Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Archive for अप्रैल, 2009

लेख का भाग एक , दो 

    समाचार-पत्र अगर समाचारों के पत्र होते , तो इतनी सारी बहस की जरूरत नहीं होती । अगर दुनिया मे कभी समाचारों का पत्र होगा तो वह एक बिलकुल भिन्न चीज होगी । मौजूदा सभ्यता में समाचार-पत्र एक तरह से देखें तो जनमत का प्रहरी है , दूसरे ढंग से देखें तो वह जनमत का निर्माता है । यह मत-निर्माण सिर्फ तात्कालिक मुद्दों के बारे में नहीं होता है , बल्कि गहरी मान्यताओं और दीर्घकालीन समस्याओं के स्तर पर भी होता है । यह मत-निर्माण या प्रचार इतना मौलिक और प्रभावशाली है कि इसे मानस-निर्माण ही कहा जा सकता है । प्रचार का सबसे प्रभावशाली रूप है समाचार वाला रूप । अगर आप यह कहें कि ’ गन्दगी से घृणा करनी चाहिए’, तो यह गन्दगी के खिलाफ़ एक कमजोर प्रचार है । अगर आप कहें कि ’गन्दगी बढ़ गयी है’, तो गन्दगी के खिलाफ़ यह ज्यादा प्रभावशाली वाक्य है । आप कहे कि ’पाकिस्तान को दुश्मन समझो’, तो इसका असर कम लोगों पर होगा । कुछ लोग पूछेंगे , क्यों ? लेकिन वही लोग जब पढ़ेंगे कि ’ पाकिस्तान को अमरीका से हथियारों का नया भंडार मिला’ तो दुश्मनी अपने आप मजबूत हो जायेगी । आप प्रचार करेंगे कि ’ हमें पाँच-सितारा होटलों की जरूरत है’, तो लोग कहेंगे – नहीं । लेकिन वे जब पढ़ेंगे कि ’ होटल व्यवसाय से सरकार ने १० करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा कमाई’ तो उन्हें खुशी होगी । प्रचार में द्वन्द्व रहता है । शिक्षा – दान में द्वन्द्व रहता है । समाचार में द्वन्द्व नहीं होता है – इसलिए समाचारों से मान्यतायें बनती हैं , मानस पैदा होता है । इसीसे अनुमान लगाना चाहिए कि दैत्याकार बहुराष्ट्रीय पत्र – पत्रिकाओं का कितना प्रभाव तीसरी दुनिया के शिक्षित वर्ग पर होता है ।

     गांधीजी ने जब ’हिन्द-स्वराज्य’ लिखा, डॉक्टरों और वकीलों के पेशे को समाज-विरोधी पेशे के रूप में दिखाया । हो सकता है कि वे उदाहरणॊं की संख्या बढ़ाना नहीं चाहते थे या हो सकता है कि पत्रकारों के समाज – विरोधी चरित्र का साक्षात्कार उन दिनों उन्हें नहीं हुआ था । गांधी अति अव्यावहारिक विचारकों की श्रेणी में आते हैं । उनके सपने का समाज नहीं बनने वाला है । हम वकीलों-डॉक्टरों के पेशे को समाज -विरोधी नहीं कह सकते । साधारण नागरिक के लिए पग-पग पर वकील-डॉक्टर की सेवा की जरूरत पड़ जाती है । जैसे हम जानते हैं कि स्कूलों में अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती है, लेकिन हम अगर स्कूलों को समाज विरोधी कहेंगे, तो हमारे बच्चे मूर्ख रह जायेंगे । इसी तरह समाचार-पत्र के आधुनिक मनुष्य के लिए  एक बहुत बड़ा बोझ होने पर भी उसे पढ़े बिना रहने पर हम अज्ञानी रह जायेंगे । समाज में बात करने लायक नहीं रह जायेंगे । ज्यादा से ज्यादा आप इसे एक विडम्बनापूर्ण स्थिति कह सकते हैं , जहाँ समाचार-पत्रों की स्वाधीनता है , लेकिन पत्रकार पराधीन है । समाचार-पत्र आधुनिक मनुष्य के ऊपर एक बहुत बड़ा अत्याचार है । साथ ही , वह हमारी सांवैधानिक आजादी का माध्यम भी है ।

– स्रोत : सामयिक वार्ता , अक्टूबर , १९८८

 

Read Full Post »

( लेख का पिछला भाग ) पत्रकारों में एक निपुणता होती है । उनकी भाषा चुस्त होती है । वे तर्क और भावना का पुट देकर विषयों पर रोशनी डालते हैं । लेकिन विज्ञापन सामग्री के रचनाकारों में भी तो ये सारी योग्यतायें होती हैं । कुछ विज्ञापनों को पढ़ते वक्त भ्रम हो जाता है कि हम साहित्य या दर्शन पढ़ रहे हैं । विज्ञापन सामग्री बनाने वाले का नाम नहीं छपता है । कुछ अरसे के बाद छप सकता है । क्यों नहीं ? राजनैतिक – सामाजिक मुद्दों पर समाचार – टिप्पणी लिखनेवालों की ज्यादा चर्चा होती है । उनकी प्रतिष्ठा बनती है ।  उस प्रतिष्ठा का बड़ा हिस्सा यह है कि वे एक दैत्याकार उद्योग के बुद्धिजीवी हैं । प्रतिष्ठा का दूसरा हिस्सा यह है कि कुछ पत्रकारों में लेखकवाला अंश भी होता है । यहाँ हम ’लेखक’ शब्द का इस्तेमाल बहुत संकुचित अर्थ में कर रहे हैं । लेखक वह है जो अपनी समग्र चेतना के बल पर अभिव्यक्ति करता है । लेखक की कसौटी पर पत्रकार की कोटि लेखक और लिपिक के बीच की है । जैसे किसी जाँच आयोग का प्रतिवेदन लिखनेवाला कर्मचारी , कनूनी बहस की अरजी लिखनेवाला वकील या पर्यटन गाइड लिखनेवाला भी लेखक ही होता है। आज के दिन आप नहीं कह सकते हैं कि एक अच्छा पत्रकार एक घटिया साहित्यकार से बेहतर है । दोनोंके प्रेरणा स्रोत अलग हैं । यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति साहित्य लिखना छोड़कर  पत्रकार के रूप में अच्छा नाम कमाए । अभी सिर्फ भारतीय भाषाओं की पिछड़ी हुई पत्र – पत्रिकाओं में साहित्यिकों को पत्रकारिता के काम के लिए बुलाया जाता है।अत्याधुनिक पत्र-पत्रिकाओं में ऐसी परिपाटी खत्म हो गई है , क्योंकि साहित्यिकों में ऐसे संस्कार होते हैं , जो पत्रकारिता के लिए अयोग्यता के लक्षण हैं ।

अगर किसी बड़े समाचार-पत्र का सम्पादक दावा करता है कि उसके काम – काज में सेठजी ने कभी दखल नहीं दिया , तो उस सम्पादक को यह भी मालूम होना चाहिए कि आधुनिक सेठजी दखल नहीं दिया करते । ऐसे अनेक सेठजी होंगे , जिन्होंने कभी अपने बावरची , खजांची या दरजी के काम में दखल नहीं दिया हो । बड़े समाचार-पत्रों का सम्पादक चुने जाने की एक योग्यता यह है कि  उसको अक्लमन्द होना चाहिए , ताकि उसके काम में मालिक को दखल देना न पड़े । जिस पत्रकार में लेखक वाला संस्कार बचा है  , उसके काम में दखल देना पड़ जाता है । इसीलिए मुम्बई के हमारे एक दोस्त को बहुत समय तक सम्पादक नहीं बनाया गया । दिल्ली में हमारे एक दूसरे दोस्त एक बड़े उद्योगपति के प्रमुख अखबार के पत्रकार हैं । उस अखबार में एक वरिष्ठ पत्रकार थे , जो अपने व्यक्तिगत जीवन में घोर साम्यवादी हैं । उनका लेखन उच्च कोटि का था , जिस पर अखबार को गर्व था । जब उनकी सेवा-निवृत्ति का समय आया , तो हमारे दोस्त ने चुटकी ली ,” कामरेड , आपका जो लम्बा जीवन बाकी है उसमें मैं आशा करता हूं कि आप हमारे उद्योगपति – मालिक के धन्धों के बारे में एक पुस्तक लिखेंगे ।” “क्यों ?” ” उनमें स्वतंत्र-लेखन शक्ति बच नहीं गई है , अगर उनमें ऐसी कोई शक्ति बची होगी तो मालिक की ओर से पत्र में नियमित कॉलम के माध्यम से उनको अच्छी रकम मिलती रहेगी । “

नई पीढ़ी के पत्रकारों के मामलों में यह जोखिम नहीं है । वे लेखक या विचारक के रूप में नहीं , शुरु से ही पत्रकार के रूप में प्रशिक्षित हो रहे हैं । यहाँ विचारों को दबाने के लिए अधिक भत्ता देना नहीं पड़ता है – सिर्फ इस काम को आकर्षक बनाने के लिए खूबसूरत वेतन – भत्ते का प्रबन्ध रहता है । यह वेतन – भत्ता विशिष्टजनों के लायक है । इस वेतन-भत्ते के लायक होने के लिए प्रतिबद्धताविहीन बुद्धिजीवी होने का प्रशिक्षण उन्हें मिलता रहता है । समाचार-पत्र उद्योग के प्रसार के लिए यह एक शर्त है कि समाज में प्रतिबद्धताविहीन लेखकों का एक बुद्धिजीवी वर्ग पैदा किया जाये । यानी शिक्षा और प्रशिक्षण की प्रक्रिया में ही उन्हें मालिक वर्ग की विचारदृष्टि में दीक्षित कर लिया जाए , ताकि किसी आदरणीय सम्पादक के बारे में यह कहना न पड़े कि वे अपने विचारों को दबाकर लिख रहे हैं । हम सीधे कह सकते हैं कि सम्पादक की विश्वदृष्टि और सेठजी की विश्वदृष्टि में एक अपूर्व मेल का संयोग है ।

( अगली किश्त में समाप्य )

भाग – तीन

Read Full Post »

मनुष्य की आज़ादी एक टेढ़ी खीर है । किसी भी व्यवस्थित समाज में अभिव्यक्ति की पगडंडियां बन जाती हैं । आजादी के औजार बने बनाये रहते हैं । औसत मनुष्य उन औजारों के सहारे अपनी स्वतंत्रता का बोध कर लेता है । आजादी की जो पगडंडियां बनी हुई हैं , उनमें से समाचार – पत्र एक है । रोज सबेरे एक अखबार खरीदकर आप इस पगडंडी पर चल सकते हैं । वोट देने , वकील नियुक्त करने , अखबार खरीदने की प्रक्रियाओं में हमारी सांवैधानिक आजादी प्रतिफलित होती है । अगर राजनैतिक दलों , अखबारों , वकीलों की आजादी नहीं रहेगी , तो हमारी आजादी भी नही रहेगी ।

आधुनिक टेकनोलौजी ने समाचार-पत्रों तथा दूसरे संचार माध्यमों की क्षमता बढ़ा दी है । करोड़ों – अरबों लोगों की अभिव्यक्ति का ठेका एक समाचार-पत्र ले सकता है । ऐसे समाचार-पत्रों का संचालन सिर्फ सत्ताधारी पूंजीपति कर सकते हैं। संचार और अभिव्यक्ति – इन दो शब्दों का कुछ लोग एक ही अर्थ लगाते हैं । संचार आसान हो गया है तो कहते हैं कि अभिव्यक्ति आसान हो गयी है । बात उलटी है । संचार माध्यमों के द्वारा सिर्फ उन सारे लोगों की अभिव्यक्ति बनी रहेगी , जिनको संचार-माध्यमों के मालिक चुन लेंगे ।IMG_0314 बड़े समाचार-पत्रों ने छोटे पत्रों की अभिव्यक्ति छीन ली है । अब जो स्थानीय पत्र होते हैं , वे बड़े पत्रों के स्थानीय संस्करण जैसे ही होते हैं । अलग अभिव्यक्ति हो नहीं सकती। पुरानी टेकनौलोजी में यह संभव था कि सत्ता में रहे बगैर भी समाजवादी , साम्यवादी , ग्रामोद्योगवादी , नास्तिकवादी दृ्ष्टिकोण की पत्रिकाएँ समाज में प्रतिष्ठित हो सकती थीं । अब सिर्फ़ अपने समर्थकों के बीच ही उनका वितरण सीमित रहता है । तात्कालिक राजनैतिक प्रश्नों को छोड़कर हर चीज पर सारे प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों का स्वर एक-जैसा होता है । ’टाइम’ और ’न्यूजवीक’ के बीच , हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के बीच अभिव्यक्तियों का संसार पूरा हो जाता है ।

कुछ लोग आजादी के बाद और उसके पहले की पत्रकारिता की तुलना करते हैं और कहते हैं कि पहले के पत्रकार अच्छे थे । ऐसा कहना गलत है । अच्छे और बुरे पत्रकार की बात नहीं है । टेकनौलोजी बदल गयी है । आधुनिक टेकनौलोजी के फलस्वरूप पत्रकारिता एक बड़ा उद्योग बन चुकी है और पत्रकार नामक एक नये किस्म के सम्पन्न कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है । दूसरे बड़े उद्योगों को चलानेवाला कोई पूंजीपति इस उद्योग को भी चला सकता है या अपनी औद्योगिक शुरुआत समाचार-पत्र के ’उत्पादन’ से कर सकता है । इस उद्योग के सारे कर्मचारी उद्योगपति समेत पत्रकार हैं । हम जब समाचार-पत्र की आजादी की बात कहते हैं , तो उसे पत्रकारों की आजादी कहना एक भयंकर भूल होगी । आधुनिक टेकनौलोजी ने पत्रकार के साथ यही किया है , जो हर प्रकार के श्रमिक-उत्पादकों के साथ किया है  । आधुनिक टेकनौलोजी ने बुनकरों , चर्मकारों , लोहारों जैसे श्रमिक-उत्पादकों के हाथ में ऐसा कोई कौशल नहीं दिया जिससे उनकी उत्पादन-कार्यक्षमता बढ़ जाए । इस टेकनौलोजी ने ऐसा यन्त्र और ऐसी व्यवस्था पैदा की है , जिसमें श्रमिक खुद उत्पादक न हो सके , वह किसी व्यवस्थापक या प्रबन्धक के अधीन एक मजदूर बन कर रह जाए । लेखकों -पत्रकारों के साथ यही हुआ । आधुनिक टेकनौलोजी के पहले जो पत्र निकलते थे,उनमें अधिकांश पत्रों को निकालने वाले लोग लेखक-साहित्यिक-विचारक थे । औपचारिक या अनौपचारिक ढंग से उनका समूह होता था और उस समूह की ओर से पत्र प्रकाशित होते थे । नई टेकनौलोजी के बाद लेखक अपना पत्र नहीं निकाल सकता। पत्रकार अपना लेख भी नहीं लिख सकता । उसका लिखना एक व्यवस्थापक के संयोजन के तहत होता है ।  किसी प्रतिष्ठित पत्र के मालिक अब प्रेमचन्द , बाल गंगाधर तिलक , गांधी या गोपबन्धु दास नहीं हो सकते । इसका मतलब यह नहीं कि कोई लेखक समाचार-पत्र का मालिक नहीं हो सकता है । होने के लिए उसे अपना लेखक-साहित्यिक-विचारक का जीवन छोड़कर व्यवस्थापक या उद्योगपति का जीवन अपनाना होगा । कहने का मतलब यह भी नहीं है कि हरेक लेखक या विचारक का अपना पत्र होना चाहिए । लेकिन पत्र अवश्य लेखकों का होना चाहिए । समाचार-पत्र हो या कपड़ा , आज की उत्पादन – व्यवस्था में उद्योगपति-व्यवस्थापक को छोड़कर कोई नहीं कह सकता है कि यह ’मेरा उत्पाद है ।’ कुछ लोग अपने को धोखा देने के लिए कह सकते हैं कि यह हमारा सामूहिक उत्पादन है । इस धोखे को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए ’प्रबन्धन में मजदूरों की हिस्सेदारी’ का सिद्धान्त कुछ दिनों तक चला । आधुनिक टेकनौलोजी ने इस सिद्धान्त का मखौल उड़ाया है । अत्याधुनिक टेकनौलोजी में मजदूरों का जो स्थान है , दैत्याकार समाचार-पत्रों में पत्रकारों का वही स्थान है । इसलिए उनको वास्तविक रूप में पत्रकार माना और कहा जाए या नहीं , यह प्रश्न उठ सकता है ।

( जारी – भाग दो , तीन )

Read Full Post »

बनारस की शान्ति में खलल डालने की नापाक कोशिशों के बारे में कल मैंने लिखा था ।

कर्नाटक कैडर के प्रशासनिक अधिकारी जो यहां केन्द्रीय पर्यवेक्षक हैं ने मुझे आश्वस्त किया था कि मेरी सलाह के अनुरूप हॉकरों द्वारा जिन स्थानों से अखबार लिए जाते हैं वहां चौकसी बरती जाएगी। ठीक इसी प्रक्रिया से तीन उतपाती कल दबोच लिए गये । इनमें एक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले का था । मौके से २ हजार के ऊपर आपत्तिजनक परचे भी बरामद किए गये । बन्द किए गये इन तीन लोगों को छुड़ाने के लिए जो सफ़ेदपोश ’नेता’ थाने पहुंचे उनमें स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष , भाजपा की पूर्व अध्यक्ष वीरेन्द्र सिह ’मस्त’ उर्फ़ पहलवान भी थे । पहलवान की भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह से अनबन और मुरली जोशी से विशेष नाता छिपा नहीं है । वीरेन्द्र पहलवान ,रामबहादुर राय और मनोज सिन्हा की धुरी मुरली जोशी हैं । राय साहब भी पिछली दस तारीख से पत्रकारिता छोड़ जोशी के चुनाव की रणनीति बनाने में लगे हैं । रामबहादुर राय विद्यार्थी परिषद के नेता रहे हैं तथा संघ की समाचार एजेन्सी हिन्दुस्तान समाचार के जरिए पत्रकारिता के क्षेत्र में आये थे । उनके लगभग (कुछ वरिष्ट) समकालीन समाजवादी छात्र नेता रामबचन पाण्डे के अनुसार-’रामबहादुर राय पत्रकारों के बीच खुद को नेता बताता है और नेताओं के बीच पत्रकार।’

Read Full Post »

कल सुबह बनारस शहर के चुने हुए इलाकों में एक अत्यन्त जहरीला , भड़काऊ परचा जिसमें चुनाव कानून के अनुरूप मुद्रक ,प्रकाशक का नाम और संख्या भी नहीं छपी थी (छापने पर जेल भेजने के लिए खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ती ) दैनिक समाचार पत्रों में डाल कर बाँटे गये । इस कायराना हरकत के खिलाफ़ मैंने परचे के चित्र सहित मुख्य निर्वाचन आयुक्त ,मुख्य निर्वाचन अधिकारी – उत्तर प्रदेश को शिकायत की तथा केन्द्रीय चुनाव पर्यवेक्षक से इस बाबत बात की ।

मुख्य निर्वाचन आयुक्त,
भारत का निर्वाचन आयोग ,
नई दिल्ली.
माननीय महाशय,
वाराणसी शहर में प्रात:कालीन एवं सायंकालीन दैनिकों के अन्दर डाल कर अत्यन्त आपत्तिजनक , अवैध, उन्माद फैलाने वाले तथा अशान्ति पैदा करने वाले परचे बाँटे जा रहे हैं । आयोग से निवेदन है कि मतदान से बचे शेष दिनों में स्थानीय प्रशासन द्वारा उन ठिकानों पर चौकसी बरती जाए जहाँ से हॉकर प्रतिदिन अखबार प्राप्त करते हैं । इन परचों को छापने वालों पर तत्काल कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए ।
पंजीकृत राजनै्तिक दल – समाजवादी जनपरिषद के प्रन्तीय अध्यक्ष के नाते मैं इस मामले में आयोग का ध्यान खींच रहा हूँ ।
इस ईमेल के साथ एक आपत्तिजनक पर्चे का चित्र संलग्न हैं ।(ब्लॉग में नहीं)
भवदीय,
अफ़लातून,
प्रान्तीय अध्यक्ष , समाजवादी जनपरिषद,उ.प्र राज्य इकाई.

इस सन्दर्भ में केन्द्रीय चुनाव पर्यवेक्षक श्री जानू अरविन्द रामचन्द्र ने आज मुझे सूचित किया है कि स्थानीय प्रशासन को उन्होंने निर्देश दिए हैं कि हॉकर शहर के जिन स्थानों से अखबार प्राप्त करते हैं वहाँ चौकस बरती जाए ।

ब्लॉग के पाठक अपने इलाके के केन्द्रीय पर्यवेक्षक का मोबाइल नम्बर चुनाव आयोग की साइट से प्राप्त कर सकते हैं तथा एक जागरूक नागरिक के नेता ऐसी घिनौनी हरकतों के बारे में शिकायत कर सकते हैं ।

Read Full Post »

भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और इलाहाबाद में पिछले लोक सभा चुनाव में मुँह की खाने के बाद  राज्य सभा के पिछले दरवाजे से संसद में जगह पाने वाले मुरली जोशी इस बार बनारस से चुनाव लड़ रहे हैं । एक सभा में कल उन्होंने कहा कि राजनारायण यदि होते तो मेरा (जोशी का) साथ देते ।

अब जरा याद कीजिए लोकबन्धु राजनारायण द्वारा बनारस में लड़े गए अन्तिम लोक सभा चुनाव की । वे लोक दल के उम्मीदवार थे , कांग्रेस के उम्मीदवार पण्डित कमलापति त्रिपाठी थे तथा  जनता पार्टी के प्रत्याशी के प्रत्याशी इन दोनों महारथियों से कम वय के ओमप्रकाश थे ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राजनारायण को इतना बड़ा खतरा माना कि अपने पिछड़े उम्मीदवार ओमप्रकाश को छोड़ कमलापति त्रिपाठी को समर्थन देने का स्वयंसेवकों को  ’निर्देश’ जारी कर दिए। पंडितजी चुनाव जीत गये तथा ओमप्रकाश ’अपनों’ की नीति के कारण तीसरे नम्बर आ गए थे । मुरली जोशी क्या यह भूल गये हैं ?

Read Full Post »

हिन्दी के वरिष्ट पत्रकार और लेखक बच्चन सिंह ने चिट्ठेकारी शुरु की है । अपने चिट्ठे बेबाक ज़ुबाँ में वे न सिर्फ़ सामयिक घटनाक्रम पर अपनी अनुभवी राय व्यक्त कर रहे हैं अपितु अपनी कविता आदि सृजनात्मक लेखन के नमूने भी दे रहे हैं । उनके सम्पादकत्व में बनारस से जब स्वतंत्र भारत निकलता था तब वह उच्च श्रेणी की पत्रकारिता का नमूना था ।

” उनकी प्रकाशित कृतियां कविता/गीत- तबतक के लिए, गूंजने दो उसे, तिनका तिनका घोसला उपन्यास- ननकी, कीरतराम पत्रकार, संपादक कीरतराम, खबर की औकात, फांसी से पूर्व ( शहीद रामप्रसाद बिस्मिल पर उपन्यास), शहीद ए आजम ( शहीद भगत सिंह पर उपन्यास), शहादत (शहीद चंद्रशेखर आजाद पर उपन्यास), बंजर, कीचकाच, एक थी रूचि, कहानी- पांच लंबी कहानियां, सपाट चेहरे वाला आदमी, धर्मयुद्ध पत्रकारिता पर पुस्तकें- हिंदी पत्रकारिता के नए प्रतिमान, पराड़कर और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां, हिंदी पत्रकारिता का नया स्वरुप, आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी और पत्रकारिता, पत्रकारिता का कृष्णपक्ष वैचारिकी- भारत में जातिप्रथा और दलित ब्राह्मणवाद, विश्वनाथ प्रताप सिंह – कैसे पहुंचे वोट की राजनीति तक ।” (उनके चिट्ठे से )

चिट्ठेकार मित्रों से निवेदन है कि बेबाक ज़ुबाँ पर जा कर उनके स्वागत में अपनी उपस्थिति दर्ज करायें । बच्चन सिंह की अनुभवी लेखनी से रू-ब-रू हों । इस चिट्ठे से हमें काफ़ी कुछ सीखने को मिलेगा और हिन्दी चिट्ठेकारी समृद्ध होगी ।

Read Full Post »

[ गांधी जी द्वारा लिखी गयी पुस्तिका ‘हिन्द स्वराज’ की शताब्दी के अवसर पर गांधी विद्यापीठ , अहमदाबाद तथा केन्द्रीय तिब्बती विश्वविद्यालय , सारनाथ के तत्वाधान में प्रारम्भ हु दस दिवसीय शिबिर में निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रमुख एवं प्रख्यात तिब्बती मनीषी रिनपोचे द्वारा दिया गया प्रारम्भिक वक्तव्य ]

'हिन्द स्वराज' शिबिर , सारनाथ

'हिन्द स्वराज' शिबिर , सारनाथ

३१ मार्च , २००९ को दलाई लामा के भारत में आने की स्वर्ण जयन्ती सम्पन्न हुई । इस अवसर पर उन दिनों का सिंहावलोकन मैं भी कर रहा हूँ ।  ९ वर्ष की उम्र में मैं तिब्बत के बौद्ध विहार में प्रविष्ट हुआ था । चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के समय मेरी उम्र २० वर्ष थी । शरीर और मन कच्चे थे । इस हमले और आधिपत्य द्वारा हुए संस्कृति और परम्परा को विध्वंस होने के कगार पर देखा । पूरा विश्व यह देख रहा था लेकिन असहाय और चुप था ।

३ मास शरणार्थी शिबिर में रहने के बाद कालिंगपोंग पहुँचा । इस परिस्थिति से उत्पन्न सैंकड़ों प्रश्नों के उत्तर न पाने के झंझावात के साथ हम रह रहे थे । उसी समय  ‘सत्य के प्रयोग’ (गांधीजी की आत्मकथा ) का तिब्बती में किया गया संक्षिप्त अनुवाद  मेरे हाथ लगा । करीब २०० पृष्ट की उस किताब के अनुवादक बाद में आकाशवाणी के तिब्बती सेवा में शामिल हुए । वह किताब मेरे लिए वरदान साबित हुई । दो तीन दिन उसे पढ़ा । मानसिक राहत , दिशा और प्रकाश मिले ।

दलाई लामा ने ५६ में लिखी अपनी प्रथम आत्मकथा में बताया है कि कैसे वे राजघाट में गांधी समाधि पर काफ़ी समय बैठे रहे । हम गांधी के प्रति ऋणी हैं ।

मुझे काफ़ी विलम्ब से ‘हिन्द स्वराज’ मिली । १९९१ में पता चला कि यह लघु पुस्तक पठानकोट के सर्वोदय बुक स्टॉल पर उपलब्ध है । वहाँ से मँगवाई । पुस्तिका में उपदेशों की दार्शनिक पृष्टभूमि में स्पष्ट दिशा देने वाला मूल शास्त्र दिया गया है । गांधीजी ने बिना किसी निहित ध्येय के लोगों के सामने सत्य रखा है। आधुनिक सभ्यता को साफ़ तौर पर चुनौती देने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे । यह पुस्तिका चक्षु खोलने वाली है और इसका मूल्य अपरम्पार है ।

इस पुस्तिका में जहाँ – जहाँ ब्रिटेन का उल्लेख है वहाँ चीन रख दें और जहाँ भारतीय प्रजा का उल्लेख है वहाँ तिब्बत रख दें – आपको स्पष्ट हो जाएगा कि चीन क्यों तिब्बत पर कब्जा कर सका ।

हिन्द स्वराज के छपने के सौ वर्ष और तिब्बत पर चीन के कब्जे के पचास वर्ष हुए हैं । मैं ऐसे अवसरों को महत्व देता हूँ । बर्मा में १० दिवसीय विपश्यना की परम्परा है । उसी प्रकार दस दिनों के इस शिबिर में आप हिन्द स्वराज की अवधारणा को समझें । हिन्द स्वराज पर इस शिबिर को अपने व्यक्तिगत जीवन में एक उपलब्धि मानूंगा ।

Read Full Post »

%d bloggers like this: