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Archive for the ‘भ्रष्टाचार’ Category

फेसबुक पर वीरेंद्र यादव , अशोक कुमार पांडे  और मैंने प्रशांत भूषण द्वारा हिमाचल प्रदेश में सरकार द्वारा दी गई इजाजत से खरीदी गई जमीन पर चर्चा की है  |हिमाचल में अन्य राज्यों के नागरिक बिना सरकारी अनुमति के भूमि नहीं ले सकते | सामाजिक काम के नाम पर वहां की भाजपा सरकार ‘संघ’ को भी भूमि मुहैया कराती है | वरिष्ट कवि लाल्टू ने इस मुद्दे पर प्रशांत भूषण के हक़ में विचार रखे हैं |खबर यह है :

Prashant Bhushan’s society bought tea garden land
Tribune News Service

Dharamsala, December 23
A close aide of Anna Hazare, Prashant Bhushan, bought 4-68-28 hectares (122 kanals) of tea garden land in the Palampur area in the name of an educational society.

The information came in response to a question raised by the Congress MLA from Baijnath, Sudhir Sharma, in the Himachal Assembly today.

Sharma had sought details from the government regarding the number of permissions given by the present government under Section 118 of the Land Tenancy Act to purchase tea gardens in the state during a period extending from 2008 to November 2011.

While replying to the query Minister for Revenue Ghulab Singh informed the House that just one permission, to buy tea garden land, had been given during the said period. He said the Kumud Bhushan Educational Society, Kandbari, through Prashant Bhushan, son of Shanti Bhushan, resident of Noida, had been given permission to buy 4-68-28 hectares of tea garden land.

The sale and conversion of status of tea garden land in Himachal is strictly prohibited under the revenue laws. The status of tea garden lands, most of which are located in Kangra district, cannot be changed without permission from the state government

  • Tajendra Rajorallike this.

    Yesterday at 09:49 · Like
  • Aamir SiddiquiYe sirf avsarwaad ka example he… BJP apna avsar sidha karegi, aur punjipati apna…. Aam janta sirf billio ki ladaai me har baar bandar baat me thagi jaati he… .. .

    23 hours ago · Like · 3
  • Manish Yadaviska jawab IAC unhi niymon ka hawaalaa dekar karegi jin niyamon ko wo kachra bata rahi hai.Waise inka record khud ke bhrastaachaar par behas hote hi ye gaali galauj par utar jaate hain

    23 hours ago · Like · 1
  • Ajai Kumar MishraYadav Ji Himachal mein Prashant Bhushan Jaise garib? ko chay Bagan ke loye jamin nahin milegi to kya kisi aur ko milegi.

    23 hours ago · Like · 1
  • Syed Sarwar HussainYe Avsarvadi log he, en logo ko desh se koi lena dena nahi he, ye v dusre neta ki hi tarah hame thagne pe aamada he…

    23 hours ago · Like · 1
  • Rochéan Éttshearing

    23 hours ago · Like · 1
  • Cdr Chandra ShekharMujhe nahin pata tha ki slum men bhi itane christians hain ki vahan Christmas manaya jaye.

    22 hours ago · Like
  • Tahira HasanNow people who were supporting this protest and converted it in movement and then kranti should come out with reasonable answer that how come corrupt team can fight against corruption. corporate media should be made accountable why they pay no attention to protes like irom sharmila she has been on fast for decades why indiffrences by media and people of self appointed civil society and ofcourse government is really very shameful.

    21 hours ago · Like · 1
  • Shobhaakar ShameekNow it is prooved that all this game is sponsered by BJP & RSS to push the nation in anarchy & bring fascism.They all are fully exposed now.

    20 hours ago · Like · 1
  • Sarita Kapoorlike this

    20 hours ago · Like
  • Shobhaakar ShameekThere is no electronic media in our country ,there are only TV channels which will not rethink.Those are paid.

    20 hours ago · Like · 1
  • Anurag Kumaryah bhrastachar kahan hai , yah to gift hai , jiska sur kutch aisa hai ‘ TU MUJHE UTHA , MAIN TUJHE UTHAUN ‘ .

    19 hours ago · Like · 1
  • Virendra Yadavध्यान देने की बात यह भी है कि मीडिया ने भी इस जानकारी को चर्चा केबाहर रखा है .आज दिल्ली में सभी चैनलों ने प्रशंत्भूशण की प्रेस कांफेरेंस का सीधा प्रसारण किया लेकिन किसी ने भी इस बाबत कोई भी सवाल नहीं पूछा . मीडिया की इस मेहबानी को भी दर्ज किया जाना चाहिए .

    16 hours ago · Like
  • Neetu Rawatvirendra ji ko dhanyavad is khabar ko sajha karne keliye…..kaun kya kar raha ha ye jante hue bhi chup rahna bhi bhrashtachar hai….aur yaha to milijuli kahani chal rahi hai…..

    13 hours ago · Like · 1
  • Singh KshamaIf team anna is corrupt…they sud b punished….jo lokpal ayega..wahi unhe bhi jail le jayega…to lokpal ka aana aur bhi jaruri hai.

    13 hours ago · Like
  • Shobhaakar Shameekkya lokpal aane tak in logon ko loot ki choot rahe?

    13 hours ago via · Like · 1
  • Arun Etv Lkolike this

    12 hours ago · Like
  • Singh KshamaMr. shameek … wo kisi aur k corruption ko utha rhe hain..aap unke corruption ko uthayen..aise desh ka kuch to bhala hoga..

    12 hours ago · Like
  • Shuchita Srivastavabilkul sahi kha aapne

    12 hours ago · Like · 1
  • Shashi Bhooshanभाजपा चाहे जितनी छूट दे वह नहीं चाहेगी कि जन लोकपाल बिल पास हो। वह राजनीतिक लाभ चाहती है। पहले भी वह भ्रष्टाचार के खिलाफ चुनाव लड़कर केंद्र में आकर पूर्व से बड़े भ्रष्टाचारों का इतिहास बना चुकी है। अन्ना हज़ारे यदि सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अब तक का सबसे बड़ा जन आंदोलन चला रहे हैं तो इसमें सबसे बड़े विपक्षी दल को फायदा होना लाज़िमी है। यह सब समझ रहे हैं इसीलिए अन्ना को भाजपा से जोड़ने की कोशिशों में अपना स्वर मिला पाने को मज़बूर हैं। सवाल है कि यह लाभ दूसरे दल क्यों नहीं ले सकते? भाजपा यदि गांधीवादी को अपना नेता मान सकती है तो हम भ्रष्टाचार के मसले पर लचीले क्यों नहीं हो सकते (वास्तव में वामपंथ का यह पहला हक है। किसी वामपंथी नेता पर भ्रष्टाचार के आरोप अब तक तो अदालत में नहीं हैं।) हम सबसे बड़ा विपक्ष क्यों नहीं हैं? पर इसका जवाब सबको पता है। मज़ेदार बात यह है कि इतनी आसान बात जटिल होती जा रही है कि जो व्यक्ति झूठा और भ्रष्ट नहीं है, देश और समाज का भला चाहता है तथा गांधी को अपना आदर्श मानता है वह सैद्धांतिक रूप से संघ का एजेंट कैसे हो सकता है? मेरा अनुभव है कि आप यह वाक्य उलटकर कहना चाहते रहे हैं कि अन्ना हज़ारे गांधीवादी कैसे हो सकता है? मैं सचमुच आपसे जानना चाहता हूँ कि आपके द्वारा अन्ना हज़ारे की टीम के संबंध में वैयक्तिक ईमानदारियों की माँग इतनी पुख्ता और लगातार क्यों है? ऐसे में तो आपसे भी सवाल किया जा सकता है कि जो मित्र नौकरियों में हैं और वर्किंग आवर्स में आपके यहाँ कमेंट लिखते हैं। फेसबुक पर होते हैं उन्हें वक्त की चोरी का दोषी मानते हुए मित्र सूची से बार करें। आप और अन्य आपके समर्थकों के तर्क कांग्रेस के तर्क जैसे क्यों होते है? गांधी ने एक बार कहा कि मैं जनरल डायर को पसंद नहीं करता पर यदि मुझे पता चले कि उसे साँप ने काट लिया है तो मैं उसका ज़हर चूस लेने को दौड़ पड़ूँगा। अन्ना हज़ारे के संबंध में यदि आपकी कोई ऐसी ही नागरिक कमज़ोरी हो तो ज़रूर बतायें। यहाँ आप मुझे विषयांतर के लिए माफ़ करेंगे ऐसी उम्मीद है।

    11 hours ago · Like · 1
  • Virendra Yadav‎@ shashi Bhooshan,… मार्क्स ने कहा था everything that is human is not alien to Marxism,इसलिए गांधीवादी हुए बिना भी मानवीय हुआ जा सकता है ,यह कोई कमजोरी नहीं मानवीय कर्तव्य है . हाँ ,लेकिन ऐसा क्यों है कि आपको अन्ना की आलोचना या उनके आंदोलन को प्रश्नांकित करने पर कांग्रेस की गंध आने लगती है .यह चीजो को अन्नावादी द्विविभाजन में देखना है और अंध अन्नाभाक्त होना है .अन्नाटीम दूसरों से जिस आचरण की उम्मीद करती है क्या उससे उसी आचरण की जवाबदेही नहीं होनी चाहिए .किरण बेदी ने टिकट के मामले में जो किया वही करने पर हजारों सरकारी कार्मिकों की नौकरियां चली गयी हैं ,क्या किरण बेदी से सवाल भी नहीं पूछे जाने चाहिए?

    11 hours ago · Like · 1
  • Virendra Yadavcontd. प्प्रशंत भूषन को क्या जवाबदेह नहीं होना चाहिए ? अरविन्द केजरीवाल के आचरण पर टिप्पडी क्यों नहीं करनी चाहिए ? वे मुस्लिम संगठनों और धार्मिक नेताओं के बीच राजनीतिक नेताओं कि तरह जाकर क्यों टोपी लगा लेते हैं ? बात सिर्फ इतनी है की जो भष्टाचार विरोधी आंदोलन का दम भरते हैं उनका आचरण सवालों के ऊपर नहीं तो सवालों के घेरे में तो होनका ही चाहिए .मैं स्वयं कोई शुध्धातावादी नहीं हूँ और न अपने मित्रों से कठोर शुध्ध्तावादी आचरण की चाहत रखता हूँ ,लेकिन जो अपने सिवा अन्य सभी को संदेह के घेरे में रखते हैं ,उन्हें तो आदर्श प्रस्तुत ही करना चाहिए .

    10 hours ago · Like · 3
  • Tejinder GaganSach baat to yeh hai ki anna hazare aur un ki team ne rss aur saaf taur par bjp ki madad se pure desh mein ek tarah ki anarchy faila kar rakhi huee hai.

    10 hours ago · Like · 2
  • Shashi Bhooshan ‎@ Virendra Yadav, सर, मुझे अंदाज़ा था कि आप कमज़ोरी शब्द को पकड़ेंगे। फिर भी मैंने लिखा तो मकसद यह था कि इशारा किया जाये कि विरोध की भी कुछ कमज़ोरियाँ बड़ी ज़रूरी और मानवीय होती हैं। आपने मुझमें अन्ना की अंध भक्ति देखी तो यह आपकी दृष्टि होगी। जबकि मैं अपने आपको कम्युनिष्ट मानता हूँ। मार्क्सवादी होने के नाते आप बेहतर जानते हैं कि किसी से शत प्रतिशत चारित्रिक शुद्धता की अपेक्षा वो भी किसी आंदोलन के संदर्भ में क्या मायने होते हैं। हमारे ही समाज में बड़े और छोटे अपराध के पैमाने हैं। लाख रुपये का गबन करने वाला हमेशा से तर्क देता रहा है कि आपने भी एक रुपया चुराया था। चोरी तो चोरी होती है। जब आप चोर ही हैं तो हमें कहने का क्या अधिकार? हमारे ही समाज में बड़े अपराध की बड़ी सज़ा और ग़लती के लिए क्षमा का नियम है। कहने का मतलब यह कि अन्ना के संबंध में आज कोई प्रश्न इतना बड़ा नहीं है जो उनके आंदोलन को संदिग्ध बना दे। इस आंदोलन में दलितों और अल्पसंख्यकों के मुद्दे भी जुड़ने ही चाहिए। पर जब तक यह हीनता दूर नहीं हो जाती हमें नीयत में खोट देखते रहना भी नहीं चाहिए। आपने किरण बेदी की बात की। मैं आपसे सहमत हूँ। उन्हें आयोजकों को इससे अवगत कराना था। पर यह भी तो खयाल किया जा सकता है कि इकोनामी और बिजनेस क्लास की यात्रा में सुविधा के लिहाज़ से क्या फर्क है? इकोनामी क्लास की यात्रा यदि पाँच घंटे से अधिक की हो तो बस की यात्रा भली। खिड़की से बाहर सिर तो निकाल सकते हैं। चेतावनियाँ तो नहीं माननी पड़ती। बैठना तो खैर बस जैसा ही होता है उस क्लास में। अब यदि कोई इस तरह धन बचा रहा है तो यह कितना बड़ा अपराध है? मैं खुद राजधानी एक्सप्रेस की चाय, बिस्किट, भुजिया बचाकर घर लाता हूँ। जबकि मुझे ईमानदारी से वहीं खाना चाहिए। मैं सचमुच जानना चाहूँगा कि फर्ज़ी बिलों के सेटलमेंट में कौन से हज़ारों की नौकरियाँ चली गयीं? मेरी जानकारी में तो अभी पिछले महीने एक विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर 30 हज़ार रिश्वत लेते ट्रैप हुए और सस्पेंड तक नहीं हुए। ज़मानत मिल गयी वहीं लोकायुक्त से। सवाल प्रश्न करने का भी नहीं मुहिम का है सर। मैं महींनो से आपको पढ़ रहा हूँ इस मुद्दे पर। आप भले मुझे अंध भक्त कह रहे हैं पर आप बड़ी निर्दयता से अन्ना के विरोध में हैं। और मैं आपसे मित्रों के प्रति शुद्धतावादी आचरण की अपील नहीं कर रहा सिर्फ एक सवाल ही रख रहा हूँ कि ऐसे दर्जनों लोग हैं जो वक्त की चोरी करते हैं, अपनी पहचान छुपाते हैं और हमारे आपके साथी हैं तो क्या हमें उनके प्रति भी जवाबदेह नहीं होना चाहिए? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं? रही बात कांग्रेस की तो यह बड़े ताज्जुब की बात है कांग्रेस प्रवक्ताओं के बयान हमारे कई साथियों से मिलते हैं। राजनीतिक स्तर पर तो वामपंथ कांग्रेस का साथ देता ही रहा है बौद्धिक जुगलबंदी भी हैरान करनेवाली है। इनमें से कुछ को तो आप बाकायदा जनवरी में सफदर हाशमी को सलाम करते भी देखेंगे। यह सचमुच विचारणीय है कि मार्क्सवादी बयान अन्ना के प्रसंग में कैसे कांग्रेस से मिलते जुलते हैं?

    9 hours ago · Like
  • Anurag Modii will request you to please verify the facts with prasahnt

    8 hours ago · Like
  • Virendra Yadav‎@Anurag Modi . you mean to say facts given by uttarakhand govt . are not credible

    about an hour ago · Like
  • Virendra Yadav‎@ shashi Bhooshan बेशक कुछ कमजोरियां जरूरी और मानवीय होती हैं .लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नेता यदि फर्जी बिल का भुगतान लें और अपनी बेटी का प्रवेश एस टी कोटे में मेडिकल कालेज में कराएँ जैसा किरण बेदी ने किया तो इसे “जरूरी और मानवीय “बताना मेरा मानदंड नहीं हो सकता विशेषकर तब जब यह भुगतान लाख से भी अधिक हो .प्रशांत भूषन द्वारा नियमविरुद्ध चाय के बागान की करोड़ों की खरीद भी मैं “जरूरी और मानवीय ” मानने की उदारता नहीं बरत सकता .मुझे आश्चर्य है कि आप मुझसे यह जानना चाहते हैं कि फर्जी बिल के कारण कहाँ ,कितनों की नौकरियां गयीं .सरकारी और सार्वजानिक क्षेत्र में यह तो जरूरी अनुशास्नात्मक कार्रवाई का हिस्सा है .लखनऊ HAL में एक साथ २९ लोगों की नौकरियां कुछ वर्ष पूर्व फर्जी एल टी सी बिल के कारण जा चुकी हैं .वित्तीय संस्थानों में इस तरह की दंडात्मक प्रक्रिया होती ही रहती है .विश्वविद्यालयों की अराजकता वहां अभी नहीं व्याप्त है . मेरे द्वारा अन्ना आंदोलन को प्रश्नांकित किया जाना ,जैसा और बी लोग कर रहे हैं व्यापक सन्दर्भों में है ,मैंने अपनी बात बड़े लेख में कही है ,अन्ना पर एक किताब हार्पर कालिंस छाप रहा है ,जल्दी ही आनी है ,चाहें तो पढियेगा मेरा नजरिया स्पष्ट हो जायेगा .

    21 minutes ago · Like
  • Indra Bhushan Verma‎”yahi tho baat hai – Saand ke liye aur bakari ke liye aur….

    11 minutes ago · Like · 1
  • Radhey Shyam PandeyVirendra Yadavji, yaha mudda corruption ka hai aur ise kaise fight out karake ek achha sashkta lokpal bill laya jaye, is par baate karane ka hai…. kripaya byaktigat bato se upar uthakar asal muddo par baate kare, aur usame ho rahe khamiyo/buraiyo se lade…..

    9 minutes ago · Like
  • Ashok PrakashPerhaps he wud’ve bn rewarded dis land 4 his views on Kasmir…

    15 hours ago · Like
  • Ashok Kumar PandeyAshok Prakashji, perhaps he will never-ever repeat that…he has got his graft 🙂

    15 hours ago · Like
  • Ramprakash AnantAshok ji पूँजीवाद में भ्रष्टाचार भी पूँजीवादी नियमों के अनुसार ही मिटाया जाता है. प्रशांत भूषण जो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चला रहे हैं भाजपा उसमें अपना फ़ाइदा देख रही है. उसके बदले में भाजपा ने जो रिश्वत दी है वह प्रशांत भूषण ने ले ली. या प्रशांत भूषण ने जो रिश्वत माँगी वह भाजपा ने दे दी.

    15 hours ago · Like · 1
  • चंदन कुमार मिश्रमैं तो कई चीजों को भ्रष्टाचार नहीं मानता जिससे बहुसंख्यक को फायदा हो। भले कानून कुछ भी कहे।

    15 hours ago · Like · 2
  • Himanshu Pandya‎…क्या ये हमारे ही समयों में होना था…!

    15 hours ago · Like · 1
  • चंदन कुमार मिश्रअनंत जी, पूँजीवाद में भ्रष्टाचार को नहीं मिटाया जा सकता।

    15 hours ago · Like · 2
  • आशीष देवराड़ीअन्ना भ्रष्टाचार मुक्त पूंजीवाद चाहते है …

    15 hours ago · Like · 1
  • आशीष देवराड़ीसंभव है ?

    15 hours ago · Like · 1
  • चंदन कुमार मिश्रहाँ, चीनी जो नमकीन हो, यह संभव है। लेकिन हमारे लिए।

    15 hours ago · Like · 2
  • Ramprakash Anantanna kuchh nahi chahate hai ve apane heroism ko siddh karana chahate hai.

    15 hours ago · Like · 1
  • Shamshad Elahee Shamsचलिये एक भूखे नंगे की गरीबी तो दूर हुई…भाजपा के एक दुमछल्ले का चांटा इन्हें ही पडा था, उसका हर्जाना सही से वसूला गया है..लेने वाला भी खुश, देने वाला भी खुश…दोनों सुखी रहेंगे..जय हो…

    15 hours ago · Like · 2
  • चंदन कुमार मिश्रऊपर ‘लेकिन हमारे लिए नहीं’ होगा। सुधार कर पढें।

    15 hours ago · Like · 1
  • Vivek ShrivastavaRamprakash ji aur Communist brashtaachaar ko kaise niptaate hain?lol

    15 hours ago · Like
  • Ramprakash Anantvivek ji apane mail today par lalu ka interview nahi dekha jisame unhone kaha hai ki bhrashtachar aise khatm nahi ho sakata. Usake lie sarakar ko sampatti ka punarvitaran karana padega. Lalu communist nahi hain aur n ve vaisa karana chahate hain jaisa kah rahe hain par un ki bat sahi hai.

    15 hours ago · Like · 1
  • Ashok Kumar PandeyVivek Shrivastavahansana svasthya ke liye labhkari hai…so keep on LOLs 🙂

    15 hours ago · Like · 1
  • Mohan Shrotriyaपिता की राह चलता पुत्र ! जो छवि घड़ी थी अपने लिए वह मुखौटा ही निकली. भाजपा विरोध का जो स्टैंड लेते-से दिख रहे थे, वह भी पुरस्कृत होने का जुगाड ही साबित हुआ.

    14 hours ago · Like · 1
  • Vivek ShrivastavaAshok bhai our nation is in “comedy of errors” like situation so you are also requested to join our laughter club.

    14 hours ago · Like
  • Jaywant Singhbhaiya hindustaan he…….itihaas dekho…..?

    14 hours ago · Like · 1
  • Sandip Naikमेरा बहुत मन है कि मै भी कुछ रूपया पैसा कमा लू छोटा मोटा या बड़ा सा काम करके आज अपने बहुत करीबी दोस्त विशाल से कह रहा था तो उसे आश्चर्य हुआ और मुझे तनिक भी ग्लानी नहीं हुए मुझे तो लोक पाल का इंतज़ार है कि आये और मुझे पकड़ ले फ़िर मै हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे की तर्ज पर सबको मार कर मरना चाहता हूँ………….

    14 hours ago · Like · 2
  • Jaywant Singhlok pal bhi indian hi hoga….sasad bhi indian he….purvjo ne yah nahee socha tha utraadhikari ese honge……….?

    12 hours ago · Like
  • Girish Mishra‎”Swarth Moolmantra” is the motto!

    3 hours ago · Like

लाल्टू का मत

प्रिय अफलातून भाई,
मैं अशोक पांडे को निजी तौर पर नहीं जानता, पर आपको जानता हूं, इसलिए आपको लिख रहा हूं.
क्या हर तरह की खबर का प्रचार करना चाहिए? थोड़ा बहुत जांच करनी भी चाहिए न कि खबर ठीक है या नहीं?
प्रशांत भूषण ने पालमपुर में जो वैकल्पिक  शिक्षा की कोशिश की है, वह प्रशंसनीय है. कई मित्र वहाँ जाते रहे हैं. अगर उसमें कोई कमी है तो वह इतनी कि वह पूरी तरह इसमें जुट नहीं पाया है.
प्रशांत को लेकर और कई भी सवाल हों, उसकी ईमानदारी पर शक की कोई गुंजाईश नहीं है.
हिमाचल सरकार ने एक अच्छे काम के लिए अनुमति दी तो उस पर यह तो कहा जा सकता है कि सिर्फ प्रशांत को ही क्यों, और भी लोग भला करना चाहते होंगे, पर इस तरह की खबरों से एक कैम्पेन उसके खिलाफ करना बिलकुल गलत है.
ला.

प्रिय भाई लाल्टू,
वकीलों की व्यक्तिगत ईमानदारी से उनकी भारी फीस को अलग करके कैसे देखा जा सकता है? जनहित के लिए मुफ्त लेकिन अन्य मामलों में एक बार खड़े होने का २०-२५ लाख लेते हैं।ऐसी फीस कौन दे सकता है? हिमाचल में काश्मीर के लिए बनी धारा ३७० जैसी धारा है ताकि बाहरी लोग जमीन न खरीद सकें। चाय बगानों पर तो सीलिंग भी नहीं लगती- बंग और केरल में भी नहीं । अच्छे लोगों के अच्छे कामों की व्यक्तिगत(व्यक्ति केन्द्रित) पहलों को मैं तरजीह नही देना चाहता- अपने आप में यह अलोकतांत्रिक होगा ही । आप कहें तो आपके विचारों को उस लिंक के साथ लगा दूं ?
सप्रेम,
आपका
अफलातून

आप लिंक के साथ लगा सकते हैं.
पर एक स्पष्टीकरण के साथ – जो आपके प्रश्न का जवाब भी है>
देखिये किन विवशताओं के साथ हम जीवन में समझौते करते हैं , यह सबके लिए अलग हैं. आप खुद ही कह रहे हैं कि जनहित के लिए मुफ्त मामला लड़ते हैं. अन्य मामलों से मिले पैसों से अगर वह पालमपुर जैसी अच्छी पहल कर रहा है, इसमें बुरा कुछ नहीं है. निजी नैतिक मानदंडों की लकीर  कहाँ खींची जाए, यह पेंचीदा सवाल है. जितनी हिम्मत के साथ उसने काश्मीर और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के अधिकारों जैसे मुद्दों पर स्टैंड लिया है, उसे देखिए. खबर इस पर नहीं है कि कुछ मामलों में उसकी फीस बहुत ज्यादा है, खबर यह कि वह भ्रष्टाचार में लिप्त हुआ है. इसकी जांच किए बिना इस तरह कैम्पेन नहीं करना चाहिए. क्या आपको या अशोक जी को कोई ऐसा तथ्य मालूम है कि प्रशांत का हिमाचल से कोई सम्बन्ध नहीं है. या ३७० जैसी धारा जो हिमाचल पर लागू होती है, क्या उसमें ऐसी कोई छूट नहीं है जिसके आधार पर शिक्षा  जैसे क्षेत्र में काम करने के लिए ज़मीन बिक सकती हो. अच्छा यह होता कि पहले जांच की जाती. प्रशांत को जितना मैं जानता हूं,   मैं कह सकता हूं कि उसे पूछने पर ये जानकारियाँ सही सही उसी से प्राप्त हो जातीं. मैं आपसे सहमत नहीं हूं कि पालमपुर की पहल व्यक्तिकेंद्रिक है. कम से कम जो मित्र वहां गए हैं, उनसे सुनकर ऐसा नहीं लगा. मेरी जानकारी के आधार पर मैं तो यह कहूंगा कि आप बिलकुल गलत कह रहे हैं.  मैं यह नहीं कह रहा कि वैचारिक रूप से मैं प्रशांत से हर बात में सहमत हूं. मैं यह भी नहीं कह रहा कि गैरबराबरी पर आधारित समाज में इस पर ध्यान न दिया जाए कि किसी के पास बहुत तो किसी के पास कुछ भी नहीं है. पर उससे बहुत कम पैसे कमा कर शायद उससे कहीं ज्यादा समझौते मैंने निजी दायरे में किए हैं. इसलिए उस पर पत्थर उठाने से पहले मैं ज़रूर सोचना चाहूँगा. अगर प्रशांत के बारे में मेरी जानकारी में कोई कमी है तो मैं भी जानना चाहूँगा .
ला.

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जन लोकपाल विधेयक के लिए टीम-अन्ना के साथ मंत्रीमण्डल  के पांच प्रमुख सदस्यों की फेहरिश्त को सरकारी गजट में छापने के बाद अण्णा हजारे का पिछला अनशन टूटा था । प्रस्तावित विधेयक के मसौदे पर टीम-अण्णा और टीम – सोनिया की सहमती न बन पाने के बाद जनता के समक्ष दो मसौदे हैं । हृदय-परिवर्तन , आत्मशुद्धि – यह सब उपवास के साथ चलने वाली प्रक्रियाएं हैं , अनशन के साथ की नहीं । इसलिए हृदय – परिवर्तन या आत्मशुद्धि की उम्मीद रखना अनुचित है । उपवास से अलग अनशन में कुछ मांगों के पूरा होने की उम्मीद रखी जाती है । हृदय – परिवर्तन के दर्शन में लोहिया का एक गम्भीर योगदान है । ऐसे मौके पर देश का ध्यान उस ओर दिलाना भी बहुत जरूरी है । लोहिया इस बात पर जोर देते थे कि प्रतिपक्षी के हृदय – परिवर्तन से ज्यादा महत्वपूर्ण है व्यापक जनता का लड़ने के लिए मन और हृदय का बनना । व्यापक जनता का मन जब लड़ने के लिए तैयार हो जाता है तब अनशन जैसे तरीकों की जरूरत टल जाया करती है। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए निर्णायक संघर्ष में किसी नेता के अनशन से आन्दोलन करने के लिए व्यापक जनता का मन बना लेना कम महत्वपूर्ण नहीं होता है । अण्णा के अनशन द्वारा जनता का हृदय लड़ने के लिए अवश्य परिवर्तित होगा ।

सरकार ने अपना विधेयक संसद में पेश किया है तथा इसी आधार पर टीम सोनिया के मुखर सदस्य टीम अण्णा द्वारा जन-लोकपाल बिल के लिए अनशन-प्रदर्शन को भी संसद की अवमानना कह रहे हैं । आजाद भारत के संसदीय इतिहास में कई बार अलोकतांत्रिक और जन विरोधी विधेयकों का विरोध हुआ है और फलस्वरूप विधेयक अथवा अध्यादेश कानून नहीं बन पाये हैं । बिहार प्रेस विधेयक और ५९वां संविधान संशोधन विधेयक की यही परिणति हुई थी।  मानवाधिकारों के बरक्स पोटा जैसे कानूनों के खरा न उतरने की वजह से संसद ने ही उसे रद्द भी किया । वैसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में जनता के सर्वोपरि होने का एक बड़ा उदाहरण टीम सोनिया को याद दिलाना जरूरी है । देश के संविधानमें आन्तरिक आपातकाल लागू किए जाने के प्राविधान को १९७७ की जनता पार्टी की सरकार द्वारा संशोधित किया जाना जनता की इच्छा की श्रेष्टता का सबसे उचित उदाहरण माना जाना चाहिए । केन्द्र की विधायिका के अलावा संघीय ढांचे को महत्व देते हुए अब दो-तिहाई राज्यों की विधान सभाओं में दो-तिहाई बहुमत के बिना आन्तरिक आपातकाल नहीं लगाया जा सकता । देश के लोकतंत्र पर कांग्रेस सरकार द्वारा लादे गए एक मात्र आन्तरिक आपातकाल का जवाब देश की जनता ने उक्त संविधान संशोधन करने वाली जनता पार्टी को जिता कर किया था। जनता पार्टी की तमाम कमजोरियों के बावजूद इस एक  ऐतिहासिक संविधान संशोधन को याद किया जाएगा जिसके लिए जनता द्वारा दिए गए जनादेश को लोकतंत्र की तानाशाही पर जीत की संज्ञा दी गई । अण्णा हजारे के आन्दोलन के पूर्व इस परिवर्तन को ही ’दूसरी आजादी’ कहा जाता था ।

 जनता और संसद की औकात को गांधीजी ने ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ नामक पुस्तिका में स्पष्ट किया है । उम्मीद है इन बुनियादी बातों को हम इतिहास के इस मोड़ पर याद रखेंगे ।

” हम अरसे से इस बात को मानने के आदी बन गये हैं कि आम जनता को सत्ता या हुकूमत सिर्फ धारा सभा (विधायिका) के जरिये मिलती है। इस खयाल को मैं अपने लोगों की एक गंभीर भूल मानता रहा हूं। इस भ्रम या भूल की वजह या तो हमारी जड़ता है या वह मोहिनी है, जो अंग्रेजों को रीति रिवाजों ने हम पर डाल रखी है। अंग्रेज जाति के इतिहास के छिछले या ऊपर-ऊपर के अध्ययन से हमने यह समझ लिया है कि सत्ता शासन-तंत्र की सबसे बड़ी संस्था पार्लमेण्ट से छनकर जनता तक पहुंचती है। सच बात यह है कि हुकूमत या सत्ता जनता के बीच रहती है, जनता की होती है और जनता समय-समय पर अपने प्रतिनिधियों की हैसियत से जिनको पसंद करती है, उनको उतने समय के लिए उसे सौंप देती है। यही क्यों, जनता के बिना स्वतंत्र पार्लमेण्ट की सत्ता तो ठीक, हस्ती तक नहीं होती। पिछले इक्कीस बरसों से भी ज्यादा अरसे से मैं यह इतनी सीधी-सादी बात लोगों के गले उतरने की कोशिश करता रहा हूं। सत्ता का असली भण्डार या खजाना तो सत्याग्रह की या सिविल नाफरमानी की शक्ति में है। एक सूमचा राष्ट्र अपनी धारा सभा के कानूनों के अनुसार चलने से इनकार कर दे, और इस सिविल नाफरमानी के नतीजों को बरदाश्त करने के लिए तैयार हो जाए तो सोचिये कि क्या होगा ! ऐसी जनता धारा सभा को और उसके शासन-प्रबंधन को जहां का तहां, पूरी तरह, रोक देगी। सरकार की, पुलिस की या फौज की ताकत, फिर वह इतनी जबरदस्त क्यों नहीं हो, थोड़े लोगों को ही दबाने में कारगर होती है। लेकिन जब कोई समूचा राष्ट्र सब कुछ सहने को तैयार हो जाता है, तो उसके दृढ़ संकल्प को डिगाने में किसी पुलिस की या फौज की कोई जबरदस्ती काम नहीं देती। “

गांधी जितनी व्यापक जन सहभागिता वाली सिविल नाफ़रमानी की बात यहां कर रहे हैं उसके लिए भ्रष्टाचार के अलावा उन तमाम जन आन्दोलनों को जोड़ना होगा जो देश भर में आर्थिक नीतियों से उत्पन्न दुष्परिणामों के विरुद्ध चल रहे हैं ।

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साझा संस्कृति मंच

वाराणसी

माननीय श्री अण्णा हजारे ,

कबीर , तुलसी और रैदास की बनारस की इस कर्मभूमि में हम आपका हृदय से स्वागत करते हैं । वाराणसी के सामाजिक सरोकारों के संगठनों का यह साझा मंच आप से यह नम्र निवेदन कर रहा है :

राज्य व्यवस्था भ्रष्टाचार और हिंसा को नियंत्रित करने के लिए बनी हुई है । आज भ्रष्टाचार एक केन्द्रीय समस्या बन गया है क्योंकि उसके कारण एक औसत नागरिक के लिए सामान्य ढंग से ईमानदारी का जीवन जीना मुश्किल हो गया है । भ्रष्टाचार का शिकार हुए बगैर रोजमर्रा का काम नहीं चल पा रहा है इसलिए भ्रष्टाचार से मुक्त होने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है । सामान्य अवस्था में भ्रष्टाचार सिर्फ लोभी और बेशर्म आदमियों तक सीमित रहता है और अधिकांश घटनाओं में लोग आश्वस्त रहते हैं कि दोषी दण्डित होंगे । मौजूदा समय में नेक आदमी भी भ्रष्टाचार करने लगा है और कोई आदमी ईमानदारी से अपना काम करता है तो उसकी हालत दयनीय हो जाती है ।

भ्रष्टाचार को जड़ से समझने के लिए निम्नलिखित आधारभूत विकृतियों को समझना होगा:

(१) प्रशासन के ढांचे की गलतियां – जवाबदेही की स्पष्ट और समयबद्ध प्रक्रिया का न होना भारतीय शासन प्रणाली का मुख्य दोष है । प्रशासन और अर्थनीति जैसे हैं वैसे ही बने रहें लेकिन भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा –  यह हमें मुमकिन नहीं दिखता ।

(२) समाज में आय-व्यय की गैर-बराबरियां अत्यधिक हैं । जहां ज्यादा गैर बराबरियां रहेंगी , वहां भ्रष्टाचार अवश्य व्याप्त होगा । गांधीजी के शब्दों में ,’थोड़े लोगोंको करोड़  और बाकी सब लोगोंको सूखी रोटी भी नहीं , ऐसी भयानक असमानतामें रामराज्य का दर्शन करनेकी आशा कभी नहीं रखी जा सकती ’(दिनांक १०६-’४७) ।

(३) गांववासियों के लिए कचहरी और पुलिस में कोई फर्क नहीं होता । कचहरी वह है , जिसके द्वारा पटवारी-पुलिस किसानों को सताते हैं । सैकड़ों बार कचहरी आ कर अदालत में घूस और वकीलों की फीस में किसानों के करोडों रुपए लूट लिए जाते हैं । देश का पेट भरने वाले किसान के जीवन में बड़े   बड़े निजी निगमों का हस्तक्षेप बढ़ाया जा रहा है , इसे हम अपनी संस्कृति पर हमला मानते हैं और इसलिए इस पर रोक की माग करते हैं । किसान से जुड़े समस्त कार्य एक ही व्यवहार पटल (खिड़की) से क्यों नहीं निपटाये जा सकते ।

(४) हमारी यह स्पष्ट समझदारी है कि भ्रष्टाचार के इस अहम सवाल के अलावा हमें बेरोजगारी ,  दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली , विकास की गलत अवधारणा से उत्पन्न विस्थापन के मसलों को भी समाज के व्यापक आन्दोलन का हिस्सा बनाना ही होगा ।

इन विकृतियों को समझते हुए भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के निम्नलिखित बिन्दु उभरते हैं :

(१) समाज के दलित , किसान , मजदूर , पिछड़े , आदिवासियों के कल्याण के लिए नरेगा तथा अन्य कल्याणकारी योजनाएं बनाई गई हैं उसके पैसे भ्रष्ट अधिकारी , बिल्डर ,ठेकेदार एक गठबन्धन बना कर लूटते हैं । इस पर रोक सुनिश्चित होनी चाहिए ।

(२) भोंडी फिजूलखर्ची पर रोक लगाई जाए तथा आर्थिक विषमता को सीमित करने के उपाए किए जांए ।

(३) प्राकृतिक संसाधनों की लूट को रोकने के लिए आर्थिक नीतियों में परिवर्तन करने होंगे । मौजूदा उदार नीतियों से भ्रष्टाचार और लूट का सीधा सम्बन्ध है ।

(४) यह आन्दोलन व्यापक स्तर पर ’ घूस देंगे नहीं , घूस लेंगे नहीं ’  के साथ जन-जागरण चलायेगा ।

(५) अधिकांश अदालती मामलों के निपटारे के लिए समय की सीमा बाँधी जाए और झूठे मामलों की छानबीन की कोई कारगर प्रक्रिया तय हो जाए ताकि यह जलालत और घूसखोरी घट सके ।

(६) समाज और देश में वैमनस्य फैलाने वाली शक्तियों की सक्रियता की वजह से तमाम लोकहित के मुद्दे पीछे चले जाते हैं तथा इससे भ्रष्ट यथास्थितिवादी ताकतों को शक्ति मिल जाती है । इसलिए इस प्रश्न को हम गौण समझ कर नहीं चल सकते तथा इसके प्रति सतत सचेत रहेंगे ।

(७) प्रशासन के कई सुधारों के लिए संविधान या आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन की जरूरत भी नहीं होती है ।फिर भी आम नागरिक की आजादी को दबाने के लिए और प्रशासन के भ्रष्ट तत्वों को कवच प्रदान करने के लिए भारतीय दण्ड प्रक्रिया में जिन धाराओं से मुकदमा चलाने के लिए राज्यपाल,राष्ट्रपति आदि की अनुमति लेनी पड़ती है उन्हें बदलना होगा । भ्रष्ट और अपराधी अधिकारियों पर मामला चले ही नहीं इसके लिए इन प्राविधानों का उपयोग होता है ।

इसी प्रकार विश्वविद्यालय जैसे सरकारी वित्त से चलने वाली संस्थाओं में भ्रष्टाचार के मामलों की समग्र निष्पक्ष जांच के लिए विजिटर (राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल ) ही जांच गठित कर सकता है । इस वजह से से आजादी के बाद सिर्फ दो बार ही विजिटोरियल जांच हो पाई है (मुदालियर आयोग तथा गजेन्द्र गड़कर आयोग )।इसके समाधान के लिए समाज और विश्वविद्यालय के बीच पुल का काम करने वाली ’कोर्ट’ को अधिकारसम्पन्न और लोकतांत्रिक बनाना होगा।

(८) उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए बनाई गई पुलिस द्वारा बिना विभाग का पैसा खर्च किए भ्रष्ट बिल्डरों , कॉलॉनाईजरों,निर्माण कम्पनियों से पुलिस विभाग के निर्माण करवाये जा रहे हैं । इस दुर्नीति के चलते यह भ्रष्ट अपने गलत काम सम्पन्न करने की छूट पा जा रहे हैं तथा उसका परिणाम अन्तत: प्रदेश की गरीब जनता पर उतारा जा रहा है ।

माननीय अण्णा , उत्तर प्रदेश में अभियान की शुरुआत वाराणसी से करने के लिए हम आपके आभारी हैं तथा आप से यह अपील करेंगे कि आन्दोलन को व्यापक आधार देने के लिए आप अन्य समन्वयों ,मोर्चों से सम्पर्क , संवाद और समन्वय स्थापित करने के लिए पहल करेंगे ।

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वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को पुलिस के साथ ठेकेदारों , बिल्डरों और कॉलॉनाइजरों तथा अन्य न्यस्त स्वार्थी तत्वों के गठजोड़ की जानकारी भली प्रकार है । इस नए किस्म के अनैतिक – गैर – कानूनी गठजोड़ के स्वरूप पर गौर करने से मालूम पड़ता है कि इस कदाचार को उच्च प्रशासन का वरद हस्त प्राप्त है। आश्चर्य नहीं होगा यदि पता चले कि वरि्ष्ठ अधिकारी इस किस्म के भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित भी करते हों ।

वाराणसी जिले के विभिन्न थाना परिसर व पुलिस चौकियों में निर्माण कार्य ठेकेदारों , बिल्डरों , कॉलॉनाईजरों से कराए गए हैं । इन निर्माण कार्यों के लिए पुलिस विभाग ने एक भी पैसा खर्च नहीं किया है । उदारीकरण के दौर की ’प्राईवेट-पब्लिक पार्टनरशिप ’ की अधिकृत नीति के इस भोंड़े अनुसरण ने उसे दुर्नीति बना दिया है । इस नए तरीके में प्रत्यक्ष तौर पर व्यक्ति विशेष के बजाए महकमे को लाभ पहुंचाया जाता है । मुमकिन है कि न्यस्त स्वार्थों से काम कराने वाले दरोगा या उपाधीक्षक को अप्रत्यक्ष लाभ या प्रोत्साहन भी दिया जाता हो ।पडोस के जिले मिर्जापुर में तो देश के सबसे बदए बिल्डरों में एक ’जेपी एसोशिएट्स’ ने तो एक थाना ही बना कर भेंट दिया है।

भ्रष्टाचार की इस नई शैली में घूस को पकड़ना ज्यादा सरल है । नगद घूस की लेन-देन को ’रंगे हाथों’ पकड़ने के लिए आर्थिक अपराध शाखा का छापा मय नौसादर जैसे रसायनों तथा नोटों के नम्बर पहले से दर्ज कर मारा जाता है । कदाचार को पकड़ने के इस पारम्परिक तरीके में कई झोल हैं । छापा मारने वाले विभाग की भ्रष्टाचारियों से साँठ-गाँठ हो जाने की प्रबल संभावना रहती है । जैसे नकलची परीक्षार्थियों द्वारा पकडे जाने पर चिट उदरस्थ करने की तकनीक अपनाई जाती है वैसे ही घूस मिल रहे नोटों को निगलने के प्रकरण भी हो जाया करते हैं ।  अ-सरकारी ’देश प्रेमियों ’ द्वारा कराए गए निर्माण चिट की भाँति निगल जाना असंभव है ।

जिन भ्रष्ट तत्वों द्वारा नये किस्म के दुराचार के तहत निर्माण कराये जाते हैं उनको मिले लाभ भी अक्सर देखे जा सकते हैं । मजेदार बात यह है कि सूचना के अधिकार के तहत जब इन निर्माणों के बारे में पूछा गया तो पुलिस विभाग के लिए बिल्डरों द्वारा कराए गए निर्माण को पूर्णतया नकार दिया गया। इसके बदले बिल्डर के भव्य शॉपिंग कॉम्प्लेक्स को नगर निगम के रिक्शा स्टैण्ड को निगलने की छूट मिल गई। शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के भूतल में वाहनों के लिए जो खाली जगह छोड़ी गई थी वहां भी दुकाने खुल गई हैं। फलस्वरूप वाहन लबे सड़क खड़े होकर जाम लगा रहे हैं । मनोविज्ञान की पाठ्य पुस्तकों के उदाहरण याद कीजिए – पति से हुए विवाद के कारण शिक्षिका पत्नी अपने स्कूल में बच्चे को छड़ी लगाती है और आखिर में बच्चा कुत्ते पर ढेला चला कर सबसे कमजोर पर गुस्सा उतारता है । वैसे ही इस शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में आई गाड़ियों से उत्पन्न यातायात के व्यवधान का गुस्सा पुलिस सबसे कमजोर तबके – पटरी व्यवसाइयों पर लाठी भांज कर,तराजू-बटखरा जब्त कर निकालती है ।

    विनोबा भावे के जुमले का प्रयोग करें तो उदारीकरण के दौर में सृजित भ्रष्टाचार की इस नई विधा का वर्णन करना हो तो कहना होगा – ’ अ-सरकारी तत्वों द्वारा कराया गया यह सरकारी काम इन चोरों की दृष्टि से असरकारी है ।’

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योगेन्द्र यादव का लेख पीडीएफ़ में पढ़ें ।

अण्णा हजारे के अनशन की सफलता भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। लेकिन हम इस संकेत की इबारत पढ़ने को तैयार नहीं हैं। हिन्दुस्तानी मन में कुछ ऐसी ग्रंथी है कि हम संकेत को प्रमाण मान लेते हैं, शुभ परिवर्तन को युग परिवर्तन की तरह पेश करते हैं, हर अच्छे इंसान को देवता बना देते हैं। जाहिर है इस भक्तिभाव की परिणिती निराशा और कडुवाहट में होती है।

अण्णा हजारे और उनके अभियान के साथ यही हो रहा है। एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण सफलता को ‘दूसरे स्वाधीनता संग्राम’ और ‘तहरीर चौक’ जैसे लापरवाह रूपकों से नवाजना इसी ग्रंथी का परिणाम था। वल्र्ड कप क्रिकेट और आईपीएल के बीच खाली बैठी टीवी चैनलों ने इस आंदोलन को जम कर भुनाया, मानो किसी क्रांति का आगाज हो रहा हो। ऐसी अतिशयोक्ति की प्रतिक्रिया होनी ही थी। अनेक संजीदा बुद्धिजीवियों और जनांदोलनों के मित्रों ने इस आंदोलन के चरित्र के बारे में संदेह व्यक्त किये हैं।

अण्णा हजारे द्वारा नरेन्द्र मोदी के प्रशासन की तारीफ के बाद तो इस पूरे आंदोलन को प्रतिगामी और गैर-लोकतांत्रिक बताने का रिवाज चल निकला है। एक असंतुलन दूसरे असंतुलन को पैदा कर रहा है। ऐसे में कुछ बुनियादी बात भूलने का खतरा है। इस अनशन की सफलता केवल अण्णा हजारे और उनके चंद समर्थकों की जीत नहीं है। इस आंदोलन में महानगरीय, अंग्रेजदां और सम्पन्न वर्ग का बोलबाला नहीं था। यह उन छोटे-बड़े जनसंगठनों और साधारण नागरिकों की विजय है जिन्होंने अपनी पहल पर दिल्ली या अपने शहर-कस्बे में इस अभियान में शिरकत कर सदाचार की आवाज बुलंद की। यह उन लाखों हिन्दुस्तानियों की विजय है जिन्होंने मन ही मन अन्ना हजारे को सफलता की दुआ दी थी।

शुरुआत में यह अनशन जरूर लोकपाल विधेयक के बारे में था। लेकिन जनमानस में यह आंदोलन शीर्ष राजनीति के भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदारी की जमीनी आवाज के प्रतीक के रूप में दर्ज हुआ। इस आंदोलन के अधिकांश समर्थकों को लोकपाल बिल के बारे में ज्यादा जानकारी भी नहीं रही होगी। उनके लिए असली परिणाम यह नहीं है कि बिल पर पुनर्विचार के लिए एक कमेटी बन गई है। देश भर में लाखों लोगों के लिए इस आंदोलन ने यह संदेश दिया है कि लोकशक्ति सत्ता को झुका सकती है। अगर यह आंदोलन असफल हो जाता तो न जाने कितने हिन्दुस्तानियों का मन टूटता, न जाने कितने युवजन मान बैठते कि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना संभव नहीं है। लोकतंत्र में जनता का मनोबल और भागीदारी बढ़ाना लोकतंत्र संवर्धन का काम है। इस लिहाज से जन लोकपाल विधेयक का संघर्ष देश में लोकतंत्र संवर्धन का माध्यम बना है।

जीवंत प्रतीक न तो कभी भी मुकम्मल होते हैं न ही बेदाग। यह शाश्वत नियम इस आंदोलन पर भी लागू होता है। अण्णा हजारे के समर्थको का अति-उत्साह अक्सर राजनीति द्वेष के रूप में सामने आया, मानो लोकतंत्र में राजनीति एक बीमारी है। भ्रष्टाचार का विरोध करने वाले अक्सर अपने आप को पवित्र-पावन और बाकी दुनिया को हेय मान बैठते हैं, सोचते हैं कि इस कुंजी से दुनिया के सब ताले खुल जाएंगे।

बाबा रामदेव की उपस्थिति कई आंखों की किरकिरी बननी ही थी। और चलते-चलते अण्णा ने नरेन्द्र मोदी की तारीफ में बयान दे डाला। जाहिर है इसके चलते इस आंदोलन को कड़े सवालों का सामना करना पड़ा है। जमीन पर संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं को अक्सर बुद्धिजीवियों की सैद्धांतिक आलोचनाओं से चिढ़ होती है। कई बार ऐसी आलोचनाएं जमीनी हकीकत की नासमझी से पैदा होती हैं। कुछ हद तक यह बात अण्णा हजारे के आंदोलन की आलोचना पर भी लागू होती है। इस आंदोलन को संघ परिवार की उपज मानने वाले लोग जनांदोलनों की दुनिया की बारीकियों से नावाकिफ हैं। ‘सिविल सोसायटी’ के गलत मुहावरे के चलते इस आंदोलन की तुलना मुंबई के संभ्रांत एनजीओ जमावड़ों से करना भी नासमझी का लक्षण है। फिर भी केवल इसी वजह से आंदोलन की तमाम आलोचनाओं को खारिज कर देना तंगदिली और अपरिपक्वता का नमूना होगा। गंभीर आलोचनाओं को समझना और उनसे सीखना इस आंदोलन के भविष्य के लिए बेहद जरूरी है।

असली सवाल यह है कि क्या यह आंदोलन लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करेगा, याकि यह जड़ें खोदने वाला काम है? अनेक सदाशय आलोचकों को इस आंदोलन की नीयत और नतीजों के बारे में शक है। आलोचनाएं चार तरह की हैं। पहली यह कि इस आंदोलन के तौर तरीके गैर लोकतांत्रिक हैं चूंकि आमरण अनशन तो ब्लैकमेल है। दूसरी आलोचना यह कि आंदोलन इकहरा है, ऐसा समझता है कि भ्रष्टाचार एकमात्र मुद्दा है। तीसरी कि यह आंदोलन राजनीति द्वेष से प्रेरित है, कि राजनेता और चुने हुए प्रतिनिधियों के बारे में द्वेष फैला कर आंदोलनकारी लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर कर रहे हैं। चौथी बात यह कि आंदोलन द्वारा प्रस्तावित विधेयक जिस किस्म का लोकपाल सुझाता है वह लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करने की बजाय उनका विकल्प बन जाएगा। इन चारों बिंदुओं पर संजीदगी से गौर करने की जरूरत है।

आमरण अनशन के जरिए ब्लैकमेल वाले तर्क में एक बुनियादी खामी है। जब अण्णा हजारे भ्रष्टाचार के सवाल पर अनशन करते

हैं तो यह किसी सरफिरे द्वारा आत्मदाह की धमकी जैसी बात नहीं है। सार्वजनिक जीवन में अन्ना की एक हैसियत है। सदाचार के

मामले में उनका बेदाग इतिहास है। अनशन की घोषणा और अनशन करते वक्त इसकी तमाम मर्यादाओं का पालन किया गया। पहले सरकार से बातचीत हुई थी। अनशन की पूर्व घोषणा की गई। अनशन में कुल मिलाकर अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ घृणा और मिथ्या प्रचार से बचा गया। ऐसे अनशन को सिर्फ ब्लैकमेल समझना हमारे सार्वजनिक जीवन की एक गौरवमयी परंपरा का तिरिस्कार करना होगा। इसमें दबाव का अंश जरूर है, लेकिन यह दबाव नैतिक है। अगर अण्णा हजारे की नैतिक आभा न होती या फिर सरकार की नेकनीयत असंदिग्ध होती तो इस अनशन का कोई असर नहीं होता।

 

आंदोलन के एकांगी होने वाली बात सही है, लेकिन यह कमी एक तरह से ऐसे किसी भी प्रयास में अंतर्निहित होती है। पिछले तीन

दशक के सभी बड़े जनांदोलन एक-सूत्रीय रहे हैं। चाहे नर्मदा बचाओ आंदोलन हो या सूचना के अधिकार का आंदोलन, सबकी शुरुआत एक मांग से हुई है, समग्र विचार से नहीं। इस शुरुआती दौर में ऐसे आंदोलनों में यह गलतफहमी रहती है मानो उनका सवाल देश और दुनिया का सबसे बड़ा सवाल है। अण्णा हजारे के समर्थकों में भी यह गलफहमी है मानो राजनीतिक भ्रष्टाचार इस देश की सभी समस्याओं की गंगोत्री है और लोकपाल उस परनाले को बंद कर देगा। यह उम्मीद की जा सकती है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन और सूचना के अधिकार के आंदोलन की तरह यह आंदोलन भी एक व्यापक दृष्टि विकसित करेगा। भ्रष्टाचार के सवाल को पूरी व्यवस्था के चरित्र से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जिस समाज की अर्थव्यवस्था निपट स्वार्थ और समाज गहरी विषमता और अलगाव को बढ़ावा देता हो उस समाज में भ्रष्टाचार कोई अनहोनी बात नहीं है। जहां सारी संस्थाएं जीर्ण क्षीण हों और भ्रष्टाचार में लिप्त हों, वहां केवल राजनीति सदाचार का द्वीप बनकर नहीं रह सकती। देर सबेर भ्रष्टाचार के सवाल को व्यवस्था सुधार के इन बुनियादी सवालों से जोड़ना होगा।

 

इस आंदोलन में अभी तक शायद यह समझदारी नहीं बन पाई है। फिलहाल व्यापक सरोकारों के बारे में फुटकर और विरोधाभासी

बयान आए हैं। अण्णा हजारे का मोदी की तारीफ वाला बयान भी महत्वपूर्ण बनता है जब हम उन्हें एक नायक बनाकर समग्र

समझ की उम्मीद लगाते हैं। लेकिन मंच पर भारत माता की छवि और राष्ट्रभक्ति की भाषा के आधार पर इसे संघ परिवार द्वारा संचालित आंदोलन मान लेना भूल होगी। कई बार सेकुलरवादी और प्रगतिशील तबका हिंदी के मुहावरे और राष्ट्रभक्ति के हर बयान को संघ परिवार कि बपौती मान बैठता है। अगर इस आंदोलन के साथ बाबा रामदेव नुमा लोग थे तो साथ में समता के मूल्य से प्रतिबद्ध अनेक जनांदोलन भी जुड़े हुए थे। फिलहाल इस आंदोलन की व्यापक समझ के बारे में कोई पक्की राय नहीं बनाई जा सकती।

राजनीति द्वेष वाले आरोप में दम है। इस आंदोलन में शुरू से ही अपने-आपको गैर-राजनैतिक बताया। इसके चलते शहरी मध्यमवर्गीय समाज का राजनीति विरोधी तबका इससे जुड़ गया। अण्णा हजारे ने अपने बयानों में कुछ सतर्कता भले ही बरती हो, लेकिन अति उत्साही समर्थकों ने अक्सर राजनीति विरोधी असंयमित भाषा का प्रयोग किया। ऐसा माहौल बनाया मानो सब नेता और जनप्रतिनिधि चोर है और देश का उद्धार उन्हें दरकिनार करके ही किया जा सकता है। यह एक खतरनाक सोच है। यह सही है कि लोकतांत्रिक राजनीति केवल चुनावों और संसद के भीतर सिमट नहीं सकती। लोकतंत्र में जमीनी संघर्ष की भूमिका हमेशा बनी रहती है। भारत जैसे देशों में लोकतंत्र का मॉडल अभी पूरी तरह बना नहीं है। इसे हिन्दुस्तानी आबोहवा के हिसाब से

ढालने में जन-संघर्षों की भूमिका अपरिहार्य है। लेकिन इस आधार पर यह मान बैठना भूल होगी कि नेता, पार्टियां और

जनप्रतिनिधि फिजूल हैं। देर-सबेर इस आंदोलन को एक राजनैतिक दृष्टि बनानी होगी। इस देश को वैकल्पिक राजनीति चाहिए, राजनीति के विकल्प नहीं।

जन लोकपाल बिल की खामियों पर भी गंभीर आत्म विश्लेषण की जरूरत है। इसमें कोई शक नहीं कि सरकारी लोकपाल बिल लचर है और उससे इस व्यवस्था में सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे में एक सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान लोकपाल का विचार मन को गुदगुदाता है। लेकिन अंतत: लोकतंत्र में सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान संस्थाओं के लिए कोई जगह नहीं है। राजनीति में सुधार के तमाम प्रस्ताव अक्सर इस बीमारी का शिकार रहे हैं। कड़े कानून के लालच में एक समस्या खत्म होती है तो नई समस्या पैदा हो जाती है। उम्मीद करनी चाहिए कि बिल की समीक्षा करने वाली समिति में जनांदोलनों के पंच इस मायने में ज्यादा समझदारी दिखाएंगे।

अण्णा हजारे के आंदोलन का भारतीय लोकतंत्र पर क्या असर पड़ता है यह आज-कल में तय नहीं होगा। यह इससे तय होगा कि यह आंदोलन उपरोक्त आलोचनाओं से क्या सबक ले सकता है। यह इस पर निर्भर करेगा कि इस आंदोलन के जरिए आई नई ऊर्जा अपने लिए क्या राजनैतिक भूमिका तय करेगी। आज इस आंदोलन से आशा बंधती है तो आशंकाएं भी उपजती है। इतिहास के पन्नों में अण्णा हजारे का आंदोलन कैसे दर्ज होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि आज की घटनाओं पर भविष्य की परछाई कैसे पड़ेगी।

~योगेन्द्र यादव

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पिछले हिस्से : एक , दो

    आधुनिक केंद्रित व्यवस्थाओं में ऊँचे ओहदे वाले लोग अपने फैसले से किसी भी व्यक्ति को विशाल धन राशि का लाभ या हानि  पहुँचा सकते हैं । लेकिन इन लोगों की अपनी आय अपेक्षतया कम होती है। इस कारण एक ऐसे समाज में जहाँ धन सभी उपलब्धियों का मापदंड मान लिया जाता हो व्यवस्था के शीर्ष स्थानों पर रहने वाले लोगों पर इस बात का भारी दबाव बना रहता है कि वे अपने पद का उपयोग नियमों का उल्लंघन कर नाजायज ढंग से धन अर्जित करने के लिए करें और धन कमाकर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त प्राप्त करें । यहीं से राजनीति में भ्रष्टाचार शुरु होता है । लेकिन विकसित औद्योगिक समाजों में व्यवस्था की क्षमता को कायम रखने के लिए नियम कानून पर चलने और बराबरी की प्रतिस्पर्धा के द्वारा सही लोगों के चयन का दबाव ऐसा होता है जो ऐसे भ्रष्टाचार के विपरीत काम करता है । ऐसे समाजों में लोग भ्रष्ट आचरण के खिलाफ सजग रहते हैं क्योंकि इसे कबूल करना व्यवस्था के लिए विघटनकारी हो सकता है । हमारे समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे व्यवस्थागत मूल्यों का निर्माण नहीं हो पाया है । इसके विपरीत जहां हमारी परंपरा में संपत्ति और सामाजिक सम्मान को अलग – अलग रखा गया था वहीं आज के भारतीय समाज संपत्ति ही सबसे बड़ा मूल्य बन गई है और लोग इस विवेक से शून्य हो रहे हैं कि संपत्ति कैसे अर्जित की गई है इसका भी लिहाज रखें । इस कारण कोई भी व्यक्ति जो चोरी , बेईमानी , घूसखोरी तथा हर दूसरी तरह के कुत्सित कर्मों से धन कमा लेता है वह सम्मान पाने लगता है । इस तरह कर्म से मर्यादा का लोप हो रहा है ।

    आधुनिकतावादियों पर , जो धर्म और पारंपरिक मूल्यों को नकारते हैं तथा आधुनिक उपकरणों से सज्जित ठाठबाट की जिंदगी को अधिक महत्व देते हैं , भ्रष्ट आचरण का दबाव और अधिक होता है । इस तरह हमारे यहाँ भ्रष्टाचार सिर्फ वैयक्तिक रूप से लोगों की ईमानदारी के ह्रास का परिणाम नहीं है बल्कि उस सामाजिक मूल्यहीनता का परिणाम है जहां पारंपरिक मूल्यों का लोप हो चुका है पर पारंपरिक वफादारियां अपनी जगह पर जमी हुई है । इसीका नतीजा है कि आधुनिकता की दुहाई देने वाले लोग बेटे पोते को आगे बढ़ाने में किसी भी मर्यादा का उल्लंघन करने से बाज नहीं आते । चूँकि हमारे समाज में विस्तृत परिवार के प्रति वफादारी के मूल्य को सार्वजनिक रूप से सर्वोपरि माना जाता रहा है कुनबापरस्ती या खानदानशाही  के खिलाफ सामाजिक स्तर पर कोई खास विरोध नहीं बन पाता । आम लोग इसे स्वाभाविक मानकर नजरअंदाज कर देते हैं । ऐसी स्थिति में इनका विरोध प्रतिष्ठानों के नियम कानून के आधार पर ही संभव हो पाता है ।

    ऊपर की बातों पर विचार करने से लगता है कि जब तक संपत्ति और सत्ता का ऐसा केंद्रीयकरण रहेगा जहाँ थोड़े से लोग अपने फैसले से किसी को अमीर और किसीको गरीब बना सकें और समाज में घोर गैर-बराबरी भी रहेगी तब तक भ्रष्टाचार के दबाव से समाज मुक्त नहीं हो सकता । यही कारण है कि दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी और आदर्शवादी लोग सत्ता में जाते ही नैतिक फिसलन के शिकार बन जाते हैं । एक ऐसे समाज में ही जहाँ जीवन का प्रधान लक्ष्य संपत्ति और इसके प्रतीकों का अंबार लगाकर कुछ लोगों को विशिष्टता प्रदान करने की जगह लोगों की बुनियादी और वास्तविक जरूरतों की पूर्ति करना है भ्रष्ट आचरण नीरस बन सकता ।

    भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समता मूलक समाज बनाने के आंदोलन के क्रम में ही हो सकता है जहाँ समाज के ढाँचे को बदलने के रा्ष्ट्रव्यापी आंदोलन के संदर्भ में स्थानीय तौर से भ्रष्टाचार के संस्थागत बिंदुओं पर भी हमला हो सके । बिहार में चलने वाले १९७४ के छात्र आंदोलन की कुछ घटनायें इसका उदाहरण हैं, जिसमें एक अमूर्त लेकिन महान लक्ष्य ’संपूर्ण क्रांति’ के संदर्भ में नौजवानों में एक ऐसी उर्जा पैदा हुई कि बिहार के किशोरावस्था के छात्रों ने प्रखंडों में और जिलाधीशों के बहुत सारे कार्यालयों में घूसखोरी आदि पर रोक लगा दी थी । लेकिन न तो संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य स्पष्ट था और न उसके पीछे कोई अनुशासित संगठन ही था । इसलिए जनता पार्टी को सत्ता की राजनीति के दौर में वह सारी उर्जा समाप्त हो गई ।

    अंतत: हर बड़ी क्रांति कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्दगिर्द होती है । इन्हीं मूल्यों से प्रेरित हो लोग समाज को बदलने की पहल करेते हैं । हमारे देश में , जहां परंपरागत मूल्यों का ह्रास हो चुका है और आधुनिक औद्योगिक समाज की संभावना विवादास्पद है , भ्रष्टाचार पर रोक लगाना तभी संभव है जब देश को एक नयी दिशा में विकसित करने का कोई व्यापक आंदोलन चले । इसके बिना भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास विफलताओं और हताशा का चक्र बनाते रहेंगे ।

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माननीय अन्ना,

जन लोकपाल कानून बनाने से जुड़ी मांग पूरी हुई । देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो गुस्सा है वह इस जायज मांग के समर्थन में कमोबेश प्रकट हुआ । आपने इसके समर्थन में अनशन किया और भ्रष्टाचार से त्रस्त तरुणों की जमात ने उसका स्वत:स्फूर्त समर्थन किया ।

अनशन की शुरुआत में जब आपने इस लड़ाई को ’दूसरी आजादी की लड़ाई’ कहा तब मुझे एक खटका लगा था ।  मेरी पीढ़ी के अन्य बहुत से लोगों को भी निश्चित लगा होगा।  जब जनता को तानाशाही  और  लोकतंत्र  के बीच चुनाव का अवसर मिला था तब भी लोकनायक ने  जनता से कहा था ,’जनता पार्टी को वोट दो , लेकिन वोट देकर सो मत जाना’ । जनता की उस जीत को ’दूसरी आजादी ’ कहा गया ।  जाने – अन्जाने उस आन्दोलन के इस ऐतिहासिक महत्व को गौण नहीं किया जाना चाहिए ।

’भ्रष्टाचार करेंगे नहीं , भ्रष्टाचार सहेंगे नहीं ’ का संकल्प लाखों युवा एक साथ लेते थे । ’भ्रष्टाचार मिटाना है , भारत नया बनाना है ’ के नारे के साथ जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार , फिजूलखर्ची और दो तरह की शिक्षा नीति के खिलाफ लगातार कार्यक्रम लिए जाते थे। सम्पूर्ण क्रांति के लोकनायक जयप्रकाशसंघर्ष वाहिनी के साथियों ने पटना के एक बडे होटल में बैठक में जाने से जेपी को भी रोक दिया था ।फिजूलखर्ची , शिक्षा में भेद भाव और दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा से भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है , यह समझदारी थी। हजारों नौजवानों ने बिना दहेज ,जाति तोड़कर शादियाँ की। सितारे वाले होटलों और पब्लिक स्कूलों के खिलाफ प्रदर्शन होते थे । टैक्स चुराने वाले तथा पांच सितारा संस्कृति से जुड़े तबकों को जन्तर –मन्तर में देखने के बाद यह स्मरण करना लाजमी है ।

उस दौर में हमें यह समझ में आया कि तरुणों में दो तरह की तड़प होती है । ’मैं इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूँ ’  – पहली किस्म की तड़प ।मात्र इस समझदारी के होने पर जिन्हें नौकरी मिल जाती है और भ्रष्टाचार करने का मौका भी, वे तब शान्त हो जाते हैं । ’ यह व्यवस्था अधिकांश लोगों को नौकरी दे ही नहीं सकती इसलिए पूरी व्यवस्था बदलने के लिए हम संघर्ष करेंगे ’– इस दूसरे प्रकार की समझदारी से यह तड़प पैदा होती है ।

प्रशासन के ढाँचे में भ्रष्टाचार और दमन अनर्निहित हैं । सरकारी अफसर , दरोगा , कलेक्टर,मजिस्ट्रेट और सीमान्त इलाकों में भेजा गए सेना के अधिकारी आम नागरिक को जानवर जैसा लाचार समझते हैं । रोजमर्रा के नागरिक जीवन में यह नौकरशाही बाधक है । प्रशासन का ढांचा ही गलत है इसलिए घूसखोरी ज्यादा होती है ।

समाजवादी नेता किशन पटनायक कहते थे,’यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । पुलिस,मंत्री,जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ़ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । जिस समाज में न्याय होगा उसकी उत्पादन क्षमता और उपार्जन क्षमता बढ़ जाएगी इसलिए निश्चित समय में फैसले के लिए जजों की संख्या बढ़ाने का बोझ सहा जा सकता है।’

अन्ना , सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के बरसों बाद नौजवानों का आक्रोश  समाज को उल्टी दिशा में ले जाने के लिए प्रकट हुआ था,मण्डल विरोधी आन्दोलन से । मौजूदा शिक्षा व्यवस्था श्रम के प्रति असम्मान भर देती है ।सामाजिक न्याय के लिए दिए जाने वाले आरक्षण के संवैधानिक उपाय को रोजगार छीनने वाला समझ कर वे युवा मेहनतकश तबकों के प्रति अपमानजनक तथा क्रूर भाव प्रकट करते रहे हैं । रोजगार के अवसर तो आर्थिक नीतियों के कारण संकुचित होते हैं । आपके आन्दोलन में इन युवाओं का तबका शामिल है तथा इस बाबत उनमें प्रशिक्षण की जिम्मेदारी नेतृत्व की होगी । कूएँ में यदि पानी हो तब सबसे पहले प्यासे को देने की बात होती है । यदि कूँए में पानी ही न हो तब उसका गुस्सा प्यासे पर नहीं निकालना चाहिए । उम्मीद है कि भ्रष्टाचार विरोधी युवा यह समझेंगे ।

मौजूदा प्रधानमंत्री जब वित्तमंत्री थे तब शेयर बाजार की तेजी से उत्साहित हो वे वाहवाही लूट रहे थे , दरअसल तब हर्षद मेहता की रहनुमाई में प्रतिभूति घोटाला किया जा रहा था। इस मामले की जाँच के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने पाया था कि चार विदेशी बैंकों चोरी का तरीके बताने में अहम भूमिका अदा की थी । उन बैंकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई । उदारीकरण के दौर का वह प्रथम प्रमुख घोटाला था । तब से लेकर अभी कुछ ही समय पूर्व अल्युमिनियम की सरकारी कम्पनी नाल्को के प्रमुख ए.के श्रीवास्तव तथा उनकी पत्नी चाँदनी के १५ किलोग्राम सोने के साथ पकड़े जाने तक भ्रष्टाचार के सभी प्रमुख मामले उदारीकरण की नीति की कोख से ही पैदा हुए हैं। इन नीतियों के खिलाफ भी जंग छेड़नी होगी ।

अंतत: किन्तु अनिवार्यत: नई पीढ़ी को साधन-साध्य शुचिता के  विषय में भी बताना होगा ।आप से बेहतर इसे कौन समझा सकता है ? लोकपाल कानून के दाएरे में सरकारी मदद पाने वाले स्वयंसेवी संगठन तो शायद आ जाएंगे । आवश्यकता इस बात की है विदेशी पैसा लाने के लिए सरकार से विदेशी सहयोग नियंत्र्ण कानून (एफ.सी.आर.ए.) का प्रमाण पत्र  लेने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं पर भी लोकपाल कानून की निगरानी तथा पारदर्शिता के लिए सूचना के अधिकार के प्रावधान भी लागू किए जाने चाहिए ।

इस व्यवस्था ने योग्य नौजवानों के समूह को भी रिश्वत देनेवाला बना दिया है । चतुर्थ श्रेणी की नौकरी पाने के लिए भी मंत्री , दलाल और भ्रष्ट अधिकारियों को घूस देनी पड़ती है । भ्रष्टाचार के खिलाफ बनी जागृति के इस दौर में आप तरुणों की इस जमात से घूस न देने का संकल्प करवायेंगे इस उम्मीद के साथ ।

(साभार : जनसत्ता , १२ अप्रैल,२०११ )

५, रीडर आवास,जोधपुर कॉलोनी ,काशी विश्वविद्यालय , वाराणसी – २२१००५.

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सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे जन लोकपाल विधेयक के समर्थन में आज से अनशन करेंगे । देश भर में ,कई शहरों-कस्बों में आज उनके समर्थन में दिन भर का प्रतीक अनशन होगा । मेरे शहर बनारस के भ्रष्टतम लोगों की जमात ’जागो बनारस’ के नाम पर लामबन्द है । स्कू्ली पढ़ाई के धन्धे से जुड़ा शहर का सबसे बदनाम व्यक्ति इस पहल का प्रमुख है । दीपक मधोक नगर पालिका में नौकरी करता था और साथ में ठेकेदारी।ठेकेदारी ज्यादा चलने लगी तो नौकरी छोड़ दी । पैसेवालों के लिए स्कूलों का जाल बिछा दिया । स्वाभाविक है कई जगह ऐतिहासिक महत्व के भूखण्डों पर कब्जा करके भी इनके स्कूल बने हैं । क्या दो तरह की तालीम भी रहेगी और देश भ्रष्टाचार विहीन हो जाएगा?

इसी प्रकार निजी अस्पतालों में गरीबों की मुफ़्त चिकित्सा के नाम पर बड़ा घोटाला इस शहर में हाल ही में हुआ था। गरीबी की रेखा के नीचे वाले मरीजों की चिकित्सा के लिए सरकार से जो आर्थिक मदद मिलती है उसे बिना किसी को भर्ती किए डकार जाने वाले डॉक्टरों के निजी अस्पताल! इनके समर्थन में तथा सरकार से नॉन प्रैक्टिसिंग एलाउन्स पाने के बावजूद निजी प्रक्टिस करने वाले डॉक्टरों के हक में बोलने वाले इंडियन मेडिकल एसोशियेशन की इकाई भी जुट गई है। क्या आई.एम.ए ने इन अस्पतालों और चिकित्सकों के खिलाफ़ कोई प्रस्ताव पास किया है? क्या समाज के ये महत्वपूर्ण तबके भ्रष्टाचार किए बिना ऐसे अभियान में शामिल हो रहे हैं ?

अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाये अपने कर्मचारियों को चेक से वेतन नहीं देतीं। कागज पर ज्यादा राशि होती है और अन्तर संस्था-संचालक की कमाई । ऐसी कुछ संस्थायें भी इस अभियान में शरीक हैं ।

तमाम कमियों के बावजूद संसदीय लोकतंत्र सर्वाधिक योग्य प्रणाली है। इसमें सुधार की गुंजाइश है लेकिन जिस भी रूप में यह लोकतंत्र है उसका संचालन राजनीति और दलीय राजनीति द्वारा ही होता है। जनता के मन में स्वच्छ-सकरात्मक राजनीति के प्रति अनास्था पैदा करना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है ।

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पिछले भाग : एक , दो , तीन , चार

दृढ़ इच्छा के साथ समाधान ढूँढने पर सैकड़ों तरीके निकल सकते हैं लेकिन इस वक्त आम आदमी के अलावा दूसरा कोई समूह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए आतुर नहीं है । आम आदमी की आतुरता असहायता में व्यक्त होती है । राजनेता या बुद्धिजीवी समूह अगर आतुर होगा तो उससे उपाय निकलेगा । इस बढ़ते हुए अन्धविश्वास को खतम करना होगा कि भ्रष्टाचार विकास का एक अनिवार्य नतीजा है । विकासशील देशों के सारे अर्थशास्त्री इस अन्धविश्वास के शिकार बन चुके हैं कि मूल्यवृद्धि विकास के लिए जरूरी है । अब भ्रष्टाचार के बारे में इस प्रकार की धारणा बनती जा  रही है । बुद्धिजीवियों की चुप्पी से लगता है वे इसको सिद्धान्त के रूप में मान लेंगे । जवाहरलाल विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ईश्वरी प्रसाद का कहना है कि विश्व बैंक अपनी रपट और विश्लेषण आदि में इस प्रकार की टिप्पणी करने लगा है कि लोग टैक्स चोरी , रि्श्वत , तस्करी आदि को नैतिकता का सवाल न बनायें , इनको व्यापारिक कुशलता जैसा गुण समझें । विश्व बैंक के साथ विकाशील देशों के प्रतिभासम्पन्न अर्थशास्त्रियों का एक खास सम्बन्ध रहता है । विकासशील देशों के अर्वश्रेष्ठ समाजशास्त्रियों , अर्थशास्त्रियों को विश्वबैंक , अमरीका आदि की संस्थायें बड़ी- बड़ी नौकरियाँ देती हैं । विकासशील देशों के बारे में पश्चिम के विद्वान जिस प्रकार का शास्त्र बनाना चाहते हैं , उसी के अनुकूल निबन्ध और शोध लिखनेवालों को वे प्रोत्साहित करना चाहते हैं । इसलिए जाने-अनजाने विकासशील देशों के विद्वान उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने लगते हैं जो पश्चिम के विद्वानों के मनमुताबिक हों । इस तरह हमारे सर्वश्रेष्ठ विद्वानों के अन्दर भ्रष्ताचार फैला हुआ है । राष्ट्र का मस्तिष्क भ्रष्टाचार का शिकार बनता जा रहा है ।

( स्रोत – सामयिक वार्ता , फरवरी , १९८८ )

आगे : भ्रष्टाचार की बुनियाद कहाँ है ?

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पिछले भाग : एक , दो , तीन

प्रशासनिक सुधार

प्रशासनिक सुधार भ्रष्टाचार रोकने के लिए दूसरे नम्बर पर आता है । फिर भी अगर मौलिक ढंग का सुधार हो तो काफी असरदार हो सकता है । राज्य मूलरूप से एक दण्ड व्यवस्था और सुरक्षा व्यवस्था है । जहाँ दण्ड और सुरक्षा विश्वसनीय नहीं रह जाती हैं वहाँ राज्य और उसके अनुशासन के प्रति आस्था कमजोर हो जाती है । अदालतों के द्वारा सजा देना दण्ड का स्थूल हिस्सा है । राज्य के प्रशासक अपना दायित्व निर्वाह करें और उसमें असफलता के लिए उत्तरदायी रहें – यह असल चीज है । आजादी के बाद के भारत में प्रशासकों का उत्तरदायित्व खतम हो गया है , जो प्रशासक एक विदेशी मालिक के सामने भय से जवाबदेही का निर्वाह करते थे , वे खुद अपने लिए शासन के नियम आदि बनाने लगे । आजादी के बाद प्रशासन का नया नियम बनाना इन्हीं पर छोड़ दिया गया और उन्होंने इस प्रकार का एक नौकरशाही का एक ढाँचा बनाया जिसमें जवाबदेही की कोई गुंजाइश ही नहीं है । कोई ईमारत या पुल या बाँध बनाया है और बनने के एक साल बाद ढह जाता है – ऐसी घटनायें सैकड़ों होती रहती हैं । उसकी जवाबदेही के बारे में सर्वसाधारण को कुछ मालूम नहीं रहता है । इस प्रकार की असफलता या लापरवाही के लिए कोई प्रतिकार भारतीय शासन व्यवस्था में नहीं है । जन साधारण के प्रति प्रशासक कभी भी जवाबदेह नहीं रहता है ।गुलामी के दिनों में अपने विदेशी मालिकों के प्रति भारतीय प्रशासकों की जितनी वफ़ादारी थी , अपने देश के जनसाधारण के प्रति अगर उसकी आधी भी रहती तो भ्रष्टाचार का एक स्तर खत्म हो जाता । लोकतंत्र में केवल राजनेता प्रशासकों को जवाबदेह नहीं बना सकता है क्योंकि लोकतंत्र में राजनेता और प्रशासन का गठबंधन भी हो जाता है । जनसाधारण को अधिकार रहे कि उसको सही समय पर , सही ढंग से कानून के मुताबिक प्रशासन मिले । अगर कोई पेंशन का हकदार है और अवकाश लेने के बाद दो साल तक उसको पेंशन नहीं मिलती है; किसानों को जल आपूर्ति नहीं हो रही है और उनसे सालों से जल कर लिया जा रहा है ; किसी का बकाया सरकार पर है और सालों बाद उसे बिना सूद वापस मिलता है – ये सारी हास्यास्पद घटनायें रोज लाखों लोगों के साथ होती रहती हैं । इसलिए आम आदमी के लिए लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है । विकसित देशों में लोकतंत्र हो या तानाशाही , आम आदमी इतना असहाय नहीं रहता है । इसका सम्पर्क लोकतंत्र या तानाशाही से नहीं है बल्कि प्रशासन प्रणाली से है । प्रशासन के स्तर पर किस प्रकार के सुधार भ्रष्टाचार निरोधक होंगे , उसके और कुछ उदाहरण हम नीचे दे रहे हैं ।

पुलिस , मिनिस्टर , जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । किसी अपराध में १०० रु. का जुरमाना है या दस दिन की सजा होनी है , उसके लिए २५ बार वकील को फीस देनी पड़ती है , छह महीने जेल में रहना पड़ता है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । अगर सिर्फ एक सुधार हो जाए कि न्यायालय में एक निश्चित समय के अन्दर फैसला होगा तो देर होने की वजह से होनेवाले भ्रष्टाचार में दो तिहाई कमी आ जाएगी । यदि जजों की संख्या दस गुनी भी अधिक कर दी जाए, तब भी राष्ट्र का कोई आर्थिक नुकसान नहीं होगा क्योंकि जिस समाज में न्याय होगा उसकी उपार्जन-क्षमता भी बढ़ जाती है ।

तबादला या ट्रांसफ़र प्रशासनिक भ्रष्टाचार का एक प्रमुख स्तम्भ है । तबादला कराने और रोकने के लिए बाबू से लेकर मंत्री तक सब रिश्वत लेते-देते हैं । तबादले की प्रथा ही एक औपनिवेशिक प्रथा है । प्रशासकों को जन विरोधी बनाने के लिए विदेशी शासकों ने इसका प्रचलन किया था । तबादला सिर्फ पदोन्नति या अवनति के मौके पर होना चाहिए । मध्यम और नीचे स्तर के कर्मचारियों की नियुक्ति यथासम्भव उनके गाँव के पास होनी चाहिए । अगर नियुक्ति गलत जगह पर नहीं हुई है तो तबादला दस साल के पहले नहीं होना चाहिए । बड़े अफ़सरों की नियुक्ति जहाँ भी हो , लम्बे समय तक होनी चाहिए ताकि उनके कार्यों का परिणाम देखा जा सके । अधिकांश निर्णय नीचे के कर्मचारियों और पंचायत जैसी इकाइयों के हाथ में होना चाहिए ताकि निर्णय की जिम्मेदारी ठहराई जा सके । गुलामी के दिनों में जब कलक्टर और पुलिस अफ़सर भी अंग्रेज होते थे , गोरे लोग ही हर निर्णय पर अपना अन्तिम हस्ताक्षर करते थे – यही प्रथा अब भी चालू है । मामूली बातों से लेकर गंभीर मामलों के हरेक विषय के लिए निर्णय की इतनी सीढ़ियाँ हैं कि गलत निर्णय की जिम्मेदारी नहीं ठहराई जा सकती है ।

पिछले वर्षों में योग्य नौजवानों का समूह रिश्वत देनेवाला बन गया है । प्रथम श्रेणी में एम.एससी पास करने के बाद सप्लाई इन्स्पेक्टर की नौकरी पाने के लिए मंत्री और दलाल को रुपए देने पड़ते हैं । रिश्वत की रकम अक्सर बँधी रहती है | रोजगार के अधिकार को सांवैधानिक अधिकार बनाकर इस रिश्वत को खतम किया जा सकता है । बेरोजगारी का भत्ता इसके साथ जुड़ा हुआ विषय है । इसकी माँग एक लम्बे अरसे से देश के नौजवानों की ओर से की जा रही है , फिर भी योजना आयोग या विश्वविद्यालयों की ओर से अभी तक एक अध्ययन नहीं हुआ कि इसके अच्छे या बुरे परिणाम क्या होंगे , सरकार पर इसका कितना बोझ पड़ेगा इत्यादि । नौजवानों को भ्रष्टाचार का शिकार होने देना और बेकारी भत्ते को सांवैधानिक बनाकर सरकारी खर्च बढ़ाना – इसमें से कौन बुराई कम हानिकारक है ? हो सकता है कि दोनों के परे कोई रास्ता दिखाई दे ।

[ अगला भाग : विकास और मूल्यवृद्धि ]

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