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Archive for फ़रवरी 3rd, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों का अगला आयोजन ३ से १२ अक्टूबर २०१० तक दिल्ली में होने वाला है। जिसके लिए कई वर्षों से बड़ी धूमधाम से तैयारी चल रही हैं। भारत सरकार और दिल्ली सरकार ने इन खेलों के समय पर निर्माण कार्य पूरा करने के लिए पूरी ताकत और धन झोंक दिया है। एक अनुमान के मुताबिक इसमें कुल १ लाख करोड रूपये खर्च होंगे। कहा जा रहा है कि यह अभी तक के सबसे महंगे राष्ट्रमंडल खेल होंगे।

यह भी तब जब भारत प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से दुनिया के निम्नतम देशों में से एक है। विश्व भूख सुचकांक में हमारा स्थान इथोपिया से भी नीचे है व ७७ प्रतिशत के लगभग भारत की जनसंख्या २० रूपये प्रति व्यक्ति (प्रति दिन) आय पर गुजारा कर रही है।

राष्ट्रमंडल खेलों के लिए दिल्ली में बन रहे फ्लाईओवरों व पुलों की संख्या शायद सैकड़ा पार कर जाएगी। एक-एक फ्लाईओवर के निर्माण की लागत ६० से ११० करोड रूपये के बीच होगी। हजारों की संख्या में आधुनिक वातानुकूलित बसों के आर्डर दिए गए हैं। कुल ६ क्लस्टर में ११ स्टेडियम या स्पर्धा स्थल तैयार किए जा रहें हैं। यमुना की तलछटी में खेलगांव का निर्माण १५८ एकड के विशाल क्षेत्र में १०३८ करोड रूपये की लागत से हो रहा है। राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी पाने के लिए भारतीय ओलंपिक संघ ने सारे खिलाडियों को मुफ्त प्रशिक्षण, मुफ्त हवाई यात्रा व ठहरने खाने की मुफ्त व्यवस्था का प्रस्ताव दिया था।

दूसरी ओर हमारे देश में लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। आज दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित, आवासहीन व अशिक्षित लोग भारत में रह रहे हैं। गरीबों को सस्ता राशन, बिजली, पेयजल, इलाज के लिए पूरी व्यवस्था, बुढ़ापे में पेंशन और स्कूल में पूरे स्थाई शिक्षक एवं भवन व अन्य सुविधाएं देने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है। फिर सरकार के पास इस बारह दिनी आयोजन के लिए इतना पैसा कहां से आया?
वर्ष २०१० के राष्ट्रमंडल खेलों की वेबसाइट में इसका उद्देश्य बताया गया है हरेक भारतीय में खेलों के प्रति जागरूकता और खेल संस्कृति को पैदा करना। क्रिकेट व टेनिस के अलावा अन्य सारे खेल भारत में लंबे समय से उपेक्षित हो रहे हैं। खेलों का तेजी से बाजारीकरण व व्यवसायीकरण हुआ है। पैसे कमाने की होड़ ने खेलों में प्रतिबंधित दवाओं के सेवन, सट्टे और मैच फिक्सिंग को बढ़ावा दिया है। गांव व छोटे शहरों में खिलाडिओं की प्रतिभा को निखारने व प्रोत्साहित करने का कोई प्रयास केंद्र व राज्य सरकारें नहीं कर रही हैं। गांवों के स्कूलो में न तो खेल सामग्री है न प्रशिक्षक और न ही खेल के मैदान।

१९८२ में भारत में विशाल धनराशि खर्च करके एशियाई खेलों का आयोजन किया गया था। उसके बाद न तो देश के अंदर खेलों को विशेष बढ़ावा मिला और न ही अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भारत की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। कई सारे स्टेडियम जो उस समय बने थे वे या तो खाली पड़े रहे या दूसरे तरह को कामों जैसे शादी-विवाह में इस्तेमाल होते रहे। इसी तरह बीजिंग ओलंपिक में चीन में बने बड़े-बड़े स्टेडियम बेकार पड़े हुए हैं। और उनके रख-रखाव का खर्च निकालना मुश्किल पड रहा है। राष्ट्रमंडल खोलों के निमार्ण कार्यों में पर्यावरण नियमों व श्रम नियमों का भी उल्लघंन हो रहा है। ठेकेदारों के माध्यम से बाहर से सस्ते मजदूरों को बुलाया गया है। जिन्हें संगठित होने, बेहतर मजदूरी मांगने, कार्यस्थल पर सुरक्षा, आवास व अन्य सुविधाएं मांगने का कोई अधिकार नहीं है। इन कानूनों के उल्लंघन पर सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार दोनों चुप हैं। आखिर क्यों? मजदूरों के शोषण व पर्यावरण के विनाश के बदले ये थोड़े समय की अंतरराष्ट्रीय वाहवाही क्या हमें ज्यादा प्रिय है? इस पूरे आयोजन में किसे फायदा होने वाला है? देश के खिलाडियों को तो लगता नहीं, आम आदमी को भी नहीं। फायदा होने वाला है- बड़ी-बड़ी भारतीय व बहुराष्ट्रीय कंपनियों, ठेकेदारों व कमीशनखोर नेताओं को।
दूसरी तरफ झुग्गी बस्तियों में रहने वाली ६५ प्रतिशत जनता को शहर के दूर फेंका जा रहा है। तथाकथित सौंदर्यीकरण के नाम पर लाखों रेड़ी खोमचे वालों का व्यवसाय बंद करने की नीति बनाई गई है। दिल्ली उच्च न्यायालय के हालिया आदेश के मुताबिक दिल्ली में रह रहे अधिकांश भिखारियों को अक्तूबर २०१० के पहले उनके राज्य वापस भेजा जाएगा। इस तरह के आयोजनों में बड़ी-बड़ी कंपनियों को प्रायोजक बनाया जाता है। जिन्हें इन आयोजनों में विज्ञापनों इत्यादि से बहुत कमाने को मिलता है। मीडिया को भी भारी विज्ञापन मिलते हैं सो वो भी इनके गुणगान में लगा रहता है।

कहा जा रहा है कि इस आयोजन में बड़ी मात्रा में विदेशी पर्यटक आएंगे। पर्यटन से आय होगी। पर्यटन को बढ़ा वा मिलेगा। प्रश्न ये है कितनी आय होगी? और उसके लिए हमारे देश के संसाधनों का दुरूपयोग लोगों की बुनियादी जरूरतों को नजरंदाज करके करना कितना जायज है? क्या इस विशाल खर्चे का १० प्रतिशत भी टिकटों की बिक्री और पर्यटन की आय से मिलेगा? हमें आजाद हुए ६२ साल हो चुके हैं। लेकिन हमने गुलामी को ऐसे आत्मसात कर लिया है कि कोई ये प्रश्न ही नहीं पूछता की आखिर राष्ट्रमंडल खेल है क्या? राष्ट्रमंडल उन देशों का समूह है जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा रहें हैं। इन खेलों की शुरूआत १९१८ में ‘साम्राज्य के उत्सव’ के रूप में हुई थी। फिर आज जब हम एक स्वतंत्र व सार्वभौम देश हैं हम क्यों इसमें शामिल हैं? गुलामी के प्रतीकों को ढोने में राष्ट्रगौरव व राष्ट्रसम्मान का अनुभव करते है?

एक झूठी राष्ट्रीयता व राष्ट्र भावना को फैलाकर लोगों को बहलाने का व जनता का ध्यान मूल मुद्दों से ध्यान हटाने का कार्य हमारी सरकार कर रही है। इस आयोजन का उद्देश्य है भारत को आर्थिक माहशक्ति के रूप में पेश करना। जिससे लोग अपनी हकीकत व असलियत को भूलकर झूठे राष्ट्रीय गर्व व जय-जयकार में लग जाएं।

राष्ट्रमंडल खेल इस देश की गुलामी, संसाधनों की लूट, बरबादी, विलासिता और गलत खेल संस्कृति का प्रतीक है। हमारे देश की सरकार को कोई अधिकार नहीं है कि वो देश के संसाधनों को गुलामी और ऐय्याशी को प्रतिष्ठित करने वाले ऐसे आयोजनों में लूटे और लुटाए।
विद्यार्थी युवजन सभा ने तय किया है कि वो पूरी ताकत से इस राष्ट्रविरोधी, जन-विरोधी आयोजन का विरोध करेगी। इसी सिलसिले में २३ फरवरी २०१० को दिल्ली में एक रैली व धरने का आयोजन किया गया है। आपसे गुजारिश है आप भी इसमें शामिल हों।

निवेदकः-

विद्यार्थी युवजन सभा

६१२२, सिद्धिकी बिल्डिंग, बाड़ा हिंदूराव, दिल्ली-११०००६.

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