पिछले भाग से आगे ;
तो भारतीय बुद्धिजीवी को जब पश्चिमी सभ्यता अधूरी लगती है , तब वह प्राचीनता की किसी गुफा में घुस जाता है और जब वह अपनी सभ्यता के बारे में शर्मिन्दा होता है तब पश्चिम का उपनिवेश बन कर रहना स्वीकार कर लेता है । दोनों सभ्यताओं से संघर्ष करने की प्रव्रुत्ति भारतीय बुद्धिजीवी जगत में अभी तक नहीं विकसित हुई है या जो हुई थी , वह खत्म हो गई है । गांधी के अनुयाई गुफाओं में चले गये। रवि ठाकुर के लोग अंग्रेजी और अंग्रेजियत के भक्त हो गये । गांधी के एक शिष्य राममनोहर लोहिया ने ‘इतिहास चक्र’ नामक एक किताब लिखी । एक नई सभ्यता की धारा चलाने के लिए आवश्यक अवधारणाएं प्रस्तुत करना इस किताब का लक्ष्य था । अंग्रेजी में लिखित होने के बावजूद बुद्धिजीवियों ने उसे नहीं पढ़ा । औपनिवेशिक दिमाग नवनिर्माण की तकलीफ को बर्दाश्त नहीं कर सकता । ज्यादा-से-ज्यादा वह प्रचलित और पुरानी धाराओं को साथ-साथ चलाने की कोशिश करता है और दोनों के लिए कम-से-कम प्रतिरोध की रणनीति अपनाता है । आम जनता पर दोनों प्रतिकूल सभ्यताओं का बोझ पड़ता है और वह अपनी तकलीफ के अहसास से आन्दोलित होती है । सभ्यताओं से संघर्ष की इच्छा शक्ति के अभाव में देश के सारे राजनैतिक दल अप्रासंगिक और गतिहीन हो गए हैं । जनता के आन्दोलन को दिशा देने की क्षमता उनमें नहीं रह गई है । जन-आन्दोलनों का केवल हुंकार होता है, आन्दोलन का मार्ग बन नहीं पाता । जहां क्षितिज की कल्पना नहीं है, वहां मार्ग कैसे बने ? इस कल्पना के अभाव में क्रान्ति अवरुद्ध हो जाती है ।
ऐसी स्थिति में यही कहना काफी नहीं होगा कि सभ्यता के स्तर पर समस्याओं का सामना करना पड़ेगा । मुकाबले की रणनीति भी बनानी पड़ेगी । किन बिन्दुओं पर हम सभ्यता या सभ्यताओं से टकराएंगे ? आधुनिक सभ्यता ने हमें कहां गुलाम बनाया है ? प्राचीन सभ्यता ने हमें कहां दबोच रखा है और पंगु बनाया है ? आज हम किन बिन्दुओं पर किस प्रकार का विद्रोह कर सकते हैं ? इन ठोस सवालों से जो नहीं जूझेगा , वह गांधी की प्रशंसा करेगा तो तो नेहरू का भी समर्थन करेगा । यह एक बौद्धिक बाजीगरी होगी, संघर्ष नहीं होगा,सृजन नहीं होगा । सभ्यताओं से जो तकरायेगा , उसे कुछ झेलना पड़ेगा। अपने वर्ग और तबके में उसे अप्रिय और कटु होना पड़ेगा ।
आधुनिक सभ्यता की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह दुनिया को अपने मानदंडों के अनुसार आधुनिक नहीं बना नहीं सकती । बारी – बारी से वह कुछ इलाकों को प्रलोभित करती है कि ‘ तुमको आधुनिक बना सकती हूं अमरीकी ढंग से नहीं , तो रूसी ढंग से ।’ पूरी दुनिया को एक समय के अन्दर आधुनिक बना सकने का दावा अभी तक वह कर नहीं सकी है। अतः यह सभ्यता दुनिया के बड़े हिस्से को उपनिवेश बना कर ही रख सकती है , जिसके लिए आधुनिक सभ्यता का अर्थ उपभोग का कुछ सामान मात्र है ।
प्राचीन सभ्यता का सबसे बड़ा अपराध यह है कि राष्ट्रीयता और सामाजिक समता के मूल्य उसमें नहीं हैं । जो भारतीय सभ्यता अब बची हुई है , उसकी सारी प्रवृत्ति इन मूल्यों के विरुद्ध है । मनुष्य , मनुष्य की बराबरी या आपसी प्रेम पारम्परिक भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है । ऐसे मनुष्य की संवेदनहीनता , यन्त्र की संवेदनाहीनता से कम खतरनाक नहीं है । मानव के प्रति उदासीनता प्राचीन हिन्दू संस्कृति का गुण था या नहीं , या यह वर्तमान की एक विकृति है , यह स्पष्ट नहीं है । प्राचीन भारतीय मान्यता न सिर्फ सामाजिक समता के विरुद्ध है , बल्कि वह आध्यात्मिक समता की अवधारणा को भी नकारती है । उसके अनुसार कुछ लोगों की आत्मा ही घटिया दरजे की होती है । बुद्ध ने इस मानवविरोधी प्रवृत्ति को बदलने की कोशिश की थी । लेकिन आधुनिक हिन्दू मनुष्य की विरासत में बुद्ध की धारा नहीं है । पश्चिमी सभ्यता का सबसे बड़ा गुण यह है कि उसने मानव की गरिमा और सामाजिक समानता को मूल्यों के तौर पर विकसित किया है । राष्ट्रीयता और अन्तरराष्ट्रीयता की भावना भी इन मूल्यों पर आधारित है । हिन्दू मनुष्य जब तक इन मूल्यों को आत्मसात नहीं कर लेता है , तब तक वह पश्चिम से बेहतर एक नई सभ्यता बनाने का दावा नहीं कर सकता ।
आधुनिक सभ्यता ने हमें उपनिवेश बनाया है । प्राचीन सभ्यता ने हमें समता विरोधी और मानव विरोधी बनाया है । इन बिन्दुओं पर अगर हम सभ्यता का संघर्ष नहीं चलाते हैं तो हमारी राजनीति , प्रशासन , अर्थव्यवस्था कुछ भी नहीं बदलनेवाली है । इसके बिना हमारे साहित्य , कला , विज्ञान के क्षेत्र में भी कोई उड़ान नहीं हो सकेगी । आधुनिक सभ्यता से संघर्ष की शुरुआत औपनिवेशिक मानस को झकझोरने से होगी । उपभोगवाद , बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सांस्कृतिक परनिर्भरता को निशाना बनाकर ही यह कार्यक्रम हो सकेगा । दूसरी ओर , हिन्दू मानसिकता और हिन्दू समाज को सुधारने के लिए उग्र कार्यक्रम की जरूरत है ।
यह मानसिकता कितनी अपरिवर्तित है ही , इसका प्रमाण हरिजनों की प्रतिक्रिया से मिलता है । हाल की घटनाएं बतलाती हैं कि हरिजनों को धर्म-परिवर्तन के लिए बड़ी संख्या में तैयार किया जा सकता है । हरिजनों के लिए मानव का दरजा प्राप्त करने के दो ही रास्ते दीखते हैं – धर्म-परिवर्तन और आरक्षण । आरक्षण का मतलब है हिन्दू मन की उदारता । क्या इस वक्त हिन्दू मन उतनी उदारता के लिए पूरी तरह तैयार है ? जिन दिनों दयानन्द , विवेकानन्द या गांधी हिन्दू समाज के नेता थे , उनका प्रयास और प्रभाव हिन्दू मन को मानवीय बनाने का था । हिन्दू समाज को पिघलाना उनका काम था । जब हिन्दू समाज पिघलता है तब भारतीय राष्ट्र बनता है , हिन्दू समाज जहां जड़ होता है , वहां भारतीय राष्ट्र के सिकुड़ने का डर रहता है ।
दो सभ्यताओं से एक साथ टकराना सत्ता की अल्पकालीन राजनीति में संभव नहीं है । मौजूदा राजनीतिक दलों की क्षमता के अनुसार उनका एकमात्र जायज लक्ष्य हो सकता है – लोकतंत्र के ढांचे की रक्षा करना । अगर ये दल इतना भी नहीं कर सकते तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि सभ्यताओं से लड़े बिना लोकतंत्र की रक्षा सम्भव नहीं है । ऐसी स्थिति में आम जनता के विद्रोहों का राजनीतिकरण नहीं होगा । कभी – कभी विद्यार्थियों में , कभी किसानों में , कभी दलितों में , कभी उपेक्षित इलाकों में खंड-विद्रोह होते हैं । इन तबकों और इलाकों पर दोनों सभ्यताओं का बोझ पड़ता है । मौजूदा राजनैतिक दलों का जो वैचारिक ढांचा है , उसमें इन समूहों की मुक्ति हो नहीं सकती । उनकी मुक्ति के लिए एक नया वैचारिक ढांचा चाहिए । जनता के खंड – विद्रोहों और नए वैचारिक ढांचे के सम्मिश्रण से एक नई राजनीति पैदा हो सकती है ।
वैचारिक संघर्ष बुद्धिजीवी ही करेगा । बुद्धिजीवी का मतलब बुद्धिजीवी वर्ग नहीं है । भारत का बुद्धिजीवी वर्ग अभी मानसिक स्तर पर दोगला ही रहेगा । लेकिन टोलियों में या व्यक्ति के तौर पर बुद्धिजीवी एक नई सभ्यता-निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हो सकता है । सारे बुद्धिजीवियों से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वे संगठन या हड़ताल चलायें । लेकिन यह अपेक्षा जरूर रहेगी कि आचरण के स्तर पर वे अपने विचार-संघर्ष को झेलें , ताकि विचारों का सामाजिक प्रभाव बने ।
( स्रोत : सामयिक वार्ता , जनवरी ,१९८२ )
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सभ्यता का संकट और भारतीय बुद्धिजीवी (२) / किशन पटनायक
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