…सातवीं क्रांति का लक्ष्य समूह के हस्तक्षेप से व्यक्ति के निजी जीवन की रक्षा करना है। संगठन लगातार व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण करता रहा है।इसका यह मतलब नहीं कि व्यक्ति के महत्त्व और कल्याण में जरूरी तौर पर कमी आई है।वास्तव में उसका महत्व भी बढ़ा है,हालत भी सुधरी है,खास तौर पर उन्हीं इलाकों में जहां स्वतंत्रता में कमी आई है।व्यक्ति का कल्याण और सुख,शिक्षा और स्वास्थ्य,और उसका आराम भी,दरअसल उसके जीवन और विचार का बड़ा हिस्सा विभिन्न प्रकार की योजनाओं का विषय बन गया है।यह नियोजन साम्यवादी देशों में अधिक कठोर है, लेकिन संगठनात्मक बाध्यता का एक तत्व हर जगह मौजूद है।व्यक्ति की स्वतंत्रता की क्रांति पर विचार करते हुए हमें भलाई के लिए आयोजन संबंधी अपने युग की ख़ासियत को ध्यान में रखना चाहिए।
सरकारी आयोजन का लक्ष्य हमेशा भलाई करना ही होता है।उसमें अगर कोई बुराई पैदा होती है तो अनिच्छित और प्रासंगिक परिणाम के रूप में।इस बुराई की जड़ बाध्यता में होती है।जब लोगों को मजबूर किया जाता है कि वे बुरे की जगह अच्छे को चुनें, तो अनिवार्य ही उसके कुछ बुरे परिणाम निकलते हैं।अच्छाई के विभिन्न प्रकार होते हैं और उनमें अलग अलग प्राथमिकताएं होती हैं।लेकिन इसके अलावा,क्या अच्छा है और क्या बुरा,यह बात हमेशा इतनी साफ नहीं होती जितनी योजनाएं बनाने वाले सोचते हैं।इसके अतिरिक्त सुरुचि,विवेक,ज्ञान और समझ का विकास ज्यादा अच्छा होता है जब चुनाव करने और गलती करने की आजादी होती है।जिन देशों में सरकारी नियोजन नही है,वहां निजी मुनाफे के संगठनों के भी लगभग वैसे ही परिणाम निकलते हैं।वरण की सारी घोषित स्वतंत्रता के बावजूद,जिन देशों में सरकारी नियोजन नहीं है,वहां भी शिक्षा,सूचना और मनोरंजन एक खास स्वीकृत दायरे के अंदर ही रहते हैं।इसके अलावा,इनका ज्यादा और नीचा एयर एकरसता-भर स्तर ही आमतौर पर चलता है।लक्ष्य चाहे मुनाफा हो या कोई आदर्श,संगठन व्यक्ति को बाध्य करते हैं।यद्यपि इससे इनकार करना व्यर्थ है कि तानाशाही बाध्यता ज्यादा गहरी और चतुराई भरी होती है।
भलाई करने का संगठित प्रयत्न हमारे युग की खासियत है।जो बिल्कुल पूंजीवादी समाज हैं,उनमें भी किसी प्रकार वे बेकारी भत्ते या बीमारी-बीमे की व्यवस्था जरूरी हो गई है।जिन क्षेत्रों या उद्योगों की ओर निजी पूंजी आकर्षित नहीं होती,उनमें राज्य का पूंजी लगाना भी काफी आम बात हो गई है।इसलिए ऐसा माना जा सकता है कि भलाई के उद्देश्य से नियोजन और बढ़ेगा।इसके साथ निजी जीवन में हस्तक्षेप भी बढ़ेगा।
क्या निजी हैऔर क्या सार्वजनिक इसकी परिभाषा करना आसान नहीं है।बहुत कुछ देश और पीढी की मान्यताओं पर निर्भर होता है।लेकिन बाध्यता और सार्वजनिकता के वातावरण से अलग स्वतंत्रता और निजता के वातावरण को पहचानना उतना मुश्किल नहीं।
सोवियत रूस में जो इस समय हो रहा है,वह इस संदर्भ में एक प्रवृत्ति के रूप में महत्वपूर्ण है।आज संगीत और अमूर्त चित्रकला की संगठन द्वारा जितनी आलोचना होती है,उतना ही कुछ निजी क्षेत्रों में उनकी लोकप्रियता बढ़ रही है।कवि और उपन्यासकार गाने या रोने की स्वतंत्रता माँग रहे हैं।किसी दिन ये सभी क्षेत्र निजी मान लिए जाएंगे जिन्हें राज्य या संगठन के हस्तक्षेप से बचाया जाए।इसके साथ ही संपत्ति सबंधी कुछ रूढ़ धारणाओं में भी ढीलापन आ रहा है।
गोरे लोगों के बीच यही असली बहस चल रही है।उनमें जो लोकतंत्र के समर्थक हैं उनका आग्रह है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को स्वीकार करने पर किसी-न-किसी रूप में निजी संपत्ति और उसके पुरस्कार को भी मान्यता देने होगी।लेकिन तर्क की दृष्टि से संपत्ति और व्यक्ति-स्वातंत्र्य के बीच कोई सीधा संबंध आवश्यक नही प्रतीत होता।व्यवहार में संपत्ति के साम्यवादी स्वामित्व के फलस्वरूप बच्चे पैदा करने से लेकर भाषण देने तक सभी प्रकार के संबंधों में निजी जीवन में हस्तक्षेप हुआ है।अतः ख़तरे के ये संकेत हमेशा रहेंगे।निजी जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को उन सभी क्षेत्रों में स्वीकार करना होगा जिनका संपत्ति से कोई सीधा संबंध नहीं है।आधुनिक जीवन में पारस्परिक संबंध दरअसल इतने पेचीदा हैं कि सीधी या सरल परिभाषाओं से काम नहीं चल सकता।मिसाल के लिए घरेलू प्रबंध या मनोरंजन में निजी जीवन की स्वतंत्रता का संपत्ति की व्यवस्था पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ सकता है।तब क्या किया जाए? हमें जोखिम उठाने को तैयार रहना चाहिए।मिसाल के लिए संपत्ति की व्यवस्था अगर प्रभावित नही होती ,तो इस आधार पर निजी जीवन मे हस्तक्षेप की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए कि निजी संपत्ति की भावना को प्रोत्साहन मिलता है।
(यह लेख डॉ लोहिया की अंग्रेजी किताब ‘ मार्क्स,गांधी एन्ड सोशलिज्म’ की भूमिका से उनके निकट साथी ओमप्रकाश दीपक द्वारा अनुदित है।लेख उन्होंने 1963 में लिखा था।अनुवाद 1970 में प्रकाशित हुआ।लोहिया का यह अंतिम लेख है।)
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