राजन की कविता पहले पहल तो पर्चे में छपी थी.’किताबों की एक अनिश्चितकालीन बन्दी’ के दौरान.पर्चे की सहयोग राशि थी २० पैसे.मेरे झोले में करीब बत्तीस रुपए सिक्कों में थे जब उस पर्चे को बेचते हुए मैं गिरफ़्तार हुआ था.चूंकि विश्वविद्यालय के तत्कालीन संकट के लिहाज से यह ‘समाचार’ था इसलिए समाचार – पत्रिका ‘माया’ ने इसे एक अलग बॊक्स में,सन्दर्भ सहित छापा.’माया’ में वैसे कविता नहीं छपती थी.
राजन ने यह कविता समता युवजन सभा के अपने साथियों को समर्पित की थी . राजेन्द्र राजन किशन पटनायक के सम्पादकत्व मे छपने वाली ‘सामयिक वार्ता’ के सम्पादन से लम्बे समय तक जुडे रहे.आजकल ‘जनसत्ता’ के सम्पादकीय विभाग में हैं. ‘समकालीन साहित्य ‘ , ‘हंस’ आदि में राजन की कवितांए छपी हैं . छात्र राजनीति से जुडी एक जमात ने यह कविता पर्चे और पोस्टर (हाथ से बने ,छपे नहीं ) द्वारा प्रसारित की.उस जमात का छात्र -राजनीति की मुख्यधारा से कैसा नाता होगा,इसका अंदाज लगाया जा सकता है .
बहरहाल, पिछली प्रविष्टि में स्थापना दिवस पर गांधी जी के भाषण का जिक्र किया था.गांधी जी के चुनिन्दा भाषणों मे गिनती होती है ,उस भाषण की .वाइसरॊय लॊर्ड हार्डिंग के आगमन की तैय्यारी में शहर के चप्पे – चप्पे में खूफ़िया तंत्र के बिछाये गये जाल ,विश्वनाथ मन्दिर की गली की गन्दगी से आदि का भी गांधी जी ने उल्लेख किया था .यहां उच्च शिक्षण की बाबत जो उल्लेख आया था,उसे दे रहा हूं :
“मैं आशा करता हूं कि यह विश्वविद्यालय इस बात का प्रबन्ध करेगा कि जो युवक – युवतियां यहां पढने आवें , उन्हें उनकी मतृभाषाओं के जरिए शिक्षा मिले.हमारी भाषा हमारा अपना प्रतिबिम्ब होती है . और अगर आप कहें कि भाषांए उत्तम विचारों को प्रकट करने में असमर्थ हैं ,तो मैं कहूंगा कि जितनी जल्दी इस दुनिया से हमारा अस्तित्व मिट जाए उतना ही अच्छा होगा . क्या यहां एक भी ऐसा आदमी है ,जो यह सपना देखता हो कि अंग्रेजी कभी हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा बन सकती है? (‘कभी नहीं’ की आवाजें ) राष्ट्र पर यह विदेशी माध्यम का बोझ किस लिए ? एक क्षण के लिए तो सोचिए कि हमारे लडकों को हर अंग्रेज लडके के साथ कैसी असमान दौड दौडनी पडती है . “