[ जुलाई १९६७ में बनारस में हुए नेपाल के युवा समाजवादियों के सम्मेलन को डॉ. लोहिया ने यह सन्देश दिया था । प्रदीप गिरि , केदारनाथ श्रेष्ठ और नेमकान्त दाहल सम्मेलन के आयोजक थे । लोकतंत्र के करीब आने के बाद शायद यह सन्देश पहली बार प्रसारित हो रहा है ।
नेपाल के बारे में डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने जो कुछ कहा – लिखा उनमें से यह आखिरी सन्देश है । नेपाल के जनसंघर्ष की अन्तर्पीड़ा को इस सन्देश की सदीच्छा शायद अब पूरी होगी । ]
नेपाली युवजन का एक जगह इकट्ठा होना ही बड़ी बात है । जब राज्य स्वच्छन्द हो जाता है , उसे किसी भी तरह के समूह से डर लगने लगता है । मेरा अन्दाज है कि पशुपतिनाथ की भीड़ से भी वर्तमान राजा को डर लगता होगा । ऐसी अवस्था में जनतन्त्र और समाजवाद का उद्देश्य लेकर जो भीड़ बनारस में इकट्ठा हो रही है वह नेपाली इतिहास के लिए निर्णायक हो सकती है ।
वर्तमान राजा के पिता ने जब वे राणाशाही के कैदी जैसे थे , मुझसे एक बार पुछवाया था कि क्या किसी जुलूस के नेतृत्व करने का उनका समय आ गया है । राणा और राजा की लड़ाई का आज जैसा जनतन्त्र विरोधी नतीजा निकलेगा ऐसा अन्दाज हम नहीं लगा सके थे । खैर , कोई बात नहीं , क्योंकि इतिहास बिल्कुल सीधी चाल नहीं चलता थोड़े बहुत उलट फेर या आगे पीछे ही करते हैं । एक बात मैं वर्तमान राजा को जरूर कहना चाहूँगा । बेचारे मानें न मानें , आज वे गद्दी पर बैठ हैं उसमें थोड़ा बहुत मेरा भी हाथ रहा है । चाहे इसी नाते मेरी वे सलाह मानें कि नेपाल के नागरिकों को भाषण और संगठन की आजादी मिले बाकी चीजें बाद में होती रहेंगी , उनकी और जनता की पारस्परिक रजामन्दी से ।
नेपाल के युवजनों को मैं सलाह दूँगा कि जनतन्त्र और समाजवाद ऐसे देवता हैं कि जिन पर कभी – कभी बड़ी आहुति चढ़ानी पड़ती है । ऐसा कुछ, थोड़ा बहुत नेपाल के युवजनों ने किया है । लेकिन वह बहुत कम है । देखों योरोप के युवजनों को और उनकी संकल्प शक्त को । संकल्प चाहे छोटा करो लेकिन उसके हासिल करने में अपना तन मन न्योछावर करने की शक्त हासिल करो । मैं बहुत चाहता था आप लोगों के बीच आता लेकिन इसी संदेश से संतोष कर रहा हूँ ।
डॉ. राममनोहर लोहिया , जुलाई १९६७ .