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Archive for मार्च, 2011

अलबम के कैप्शन ’डॉ. राममनोहर लोहिया’ पर खटका मारें ।) १५ चित्रों का यह संग्रह सुधेन्दु पटेल ने आज ही फेसबुक पर जारी किया है । उनका नोट –
“डॉ. लोहिया को बंदगी डॉ. राम मनोहर लोहिया की देशभक्ति नि:सीम थी | देश की चतुर्दिक सीमाओं, ‘उर्वसीअ’ से कच्छ तक, हिमालय से कन्याकुमारी तक, अपने देश के हर हिस्से में वे गये थे | उस क्षेत्र को संपूर्णतया में समझने की कोशिश की थी | वहां के लोगो को अपना बनाया था | वे उनके सगे से थे | वे जाग्रत नेता थे | उनका चिंतन विश्वचित्त मूलक था | सप्तक्रांति के स्वप्नदृष्टा की कथनी करनी में संभव मेल था | मानवीयता में रंच मात्र झोल उन्हें अस्वीकार था | आदमी पर आदमी की सवारी उन्हें नामंजूर था | पशु पर भी भारी भरकम बोझ लादना ठीक नहीं मानते थे | वे मेरे “नायक” रहे हैं, अब भी हैं | संभव कोशिश करता हूँ कि उनकी कथनी की कसौटी पर अपने को घिसता रहूँ | यह और बात है कि समय की जेट रफ़्तार ने सब कुछ “सुनामी” सा उलट पलट गया है, मर्मान्तक की हद को लांघता हुआ | संभवतया, पहली बार “सब के लिए” डॉ. राम मनोहर लोहिया के चंद दुर्लभ छायाचित्र | ( भगत सिंह की शहादत का दिन २३ मार्च, इसीलिए डॉ लोहिया अपना जन्मदिन नहीं मनाने देते थे | इन दोनों पुरखो को नमन | )”
द्वारा: Sudhendu Patel

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खबर है कि जापान के वैज्ञानिक एक ऐसे रोबोट के विकास में लगे है, जो बूढ़े  लोगो की उसी तरह मदद व सेवा करेगा जैसे एक इंसान करता है। वहाँ की बढ़ती हुई आबादी के लिए इसे वरदान बताया जा रहा है। विज्ञान और तकनालाजी के आधुनिक चमत्कारों की श्रृंखला में यह एक और कड़ी जुड़ने वाली है। क्या सचमुच यह वरदान है? क्या फिर आधुनिक जीवन और आधुनिक सभ्यता की एक और विडंबना? क्या इससे जापान के बूढ़े लोगों की समस्याएं हल हो सकेगी? वृद्धावस्था में अपने नजदीकी परिजनों द्वारा देखभाल, स्नेह व सामीप्य की जो जरुरत होती है, क्या वह पूरी हो सकेगी? क्या उनका अकेलापन व बैगानापन दूर हो सकेगा? क्या एक मशीन इंसान की जगह ले सकेगी ? इन सवालों को लेकर एक बहस छिड़ गई है ? जापान और तमाम संपन्न देशों में यह सचमुच एक संकट है। नए जमाने में दंपत्तियों द्वारा कम बच्चे पैदा करने और जन्म दर कम होने से वहाँ की आबादी में बुजुर्गों का अनुपात बढ़ता जा रहा है, लेकिन उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। बढ़ी तादाद में ये बुजुर्ग अब अकेले रहने को मजबूर हैं या फिर उन्हें वृद्धाश्रमों में भेज दिया जाता है। वहां नर्सें व अन्य वैतनिक कर्मचारी उनकी देखभाल करते है। उनके परिजन बीच-बीच में फोन कर लेते हैं। और कभी कभी जन्मदिन या त्योहारों पर गुलदस्ता  लेकर उनसे मिलने चले आते हैं। इन बूढ़ों की जिदंगी घोर एकाकीपन, खालीपन व बोरियत से भरी रहती है। उनके दिन काटे नहीं कटते। इधर मंदी व आर्थिक संकट के कारण ये वृद्धाश्रम भी कई लोगों की पहुंच से बाहर हो रहेहैं। इन देशों में श्रम महंगा होने के कारण निजी नौकर रखना भी आसान नहीं है। इसलिए रोबोट जैसे समाधान खोजे जा रहे हैं, हालांकि यह रोबोट भी काफी महंगा होगा और वहां के साधारण लोगों की हैसियत से बाहर होगा। नार्वे-स्वीडन में पिछले कुछ समय से बुजुर्गों को स्पेन के वृद्धाश्रमों में भेजने की प्रवृति शुरु हुई है, क्योंकि वहां श्रम अपेक्षाकृत सस्ता होने के कारण कम खर्च आता है। याने एक तरह से वृद्धों की देखभाल की भी आउटसोर्सिंग का तरीका पूंजीवादी वैश्वीकरण ने निकाल लिया है।
कुछ साल पहले फ्रांस में एकाएक ज्यादा गर्मी पड़ी, तो वहां के कई बूढ़े लोग अपने फ्लेटों में मृत पाए गए। उनके पास कोई नहीं था, जो उनको सम्भालता या अस्पताल लेकर जाता । कुल मिलाकर , आधुनिक समाज में बूढ़े एक बोझ व बुढ़ापा एक अभिशाप बनता जा रहा है। आधुनिक जीवन का यह संकट अमीर देशों तक सीमित नहीं है। यह भारत जैसे देशों में भी तेजी से प्रकट हो रहा है। संयुक्त परिवार टूटने, बच्चों की संख्या कम होने तथा नौकरियों के लिए दूर चले जाने से यहां भी बूढ़े लोग तेजी से  अकेले  व बेसहारा होते जा रहे है। खास तौर पर मध्यम व उच्च वर्ग में यह संकट ज्यादा गंभीर है। बच्चे तो  उच्च शिक्षा प्राप्त  करके नौकरियों  में दूर महानगरों में या विदेश में चले जाते है, जिनकी सफलता की फख्र से चर्चा भी मां/बाप करते हैं। किंतु बच्चों की यह सफलता उनके बुढ़ापे की विफलता बन जाती है। बहुधा जिस बेटे को बचपन में फिसड्डी, कमजोर या नालायक माना गया था, वही खेती या छोटा-मोटा धंधा करता हुआ  बुुढ़ापे का सहारा बनता है। पहले नौकरीपेशा लोगों के लिए पेंशन व भविष्य निधि से कम से कम बुढ़ापे में आर्थिक सुरक्षा रहती थी। किंतु  अब नवउदारवादी व्यवस्था में ठेके पर नौकरियों के प्रचलन से ये प्रावधान भी खत्म हो रहे है। इस बजट में आयकर की छूट के लिए आयू 65 से घटाकर 60 वर्ष करने से मध्यमवर्गीय वृद्धों कों कुछ राहत मिलेगी। किंतु 80 वर्ष के उपर के वृद्धों के लिए छूट सीमा 5 लाख रु. करना एक चालाकी है। आखिर देश मे कितने बुजुर्ग 80 से ऊपर के हांेगे जिनकी आय 5 लाख रु. तक होगी ? गरीब वृद्धों  के लिए वृद्धावस्था पेंशन की राशि नए बजट में बढ़ाकर 400 रु. प्रतिमाह की गई है, किंतु यह भी महंगाई के इस जमाने में ऊंट के मुहं में जीरे के समान है। भारत में वृद्धाश्रमों का अभी ज्यादा प्रचलन नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह मुसीबत महज बूढ़ों की है। नगरों में रहने वाले जिन परिवारों में महिलाएं काम पर जाती हैं,  वहां छोटे बच्चों की देखरेख एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। बार-बार आजमाए जाते नौकर-नौकरानी भी इस समस्या को पूरी तरह से हल नहीं कर पा रहे हैं। इससे समझ में आता है कि पुराने संयुक्त परिवारों में बच्चे और बूढ़े एक दूसरे के पूरक थे। बच्चों की देखरख के रुप में बुजुर्गों के पास भी काम व दायित्व होता था और बच्चों को भी उनकी छत्रछाया में देखभाल, प्यार, शिक्षा व संस्कार मिलते थे। वयस्कों को भी बच्चों की जिम्मेदारी से कुछ फुर्सत, सलाह, मार्गदर्शन व बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ मिल जाता था। मिंया-बीबी के झगड़े भी उनकी मौजूदगी में नियंत्रित रहते थे और विस्फोटक रुप धारण नहीं करते थे। संयुक्त  परिवार में बचपन से सामंजस्य बिठाने, गम खाने, धीरज रखने व बुजुर्गों का आदर करने का प्रशिक्षण होता था। आज इसके अभाव में नई पीढ़ी में उच्छृंखलता, व्यक्तिवाद व स्वार्थीपन बढ़ रहा है। विकलांगों , विधवाओं, परित्यक्ताओं , बूढ़ों  और अविवाहितों  के लिए भी ये परिवार एक तरह की सुरक्षा प्रदान करते थे, जिसकी भरपाई वृद्धाश्रमों या सामाजिक सुरक्षा की सरकारी  योजनाओं से संभव नहीं है। यदि कोई भाई कमाता नहीं है या कमाने में कमजोर है, सन्यांसी बन गया या किसी मुहिम का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गया, तो भी संयुक्त परिवार में उसके बच्चों का लालन-पालन हो जाता था।
संयुक्त परिवार में सब कुछ अच्छा था, ऐसा नही है। छूआछूत, परदा, बेटियों के साथ भेदभाव जैसी रुढ़ियां व प्रतिबंध उनमें हावी रहते थे और उनको तोड़ने में काफी ताकत की जरुरत होती थी। आजादख्याल लोग उनमें घुटन महसूस करते थे। सबसे ज्यादा नाइंसाफी बहुओं के साथ होती थी। सामंजस्य बिठाने का पूरा बोझ उन पर डाल दिया जाता था। सास-बहू के टकराव तो बहुचर्चित है, जो अब आधुनिक भोग संस्कृति व लालच के साथ मिलकर बहुओं को जलाने जैसी वीभत्स प्रवृतियांे का भी रुप ले रहे हैं। कुछ नारीवादी व अराजकतावादी कह सकते हैं कि संयुक्त परिवार की संस्था पितृसत्ता का गढ़ थी और वह जितनी जल्दी टूटे, उतना अच्छा है। कुल मिलाकर , संयुक्त परिवार की पुरानी व्यवस्था को आदर्श नहीं कहा जा सकता है। उसमें कई दिक्कतें थी। किंतु अफसोस की बात है कि उसकी जगह जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें और ज्यादा त्रासदियाँ है। हम खाई से निकलकर कुए में गिर रहे है। बीच का कोई नया रास्ता निकालने की कोशिश ही हमने नहीं की, जिसमें समतावादी-लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ सामाजिक क्रांति के जरिये संयुक्त परिवार के दोषों को दूर करते हुए भी उनकी खूबियों व सुरक्षाओं को बरकरार रखा जाता । जिसमें अपनी पूरी जिंदगी परिवार, समाज व देश को देने वाले बुजुर्गों के जीवन की संध्या को सुखी, सुकून भरा व सुरक्षित बनाया जा सकता हो। जिसमें ‘पुराने चावलों‘ की इज्जत भी होती और उनका भरपूर उपयोग भी होता। यह कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण के नए जमाने में गतिशीलता बढ़ने से परिवारों का बिखरना  लाजमी है। किंतु तब क्या इस पूरे आधुनिक विकास व भूमंडलीकरण पर भी पुनर्विचार करने की जरुरत नहीं है ? कई अन्य पहलूओं के साथ-साथ बूढों के नजरिये से भी क्या एक विकेन्द्रीकृत स्थानीय समाज ज्यादा बेहतर व वांछनीय नहीं होता ? अभी तक आधुनिकता की आंधी में बहते हुए इन सवालों पर हमने गौर करने की जरुरत ही नहीं समझी। किंतु यदि सामाजिक जीवन को आसन्न संकटों एवं विकृतियों से बचाना है तथा सुंदर व बेहतर बनाना है, तो इन पर मंथन करने का वक्त आ गया है।

नई दुनिया से साभार.
(ई-मेलः- sjpsunil@gmail.com )

(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं सामायिक विषयों पर टिप्पणीकार है।)
पता:- सुनील, ग्राम / पोस्ट केसला, तहसील इटारसी,  जिला होशंगाबादफोनः- 09425040452

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पिछले भाग : एक , दो , तीन , चार

दृढ़ इच्छा के साथ समाधान ढूँढने पर सैकड़ों तरीके निकल सकते हैं लेकिन इस वक्त आम आदमी के अलावा दूसरा कोई समूह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए आतुर नहीं है । आम आदमी की आतुरता असहायता में व्यक्त होती है । राजनेता या बुद्धिजीवी समूह अगर आतुर होगा तो उससे उपाय निकलेगा । इस बढ़ते हुए अन्धविश्वास को खतम करना होगा कि भ्रष्टाचार विकास का एक अनिवार्य नतीजा है । विकासशील देशों के सारे अर्थशास्त्री इस अन्धविश्वास के शिकार बन चुके हैं कि मूल्यवृद्धि विकास के लिए जरूरी है । अब भ्रष्टाचार के बारे में इस प्रकार की धारणा बनती जा  रही है । बुद्धिजीवियों की चुप्पी से लगता है वे इसको सिद्धान्त के रूप में मान लेंगे । जवाहरलाल विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ईश्वरी प्रसाद का कहना है कि विश्व बैंक अपनी रपट और विश्लेषण आदि में इस प्रकार की टिप्पणी करने लगा है कि लोग टैक्स चोरी , रि्श्वत , तस्करी आदि को नैतिकता का सवाल न बनायें , इनको व्यापारिक कुशलता जैसा गुण समझें । विश्व बैंक के साथ विकाशील देशों के प्रतिभासम्पन्न अर्थशास्त्रियों का एक खास सम्बन्ध रहता है । विकासशील देशों के अर्वश्रेष्ठ समाजशास्त्रियों , अर्थशास्त्रियों को विश्वबैंक , अमरीका आदि की संस्थायें बड़ी- बड़ी नौकरियाँ देती हैं । विकासशील देशों के बारे में पश्चिम के विद्वान जिस प्रकार का शास्त्र बनाना चाहते हैं , उसी के अनुकूल निबन्ध और शोध लिखनेवालों को वे प्रोत्साहित करना चाहते हैं । इसलिए जाने-अनजाने विकासशील देशों के विद्वान उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने लगते हैं जो पश्चिम के विद्वानों के मनमुताबिक हों । इस तरह हमारे सर्वश्रेष्ठ विद्वानों के अन्दर भ्रष्ताचार फैला हुआ है । राष्ट्र का मस्तिष्क भ्रष्टाचार का शिकार बनता जा रहा है ।

( स्रोत – सामयिक वार्ता , फरवरी , १९८८ )

आगे : भ्रष्टाचार की बुनियाद कहाँ है ?

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पिछले भाग : एक , दो , तीन

प्रशासनिक सुधार

प्रशासनिक सुधार भ्रष्टाचार रोकने के लिए दूसरे नम्बर पर आता है । फिर भी अगर मौलिक ढंग का सुधार हो तो काफी असरदार हो सकता है । राज्य मूलरूप से एक दण्ड व्यवस्था और सुरक्षा व्यवस्था है । जहाँ दण्ड और सुरक्षा विश्वसनीय नहीं रह जाती हैं वहाँ राज्य और उसके अनुशासन के प्रति आस्था कमजोर हो जाती है । अदालतों के द्वारा सजा देना दण्ड का स्थूल हिस्सा है । राज्य के प्रशासक अपना दायित्व निर्वाह करें और उसमें असफलता के लिए उत्तरदायी रहें – यह असल चीज है । आजादी के बाद के भारत में प्रशासकों का उत्तरदायित्व खतम हो गया है , जो प्रशासक एक विदेशी मालिक के सामने भय से जवाबदेही का निर्वाह करते थे , वे खुद अपने लिए शासन के नियम आदि बनाने लगे । आजादी के बाद प्रशासन का नया नियम बनाना इन्हीं पर छोड़ दिया गया और उन्होंने इस प्रकार का एक नौकरशाही का एक ढाँचा बनाया जिसमें जवाबदेही की कोई गुंजाइश ही नहीं है । कोई ईमारत या पुल या बाँध बनाया है और बनने के एक साल बाद ढह जाता है – ऐसी घटनायें सैकड़ों होती रहती हैं । उसकी जवाबदेही के बारे में सर्वसाधारण को कुछ मालूम नहीं रहता है । इस प्रकार की असफलता या लापरवाही के लिए कोई प्रतिकार भारतीय शासन व्यवस्था में नहीं है । जन साधारण के प्रति प्रशासक कभी भी जवाबदेह नहीं रहता है ।गुलामी के दिनों में अपने विदेशी मालिकों के प्रति भारतीय प्रशासकों की जितनी वफ़ादारी थी , अपने देश के जनसाधारण के प्रति अगर उसकी आधी भी रहती तो भ्रष्टाचार का एक स्तर खत्म हो जाता । लोकतंत्र में केवल राजनेता प्रशासकों को जवाबदेह नहीं बना सकता है क्योंकि लोकतंत्र में राजनेता और प्रशासन का गठबंधन भी हो जाता है । जनसाधारण को अधिकार रहे कि उसको सही समय पर , सही ढंग से कानून के मुताबिक प्रशासन मिले । अगर कोई पेंशन का हकदार है और अवकाश लेने के बाद दो साल तक उसको पेंशन नहीं मिलती है; किसानों को जल आपूर्ति नहीं हो रही है और उनसे सालों से जल कर लिया जा रहा है ; किसी का बकाया सरकार पर है और सालों बाद उसे बिना सूद वापस मिलता है – ये सारी हास्यास्पद घटनायें रोज लाखों लोगों के साथ होती रहती हैं । इसलिए आम आदमी के लिए लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है । विकसित देशों में लोकतंत्र हो या तानाशाही , आम आदमी इतना असहाय नहीं रहता है । इसका सम्पर्क लोकतंत्र या तानाशाही से नहीं है बल्कि प्रशासन प्रणाली से है । प्रशासन के स्तर पर किस प्रकार के सुधार भ्रष्टाचार निरोधक होंगे , उसके और कुछ उदाहरण हम नीचे दे रहे हैं ।

पुलिस , मिनिस्टर , जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । किसी अपराध में १०० रु. का जुरमाना है या दस दिन की सजा होनी है , उसके लिए २५ बार वकील को फीस देनी पड़ती है , छह महीने जेल में रहना पड़ता है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । अगर सिर्फ एक सुधार हो जाए कि न्यायालय में एक निश्चित समय के अन्दर फैसला होगा तो देर होने की वजह से होनेवाले भ्रष्टाचार में दो तिहाई कमी आ जाएगी । यदि जजों की संख्या दस गुनी भी अधिक कर दी जाए, तब भी राष्ट्र का कोई आर्थिक नुकसान नहीं होगा क्योंकि जिस समाज में न्याय होगा उसकी उपार्जन-क्षमता भी बढ़ जाती है ।

तबादला या ट्रांसफ़र प्रशासनिक भ्रष्टाचार का एक प्रमुख स्तम्भ है । तबादला कराने और रोकने के लिए बाबू से लेकर मंत्री तक सब रिश्वत लेते-देते हैं । तबादले की प्रथा ही एक औपनिवेशिक प्रथा है । प्रशासकों को जन विरोधी बनाने के लिए विदेशी शासकों ने इसका प्रचलन किया था । तबादला सिर्फ पदोन्नति या अवनति के मौके पर होना चाहिए । मध्यम और नीचे स्तर के कर्मचारियों की नियुक्ति यथासम्भव उनके गाँव के पास होनी चाहिए । अगर नियुक्ति गलत जगह पर नहीं हुई है तो तबादला दस साल के पहले नहीं होना चाहिए । बड़े अफ़सरों की नियुक्ति जहाँ भी हो , लम्बे समय तक होनी चाहिए ताकि उनके कार्यों का परिणाम देखा जा सके । अधिकांश निर्णय नीचे के कर्मचारियों और पंचायत जैसी इकाइयों के हाथ में होना चाहिए ताकि निर्णय की जिम्मेदारी ठहराई जा सके । गुलामी के दिनों में जब कलक्टर और पुलिस अफ़सर भी अंग्रेज होते थे , गोरे लोग ही हर निर्णय पर अपना अन्तिम हस्ताक्षर करते थे – यही प्रथा अब भी चालू है । मामूली बातों से लेकर गंभीर मामलों के हरेक विषय के लिए निर्णय की इतनी सीढ़ियाँ हैं कि गलत निर्णय की जिम्मेदारी नहीं ठहराई जा सकती है ।

पिछले वर्षों में योग्य नौजवानों का समूह रिश्वत देनेवाला बन गया है । प्रथम श्रेणी में एम.एससी पास करने के बाद सप्लाई इन्स्पेक्टर की नौकरी पाने के लिए मंत्री और दलाल को रुपए देने पड़ते हैं । रिश्वत की रकम अक्सर बँधी रहती है | रोजगार के अधिकार को सांवैधानिक अधिकार बनाकर इस रिश्वत को खतम किया जा सकता है । बेरोजगारी का भत्ता इसके साथ जुड़ा हुआ विषय है । इसकी माँग एक लम्बे अरसे से देश के नौजवानों की ओर से की जा रही है , फिर भी योजना आयोग या विश्वविद्यालयों की ओर से अभी तक एक अध्ययन नहीं हुआ कि इसके अच्छे या बुरे परिणाम क्या होंगे , सरकार पर इसका कितना बोझ पड़ेगा इत्यादि । नौजवानों को भ्रष्टाचार का शिकार होने देना और बेकारी भत्ते को सांवैधानिक बनाकर सरकारी खर्च बढ़ाना – इसमें से कौन बुराई कम हानिकारक है ? हो सकता है कि दोनों के परे कोई रास्ता दिखाई दे ।

[ अगला भाग : विकास और मूल्यवृद्धि ]

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