि हमारे देश में जितने जिले हैं उतने शासक हैं। ये शासक कलक्टर कहे जाते हैं तथा इन्हें कार्यपालिका और न्यायिक कार्य करने के अधिकार एक साथ मिले हुए हैं । यूँ तो यह माना जाता है कि इनके कार्य कानूनों से संचालित होते हैं जो अपने आप में अत्यधिक दोषपूर्ण होते हैं । अक्सर ये शासक स्वेच्छाचारी होते हैं तथा अपनी सनक के अलावा इन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता । अपने परदेशी आकाओं अथवा मालिकों के सिवा वे किसी के हित का प्रतिनिधित्व नहीं करते । इन करीब तीन सौ लोगों ने लगभग गुप्त-सा एक संघ बना लिया है जो दुनिया में सबसे ताकतवर है । यह अपेक्षा की जाती है कि एक न्यूनतम राजस्व वे हासिल करें , इसीलिए जनता से व्यवहार में अक्सर वे अनैतिक हो जाते हैं । सरकार की यह व्यवस्था ऐलानिया असंख्य भारतवासियों के निर्दय शोषण पर आधारित है । गाँवों के मुखिया से लगायत इन क्षत्रपों के निजी सहायकों तक इन्होंने मातहतों का एक वर्ग तैयार कर रखा है , जो अपने विदेशी मालिकों के समक्ष घिघियाता है जबकि जनता के प्रति उनका रोजमर्रा का व्यवहार इतना गैर जिम्मेदाराना और कठोर होता है कि उनका मनोबल गिर जाए तथा एक आतंकी व्यवस्था द्वारा जनता भ्रष्टाचार का प्रतिकार करने के काबिल न रह जाए । भारत सरकार की इस भयानक बुराई की जिन्होंने शिनाख्त कर ली है उनका यह दायित्व है कि वे इसके प्रति द्रोह करने का जोर-शोर से प्रचार करें । ऐसे भ्रष्ट राज्यतंत्र के प्रति भक्ति प्रकट करना एक पाप है , द्रोह एक सद्गुण है ।

इन तीन सौ लोगों के आतंक के साये में संत्रस्त तीस करोड़ लोगों का तमाशा  निरंकुश शासकों तथा उनके शिकार दोनों के प्रति समान तौर पर मनोबल गिराने वाली बात है । इस व्यवस्था की बुराई को जो समझ चुके हैं उन्हें इसे बिना देर नष्ट करने में लग जाना चाहिए भले ही बिना सन्दर्भ देखने पर इसकी कुछ विशिष्टतायें आकर्षक प्रतीत हों । ऐसे लोगों का यह स्पष्ट दायित्व है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे हर जोखिम उठायें ।

परन्तु यह भी साथ-साथ स्पष्ट रहे कि इस व्यवस्था के इन तीन सौ संचालकों और प्रशासकों को नष्ट करने की मंशा यदि यह तीस करोड़ लोग पाल लेते हैं तो वह कायरता होगी । इन प्रशासकों तथा उनके भाड़े के टट्टूओं को खत्म करने की युक्ति निकालना घोर अज्ञान का द्योतक होगा । इसके अलावा यह भी जान लेना चाहिए कि प्रशासकों का यह तबका परिस्थितिजन्य कठपुतलियां हैं । इस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला सर्वाधिक निष्कलुष व्यक्ति भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता तथा इस बुराई के  दुष्प्रचार का औजार बन जाता है । इसलिए  स्वभावत: इस व्याधि का इलाज प्रशासकों के प्रति क्रुद्ध होकर उन्हें  चोट पहुंचाकर नहीं होगा अपितु व्यवस्था से समस्त -संभव ऐच्छिक सहयोग वापस लेकर एवं कथित लाभ लेने से इनकार द्वारा अहिंसक असहयोग से होगा । तनिक विचार द्वारा हम पायेंगे कि सिविल नाफ़रमानी असहयोग का अनिवार्य हिस्सा है । आदेशों और फ़रमानों का पालन कर हम किसी भी प्रशासन का सर्वाधिक कारगर ढंग  से सहयोग करते हैं । कोई भी अनिष्टकर प्रशासन ऐसी साझेदारी का कत्तई पात्र नहीं होता । इससे वफ़ादारी का मतलब पाप का भागी होना होता है । इसीलिए हर अच्छा व्यक्ति ऐसी बुरी व्यवस्था या प्रशासन का अपनी पूरी आत्मा से प्रतिकार करेगा । किसी बुरे राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों की नाफ़रमानी इसलिए दायित्व बन जाता है । हिंसक नाफ़रमानी का साबका उन लोगों से होता है जिनका स्थान अन्य कोई ले सकता है । हिंसक नाफ़रमानी द्वारा पाप अछूता रह जाता है तथा अक्सर उसे बल मिलता है । जो खुद को इस बुराई से जुदा रखना चाहते हैं उनके लिए अहिंसक यानी सिविल नाफ़रमानी एक मात्र तथा सबसे कारगर इलाज है तथा यह करना उनका फर्ज है ।

बतौर इलाज सिविल नाफ़रमानी अब तक आंशिक तौर पर आजमाया हुआ उपाय ही है , यह ही इसका खतरा भी है चूंकि हिंसाग्रस्त वातावरण में ही इसका प्रयोग किया जाना चाहिए ।  जब अबाध तानाशाही फैली हुई होती है तब उससे पीडित जनता में क्रोध पैदा होता है। पीडितों की कमजोरी के कारण यह क्रोध अव्यक्त रहता है किन्तु मामूली बहाने से ही इसका विस्फोट पूर्ण उन्माद के साथ होता है । सिविल नाफ़रमानी इस गैर-अनुशासित , जीवन-नाशक छिपी उर्जा को अचूक सफलता वाली अनुशासित ,जीवन-रक्षक उर्जा में रूपान्तरित करने का राम-बाण उपाय  है । सफलता के वादे के कारण इस प्रक्रिया में निहित जोखिम उठाना कुछ भी नुकसानदेह नहीं है । उड्डयन के विज्ञान का विकास एक ऊंचा स्तर हासिल कर चुकने के बावजूद जब दुनिया सिविल नाफ़रमानी के इस्तेमाल की आदी हो जाएगी तथा जब इसके सफल प्रयोगों की शृंखला बन चुकी होगी तब इसमें उड्डयन से भी कम जोखिम रह जाएगा ।

यंग इंडिया , २७-३-’३० , पृ. १०८

( मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अफ़लातून )

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पिछले भाग : एक , दो , तीन , चार

दृढ़ इच्छा के साथ समाधान ढूँढने पर सैकड़ों तरीके निकल सकते हैं लेकिन इस वक्त आम आदमी के अलावा दूसरा कोई समूह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए आतुर नहीं है । आम आदमी की आतुरता असहायता में व्यक्त होती है । राजनेता या बुद्धिजीवी समूह अगर आतुर होगा तो उससे उपाय निकलेगा । इस बढ़ते हुए अन्धविश्वास को खतम करना होगा कि भ्रष्टाचार विकास का एक अनिवार्य नतीजा है । विकासशील देशों के सारे अर्थशास्त्री इस अन्धविश्वास के शिकार बन चुके हैं कि मूल्यवृद्धि विकास के लिए जरूरी है । अब भ्रष्टाचार के बारे में इस प्रकार की धारणा बनती जा  रही है । बुद्धिजीवियों की चुप्पी से लगता है वे इसको सिद्धान्त के रूप में मान लेंगे । जवाहरलाल विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ईश्वरी प्रसाद का कहना है कि विश्व बैंक अपनी रपट और विश्लेषण आदि में इस प्रकार की टिप्पणी करने लगा है कि लोग टैक्स चोरी , रि्श्वत , तस्करी आदि को नैतिकता का सवाल न बनायें , इनको व्यापारिक कुशलता जैसा गुण समझें । विश्व बैंक के साथ विकाशील देशों के प्रतिभासम्पन्न अर्थशास्त्रियों का एक खास सम्बन्ध रहता है । विकासशील देशों के अर्वश्रेष्ठ समाजशास्त्रियों , अर्थशास्त्रियों को विश्वबैंक , अमरीका आदि की संस्थायें बड़ी- बड़ी नौकरियाँ देती हैं । विकासशील देशों के बारे में पश्चिम के विद्वान जिस प्रकार का शास्त्र बनाना चाहते हैं , उसी के अनुकूल निबन्ध और शोध लिखनेवालों को वे प्रोत्साहित करना चाहते हैं । इसलिए जाने-अनजाने विकासशील देशों के विद्वान उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने लगते हैं जो पश्चिम के विद्वानों के मनमुताबिक हों । इस तरह हमारे सर्वश्रेष्ठ विद्वानों के अन्दर भ्रष्ताचार फैला हुआ है । राष्ट्र का मस्तिष्क भ्रष्टाचार का शिकार बनता जा रहा है ।

( स्रोत – सामयिक वार्ता , फरवरी , १९८८ )

आगे : भ्रष्टाचार की बुनियाद कहाँ है ?

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पिछले भाग : एक , दो , तीन

प्रशासनिक सुधार

प्रशासनिक सुधार भ्रष्टाचार रोकने के लिए दूसरे नम्बर पर आता है । फिर भी अगर मौलिक ढंग का सुधार हो तो काफी असरदार हो सकता है । राज्य मूलरूप से एक दण्ड व्यवस्था और सुरक्षा व्यवस्था है । जहाँ दण्ड और सुरक्षा विश्वसनीय नहीं रह जाती हैं वहाँ राज्य और उसके अनुशासन के प्रति आस्था कमजोर हो जाती है । अदालतों के द्वारा सजा देना दण्ड का स्थूल हिस्सा है । राज्य के प्रशासक अपना दायित्व निर्वाह करें और उसमें असफलता के लिए उत्तरदायी रहें – यह असल चीज है । आजादी के बाद के भारत में प्रशासकों का उत्तरदायित्व खतम हो गया है , जो प्रशासक एक विदेशी मालिक के सामने भय से जवाबदेही का निर्वाह करते थे , वे खुद अपने लिए शासन के नियम आदि बनाने लगे । आजादी के बाद प्रशासन का नया नियम बनाना इन्हीं पर छोड़ दिया गया और उन्होंने इस प्रकार का एक नौकरशाही का एक ढाँचा बनाया जिसमें जवाबदेही की कोई गुंजाइश ही नहीं है । कोई ईमारत या पुल या बाँध बनाया है और बनने के एक साल बाद ढह जाता है – ऐसी घटनायें सैकड़ों होती रहती हैं । उसकी जवाबदेही के बारे में सर्वसाधारण को कुछ मालूम नहीं रहता है । इस प्रकार की असफलता या लापरवाही के लिए कोई प्रतिकार भारतीय शासन व्यवस्था में नहीं है । जन साधारण के प्रति प्रशासक कभी भी जवाबदेह नहीं रहता है ।गुलामी के दिनों में अपने विदेशी मालिकों के प्रति भारतीय प्रशासकों की जितनी वफ़ादारी थी , अपने देश के जनसाधारण के प्रति अगर उसकी आधी भी रहती तो भ्रष्टाचार का एक स्तर खत्म हो जाता । लोकतंत्र में केवल राजनेता प्रशासकों को जवाबदेह नहीं बना सकता है क्योंकि लोकतंत्र में राजनेता और प्रशासन का गठबंधन भी हो जाता है । जनसाधारण को अधिकार रहे कि उसको सही समय पर , सही ढंग से कानून के मुताबिक प्रशासन मिले । अगर कोई पेंशन का हकदार है और अवकाश लेने के बाद दो साल तक उसको पेंशन नहीं मिलती है; किसानों को जल आपूर्ति नहीं हो रही है और उनसे सालों से जल कर लिया जा रहा है ; किसी का बकाया सरकार पर है और सालों बाद उसे बिना सूद वापस मिलता है – ये सारी हास्यास्पद घटनायें रोज लाखों लोगों के साथ होती रहती हैं । इसलिए आम आदमी के लिए लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है । विकसित देशों में लोकतंत्र हो या तानाशाही , आम आदमी इतना असहाय नहीं रहता है । इसका सम्पर्क लोकतंत्र या तानाशाही से नहीं है बल्कि प्रशासन प्रणाली से है । प्रशासन के स्तर पर किस प्रकार के सुधार भ्रष्टाचार निरोधक होंगे , उसके और कुछ उदाहरण हम नीचे दे रहे हैं ।

पुलिस , मिनिस्टर , जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । किसी अपराध में १०० रु. का जुरमाना है या दस दिन की सजा होनी है , उसके लिए २५ बार वकील को फीस देनी पड़ती है , छह महीने जेल में रहना पड़ता है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । अगर सिर्फ एक सुधार हो जाए कि न्यायालय में एक निश्चित समय के अन्दर फैसला होगा तो देर होने की वजह से होनेवाले भ्रष्टाचार में दो तिहाई कमी आ जाएगी । यदि जजों की संख्या दस गुनी भी अधिक कर दी जाए, तब भी राष्ट्र का कोई आर्थिक नुकसान नहीं होगा क्योंकि जिस समाज में न्याय होगा उसकी उपार्जन-क्षमता भी बढ़ जाती है ।

तबादला या ट्रांसफ़र प्रशासनिक भ्रष्टाचार का एक प्रमुख स्तम्भ है । तबादला कराने और रोकने के लिए बाबू से लेकर मंत्री तक सब रिश्वत लेते-देते हैं । तबादले की प्रथा ही एक औपनिवेशिक प्रथा है । प्रशासकों को जन विरोधी बनाने के लिए विदेशी शासकों ने इसका प्रचलन किया था । तबादला सिर्फ पदोन्नति या अवनति के मौके पर होना चाहिए । मध्यम और नीचे स्तर के कर्मचारियों की नियुक्ति यथासम्भव उनके गाँव के पास होनी चाहिए । अगर नियुक्ति गलत जगह पर नहीं हुई है तो तबादला दस साल के पहले नहीं होना चाहिए । बड़े अफ़सरों की नियुक्ति जहाँ भी हो , लम्बे समय तक होनी चाहिए ताकि उनके कार्यों का परिणाम देखा जा सके । अधिकांश निर्णय नीचे के कर्मचारियों और पंचायत जैसी इकाइयों के हाथ में होना चाहिए ताकि निर्णय की जिम्मेदारी ठहराई जा सके । गुलामी के दिनों में जब कलक्टर और पुलिस अफ़सर भी अंग्रेज होते थे , गोरे लोग ही हर निर्णय पर अपना अन्तिम हस्ताक्षर करते थे – यही प्रथा अब भी चालू है । मामूली बातों से लेकर गंभीर मामलों के हरेक विषय के लिए निर्णय की इतनी सीढ़ियाँ हैं कि गलत निर्णय की जिम्मेदारी नहीं ठहराई जा सकती है ।

पिछले वर्षों में योग्य नौजवानों का समूह रिश्वत देनेवाला बन गया है । प्रथम श्रेणी में एम.एससी पास करने के बाद सप्लाई इन्स्पेक्टर की नौकरी पाने के लिए मंत्री और दलाल को रुपए देने पड़ते हैं । रिश्वत की रकम अक्सर बँधी रहती है | रोजगार के अधिकार को सांवैधानिक अधिकार बनाकर इस रिश्वत को खतम किया जा सकता है । बेरोजगारी का भत्ता इसके साथ जुड़ा हुआ विषय है । इसकी माँग एक लम्बे अरसे से देश के नौजवानों की ओर से की जा रही है , फिर भी योजना आयोग या विश्वविद्यालयों की ओर से अभी तक एक अध्ययन नहीं हुआ कि इसके अच्छे या बुरे परिणाम क्या होंगे , सरकार पर इसका कितना बोझ पड़ेगा इत्यादि । नौजवानों को भ्रष्टाचार का शिकार होने देना और बेकारी भत्ते को सांवैधानिक बनाकर सरकारी खर्च बढ़ाना – इसमें से कौन बुराई कम हानिकारक है ? हो सकता है कि दोनों के परे कोई रास्ता दिखाई दे ।

[ अगला भाग : विकास और मूल्यवृद्धि ]

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पिछले भाग :  एक , दो

फिजूलखर्ची और विलास

फिजूल खर्च या विलासी खर्च दिखाई देता है , उसका हिसाब किया जा सकता है । रिश्वत , गबन , सार्वजनिक धन की चोरी आदि के लिए विशेष प्रकार के अनुसन्धान और प्रमाणों की जरूरत होती है । भारत जैस गरीब या पिछड़े देशों में भ्रष्टाचार की शुरुआत फिजूल खर्च और विलासी खर्च से होती है । शायद यह बात सारे मानव समाज के लिए सही होगी , लेकिन इस वक्त हम सिर्फ़ एशिया और अफ़्रीका के देशों के लिए यह समाजशास्त्रीय – अर्थशास्त्रीय नियम बता रहे हैं कि जैसे – जैसे इन समाजों में आर्थिक गैर-बराबरियाँ , खासकर जीवन स्तर की गैर-बराबरियाँ बढ़ती जाएँगी , सामाजिक भ्रष्टाचार की मात्रा भी बढ़ती जाएगी । अगर आज के चीन में माओ के जमाने के चीन के मुकाबले में अधिक भ्रष्टाचार है तो कारण यह है कि आज का चीन गैर-बराबरियों को प्रोत्साहित कर रहा है । इन समाजों में एक विचित्र विरोधाभास है – इनकी अर्थनीति जितने किस्म के आराम और विलास का सामान निजी उपभोग के लिए उत्पादन या आयात की इजाजत दे रही है , वह किसके लिए ? सरकारी गजटी अफ़सर , विधायक , जज या मंत्रियों की जो तनख्वाह है या वकील , डॉक्टरों की आय पर जो टैक्स की व्यवस्था है , उस आय के अन्दर पाँच सितारा होटल ,  वातानुकूलित मकान आदि का उपभोग कैसे हो सकता है ? वेतनमान और बाजार में स्पष्ट विरोधाभास है । विलासिता – बाजार का यह दबाव है कि लोग अपने वेतनमान से दो गुना – दस गुना अधिक उपार्जन करें । विलासिता के बाजार को बन्द कर देना , कम-से-कम बीस साल के लिए विलास की सामग्रियों को समाज और बाजार से बहिष्कृत कर देना – एशिया और अफ़्रीका के देशों में भ्रष्टाचार से मुक्ति का एकमात्र तरीका है । इसके बगैर सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक अनुशासन की परम्परा विकासशील देशों में बन नहीं पाएगी । औपनिवेशिक काल में यह अनुशासन खतम हो गया था । पुन: विकास के काल में इन समाजों को स्वस्थ बनाने के लिए सबसे पहले आर्थिक अनुशासन की जरूरत होगी ।

खर्च पर टैक्स लगाने से खर्च रुकेगा नहीं । किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि खर्च पर टैक्स लगाने का विचार एक प्रगतिशील विचार है । जनसाधारण को गुमराह करने के लिए बीच – बीच में इस प्रकार की चर्चाएँ चलाई जाती हैं । औपनिवेशिक प्रभाव वाले समाज में खर्च रोकने का एक ही तरीका है कि खर्चीले सामान को समाज और बाजार से बहिष्कृत कर दो । यह एक आर्थिक नीति होगी , लेकिन यह सचमुच एक सामाजिक नीति है जो राजनीति , संस्कृति , अर्थव्यवस्था – हर क्षेत्र को सशक्त ढंग से प्रभावित करेगी । इस नीति को कारगर बनाने के लिए एक नई संस्कृति का प्रचार आवश्यक होगा । रूस और चीन में खर्च पर काफ़ी रोक लगाई गई थी , क्रान्ति के बाद के अरसे में उनका जो भी विकास हुआ उसके पीछे खर्च रोकने की नीति का एक मौलिक योगदान है । शास्त्र और ग्रंथ लिखनेवालों ने अभी तक इसको महत्व नहीं दिया है । कम्युनिस्टों ने इस नीति को दीर्घकाल तक स्थायी बनाने के लिए कोई संस्कृति पैदा नहीं । मार्क्स ने एक नई मानव-सभ्यता का वायदा किया था , एक नई संस्कृति होगी जिसमें मनुष्य की प्रवृत्तियाँ भी बुर्जुआ समाज के मनुष्य से भिन्न होंगी । कम्युनिस्टों ने ऐसी संस्कृति बनाने की दिशा में  कोई प्रयास भी नहीं किया । वे भौतिकवाद के दबाव में आकर अमरीकी नागरिक को आदर्श मानने लगे ।रूस के बाद अब चीन भी कहता है कि हम इतने साल के अन्दर अमरीका के समकक्ष हो जाएँगे । जो आर्थिक बराबरी क्रान्ति के फलस्वरूप आई थी उसको भी नष्ट करने में रूस और चीन लगे हुए हैं ; क्योंकि एक नया जीवन दर्शन , एक नई संस्कृति का निर्माण वे कर नहीं सके ।

( जारी , अगला भाग : प्रशासनिक सुधार )

यह भी देखें : राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक

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राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार

राजनैतिक और आर्थिक दोनों क्षेत्रों में अवरोध पैदा करनेवाले इस सामाजिक रोग का निदान और प्रतिकार ढूँढ़ने का कोई गम्भीर प्रयास न होना मौजूदा भारतीय स्थिति का एक स्वाभाविक पहलू है । बुद्धिजीवी और राजनेता , दोनों एक सर्वग्रासी जड़ता के शिकार हैं । भ्रष्टाचार का मुद्दा पिछले कई महीनों से भारतीय राजनीति का सबसे गरम मुद्दा बना हुआ है । राजीव गांधी की गद्दी हिल गई है । इस मुद्दे को हथियार बनाकर सारा विपक्ष चुनाव लड़ेगा । लेकिन किसी दल की ओर से यह नहीं बताया जाता है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उसके पास क्या कार्यक्रम है ? कम्युनिस्ट राजनेता और बुद्धिजीवी यह कहकर छुटकारा पा लेते हैं कि क्रांति के द्वारा भ्रष्टाचार का उन्मूलन हो जायेगा ।यह उस तरह की बात है जैसे कुछ लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए तानाशाही चाहिए ।

जब कम्युनिस्ट चीन को भी भ्रष्टाचार बढ़ने की चिन्ता होने लगी और भारत में क्रांति होने के पहले ही कम्युनिस्टों ने राज्यों की सरकार सँभालने के लिए रणनीति बनाई है तो कम्युनिस्ट प्रवक्ताओं को भी क्रांति की सपाट बात न कहकर अधिक ब्यौरे में जाकर इस प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा ।

जब तक भ्रष्टाचार के सामाजिक – आर्थिक कारणों के बारे में समझ पैदा नहीं होगी , तब तक यह सिद्धान्त प्रचलित रहेगा कि शासकों के व्यक्तिगत चरित्र को उन्नत करना ही भ्रष्टाचार निरोध का निर्णायक उपाय है । यही वजह है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए जाँच और छापे मारने की कार्रवाइयों के अलावा दूसरे उपाय भी हो सकते हैं , यह बात लोगों के दिमाग में नहीं आती ।

सबसे पहले यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार का कारण न व्यक्ति है , न विकास है । अगर विकास के ढाँचे में भ्रष्टाचार का बढ़ना अनिवार्य है तो तो वह फिर विकास ही नहीं है । मनुष्य स्वभाव की विचित्रता में बुराइयाँ भी हैं , कमजोरियाँ भी हैं । मनुष्य स्वभाव में जिस मात्रा में बुराई होती है वह तो मनुष्य समाज में रहेंगी ही । उस पर नियंत्रण रखने के लिए सभ्यता में धर्म , संस्कृति , राज्यव्यवस्था आदि की उत्पत्ति हुई है । अगर उन पर नियंत्रण नहीं रह पाया तो धर्म , संस्कृति , राज्य, अर्थव्यवस्था – हरेक पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा । अगर प्रशासन और अर्थव्यवस्था सही है तो समाज में भ्रष्ट आचरण की मात्रा नियंत्रित रहेगी । उससे राज्य को कोई खतरा नहीं होगा । उतना भ्रष्टाचार प्रत्येक समाज में स्वाभाविक रूप से रहेगा । परंतु जब प्रशासन और अर्थव्यवस्था असंतुलित है और सांस्कृतिक परिवेश भी प्रतिकूल है तब भ्रष्टाचार की मात्रा इतनी अधिक हो जाएगी  कि वह नियंत्रण के बाहर होगा , उससे जनजीवन और राज्य दोनों के लिए खतरा पैदा हो जाएगा । इसी अर्थ में हम कहते हैं कि विकसित देशों में भ्रष्टाचार की समस्या नगण्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि वहाँ भ्रष्टाचार की घटनायें नहीं होती हैं । उन देशों में भ्रष्टाचार राज्य और समाज के इतने नियंत्रण में है कि उसकी मात्रा खतरे की सीमा से ऊपर नहीं जाती ।

यह भी समझना चाहिए कि बड़ा’ और ’छोटा’ भ्रष्टाचार एक जैसा नहीं होता है ।जनसाधारण को यह सिखाया गया है कि छोटा चोर और बड़ा चोर दोनों एक हैं । कानून में भी वे दोनों एक नहीं हैं । भ्रष्टाचार की जिस घटना से राज्य और मानव समाज को अधिक हानि पहुँचती है उसे अक्षम्य अपराध माना जाना चाहिए । सत्ता में प्रतिष्ठित व्यक्तियों का भ्रष्टाचार अधिक हानिकारक होता है । रक्षक का भक्षक होना अधिक जघन्य है । सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्तियों के गलत तौर- तरीकों को नीचेवाले लोग सहज ढंग से अपनाते हैं । इसीलिए नीचे के स्तर का भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत कम दोषवाला होगा । इस आपेक्षिक दृष्टि को बगैर अपनाये हम भ्रष्टाचार की जड़ तक नहीं पहुँच पाएँगे । १९६२ में राममनोहर लोहिया ने जब यह सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री पर इतना अधिक तामझाम , फिजूल खर्च क्यों होता है ? तब देश के राजनेताओं ने और बुद्धिजीवियों ने इस सवाल को अप्रासंगिक मानकर या तो मखौल उड़ाया या चुप्पी साध ली ।मंत्रियों का खर्च और उनकी नकल करने वालों का खर्च इस दरमियान बढ़ गया । वर्तमान प्रधा्नमंत्री का फिजूल खर्च तो इतना बढ़ गया है कि अखबारवाले भी ताना कस रहे हैं । जो लोग लोहिया के आरोपों को बकवास या द्वेषपूर्ण कहते थे इस वर्ग के लोग भी प्रधामंत्री , मंत्रियों और सांसदों की फिजूलखर्ची से चिन्तित हैं । लोहिया ने उन्हीं दिनों कहा था कि सर्वोच्च पद पर बैठे हुए आदमी का फिजू्ल खर्च तथा भोग-विलास पूरे समाज को भ्रष्ट बनाता है । अगर उसको हटाया नहीं गया तो उसके सहयोगियों में , नौकरशाहों में भोगवृत्ति बढ़ जाएगी ।

( जारी ,अगला भाग – फिजूलखर्ची और विलास) पिछला भाग (१) , सम्बन्धित आलेख (राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक )

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आजादी के बाद से सबसे अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है । गरीबी , बेरोजगारी , महँगाई , सीमा सुरक्षा या क्रिकेट से भी अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है । देश का कोई भी वर्ग नहीं है जो इससे विचलित नहीं है। फिर भी हमारे बुद्धिजीवियों ने इसको एक खोज का विषय , सामाजिक चिन्तन का विषय नहीं बनाया। जानकार व्यक्तियों से हमने पूछा कि इस विषय पर लिखी गई किसी किताब का नाम बताएँ । उन्होंने कहा कि ऐसी कोई किताब नहीं है जो भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसके कारण तथा प्रतिकार से सम्बन्धित हो। एक-दो किताबें हैं ( ज्यादा भी हो सकती है ) जिनमें भ्रष्टाचार की घटनाओं का विवरण है ; विभिन्न जाँच आयोगों की रपटों पर यह किताबें आधारित हैं । प्रशासनिक सुधार के उद्देश्य से एक संथानम आयोग नियुक्त हुआ था । प्रशासनिक दायरे में लिखी गई यह रिपोर्ट अभी तक भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में सर्वाधिक प्रसिद्ध दस्तावेज है । इसी तरह बाद के दिनों की बोहरा कमेटी की रिपोर्ट है ।

भारत पर लिखने वाले विदेशी बुद्धिजीवियों को हमने ढूँढ़ा तो एक दशक पहले लिखा गया स्वीडेन के अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल (अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता) का विशाल ग्रंथ एशियन ड्रामा मिला । दक्षिण एशिया के राष्ट्रों की गरीबी और उसके कारणों को समझने के लिए ग्रंथ लिखा गया था । मिर्डल को हम यह श्रेय देते हैं कि भ्रष्टाचार की समस्या पर उन्होंने एक स्वतंत्र अध्याय लिखा है ( अध्याय २० , भाग – २)। मिर्डल ने भी यह टिप्पणी की है कि भारत पर लिखनेवाले देशी-विदेशी बुद्धिजीवियों ने इस समस्या पर चिन्तन या विश्लेषण की कोई किताब नहीं लिखी है ।

इस कमी का का जो भी कारण मिर्डल की समझ में आया हो , हमारे लिए इसका एक कारण बहुत स्पष्ट है । भारतीय बुद्धिजीवियों ने नहीं लिखा है तो उसकी एक वजह यह है कि पश्चिमी बुधिजीवियों ने अभी तक भ्रष्टाचार की समस्या को एक विषय नहीं बनाया है और इस विषय पर सोचने का कोई तरीका पेश नहीं किया है। न ही किसी विदेशी संस्था ने इस विषय पर अनुसंधान के लिए अनुदान दिया है । इन दिनों भारतीय अनुसंधान का विषय काफ़ी हद तक अनुदान देनेवाली विदेशी संस्थाओं द्वारा निर्धारित होता है । जहाँ तक विदेशी बुधिजीवियों द्वारा किताब न लिखने का सवाल है , आजकल विदेशी बुद्धिजीवियों का जो हिस्सा एशिया के देशों पर किताब लिखता है , वह उच्च कोटि का नहीं होता । इन विदेशी बुद्धिजीवियों की दृष्टि में एशिया के लोग पश्चिम के लोगों से घटिया होते हैं , इसलिए भ्रष्टाचार जैसी चीजें उनके लिए स्वाभाविक हैं, पारम्परिक हैं । ये लोग ’विकास’ को एक विशेष अर्थ में समझते हैं ,और इस विकास के चलते अगर महँगाई , बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ बढ़ने लगती हैं तो उन्हें विकास के लिए आवश्यक भी मानते हैं । (मनमोहन सिंह द्वारा हाल ही में लोक सभा में ’विकास’ बनाम मंहगाई और भ्रष्टाचार की बाबत  ऐसी बकवास किए जाने को सुनकर किशनजी के इन शब्दों को मैंने बोल्ड किया है – अफ़लातून। )

इस प्रकार के विदेशी बुद्धिजीवियों के मुकाबले में काफ़ी ऊँचे दरजे का विचारक होने के बावजूद मिर्डल की दृष्टि बहुत साफ़ नहीं है , एक स्थान पर वह कहता है कि एशिया के देशों में भ्रष्टाचार की एक परम्परा है, इसी अध्याय के दूसरे स्थान पर कहता है कि यूरोप के देशों में काफ़ी पहले इस पर काबू पा लिया गया है । ऐसी मान्यता के कारण मिर्डल कोई समाधान नहीं सुझा पाता । लेकिन उसने भ्रष्टाचार को एक मौलिक समस्या का दरजा दिया है क्योंकि एशिया के देशों में रजनैतिक हलचल का और गद्दी पलटने का सबसे बड़ा मुद्दा यही है । यह तानाशाही के मार्ग को भी प्रशस्त करता है , आर्थिक क्षेत्र में भी इसका दुष्परिणाम निर्णायक होता है , विकास की योजनाओं का कार्यान्वयन सम्भव नहीं हो पाता है। ( जारी , अगला हिस्सा- राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार ).( यह भी देखें : राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक )

 

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