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Posts Tagged ‘बनवारी’

        पिछले भाग : एक , दो

    भारतीय समाज में ऐसी कोई बनी – बनाई संस्कृति नहीं है जो इस शून्य को पूरा कर सकेगी । आपका एक सरल विश्वास है कि भारत के ग्रामीण समाज में भारतीय संस्कृति है । भारतीयता के नाम पर जो भी इस वक्त बचा हुआ है , वह एक विकृति है । अगर तपस्या करने का इरादा न हो तो आप जैसे भारतीयतावादी भी बिहार या ओड़िशा के किसी गाँव में एक साल लगातार नहीं रह सकेंगे । आप कहते हैं कि पर्दा – प्रथा भारतीय नहीं है । यह तो आप और हम मानते हैं । पूर्वी उत्तर प्रदेश की किसी ग्रामीण महिला से पूछिए – पर्दा – प्रथा और चूड़ियों को छोड़कर वह भारतीयता की कल्पना नहीं कर सकती है । अगर आप इन चिह्नों को मिटाना चाहेंगे तो वह कहेगी कि आप ईसाई धर्म प्रचारकों द्वारा प्रभावित हैं । पर्दा – प्रथा , चूड़ियाँ , अस्पृश्यता , जाति – प्रथा , सती – प्रथा –  यही तो भारतीयता है , भारतीय ग्रामीणों की नजर में । जिस भारतीयता की आप कल्पना करते हैं वह समाज में नहीं है , हमारे खून में या अवचेतन में है , इतिहास में है । हम उसका उद्धार कर सकते हैं बशर्ते कि हम इन विकृतियों से लड़ सकें । विकृतियों से लड़कर ही हम एक नई भारतीयता का सृजन कर सकेंगे । हम अपनी विकृतियों को जानेंगे कैसे ? यहाँ पर हमे यूरोपीय कसौटी पर परीक्षा देनी पड़ेगी । यह इतिहास का नियम है कि एक सभ्यता बनती है , बिगड़ती है और खतम होने के पहले मानव समाज को कुछ मूल्य दे जाती है । संकट के काल में एक सभ्यता के मूल्यों को दूसरी सभ्यता के मूल्यों से परखा जाता है । भारतीय संस्कृति की सारी उपलब्धियों के बावजूद उसमें व्यक्ति की गरिमा या मानव सेवा की परम्परा नहीं है ( न होने के कुछ अच्छे कारण भी रहे होंगे ) । बौद्ध परम्परा को छोड़कर मानव सेवा की वृत्ति भारत में नहीं है । ब्राह्मणवादी हिन्दू परम्परा में यह बिलकुल नहीं है । आपको एक भी पौराणिक नायक , राजा या ऋषि नहीं मिलेगा , जिसने किसी पतित आदमी को , छोटे आदमी को , पापी आदमी को , महामारी से ग्रस्त आदमी को गले लगाकर , गोद में लिटाकर उसकी सेवा की हो । भारतीय संस्कृति की इस मौलिक कमी के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में अस्पृश्यता से लेकर सती दाह तक की गलत प्रथायें बनी हुई हैं । इस कमी के विरुद्ध बुद्ध का एक प्रयास था । बुद्ध का प्रभाव मिट गया । विवेकानन्द और गाँधी का प्रभाव भी क्षीण हो चला है । हमारी महान संस्कृति की गहराई में ऐसी एक कमी क्यों रह गयी ? यही तो इतिहास की विचित्रता है ।

    रामकृष्ण परमहंस कई अर्थों में एक नवीन भारत के धार्मिक संस्थापक थे । विवेकानन्द और केशवचन्द्र सेन के माध्यम से उन्हें पश्चिम का स्पर्श मिला होगा । उनका तरीका बौद्धिक नहीं था , अलौकिक था । उनके सन्देश सांकेतिक थे । उनके जीवन प्रसंगों में ही उनका सन्देश निहित था । उनके जीवन के चार प्रसंगों को हम लें । अपने प्रियतम शिष्य को उन्होंने मोक्ष के लिए नहीं , समाज जागरण के काम में लगाया । खुद हिन्दू मन्दिर का पूजक होकर इस्लाम और ईसाई धर्म की भी साधना की । चांडालों के घरों में जाकर झाड़ू लगाई और उनका पाखाना साफ़ किया ।  पत्नी को संन्यासिनी किया और विधवा को सुहागिन बनाया । भारतीयता के पुनर्जागरण के लिए ये सारे संकेत थे – समाज सुधार को प्राथमिकता देना , गैर भारतीय संस्कृति के मूल्यों का आदर करना और अपनाना , मनुष्य की गरिमा को स्वीकृति देना , नारी जीवन को स्वतंत्र और सकरात्मक बनाना । शारदा देवी के प्रसंग में दोनों बातें ध्यान देने योग्य हैं – पति के साथ संन्यासिनी और पति के बाद सुहागिन ।

किशन पटनायक ,  १ जनवरी १९८८.

   

   

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[ दिवराला ( राजस्थान ) सती – कांड के बाद भारतीय संस्कृति में नर – नारी सम्बन्धों पर सितम्बर – अक्टूबर १९८७ में जनसत्ता के दिल्ली संस्करण के सम्पादक श्री बनवारी के कई लेख छपे । इन लेखों पर अपनी  प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मैंने (किशन पटनायक )बनवारीजी को एक लेख-पत्र लिखा । यह जनसत्ता में नहीं छपा तो मैंने उसे ’हंस’ को भेज दिया तो उसमें यह प्रकाशित हुआ और बाद में सामयिक वार्ता में भी । ]

प्रिय बनवारीजी ,

भारतीयता पर आपका जो भी लेख मेरी नजर से गुज्रता है , मैं उसे अवश्य पढ़ता हूँ । कारण , मेरी भी यह मान्यता है कि आधुनिकतावाद हमारे देश को घोर मूल्यहीनता और दरिद्रता की ओर ले जा रहा है । परन्तु आपके लेखों को पढ़ते वक्त मुझे कभी कभी परेशानी होती है । मुझे लगता है आपके प्रतिपादनों से कट्टर हिन्दूवाद को ही बल मिलेगा । अगर आपका लक्ष्य है कि भारतीयता के आधार पर एक नई संस्कृति और समाज का निर्माण हो तो कट्टर हिन्दूवाद के बढ़ने से इस लक्ष्य पर प्रतिकूल असर होगा । कई बार इच्छा हुई कि आपसे मिलकर बातचीत करूँ । परन्तु दूरी के कारण ऐसा नहीं हो सका । इसलिए आपको सम्बोधित करते हुए यह लेख-पत्र लिख रहा हूँ । आपके लेखों से मेरे मन में जो संशय उत्पन्न होता है उसी को इस लेख-पत्र में लिपिबद्ध कर रहा हूँ ।

आधुनिकतावाद के विरोध में और भारतीयता के समर्थन में इस वक्त देश में एक छोटा सा वैचारिक समूह बना हुआ है । इतिहासकार धर्मपाल , कन्नड़ लेखक अनन्तमूर्ति और हिन्दी लेखक निर्मल वर्मा भी शायद इस धारा के अन्तर्गत हैं | अरुण शौरी को मैं इस धारा का नहीं मानता हूँ । वे सिर्फ़ हिन्दूवाद के पक्षधर हैं । वे भारतीयतावादी नहीं हैं । राजनीति व अर्थनीति में वे सम्पूर्ण आधुनिकतावादी हैं । अनन्तमूर्ति व निर्मल वर्मा को मैंने ठीक ढंग से नहीं पढ़ा है । आपके लेखों को कुछ ज्यादा पढ़ा है । वैसे तो आपकी धारा को भारतीयतावादी कहता हूँ लेकिन जब मुझे इसमें खतरा दिखाई देता है तब इसे ’बौद्धिक हिन्दूवाद’ कहता हूँ । साम्प्रदायिक हिन्दूवाद और कट्टर हिन्दूवाद से सम्पूर्ण भिन्न होने पर भी इसकी कुछ ऐसी कमजोरियाँ हैं कि साम्प्रदायिक और कट्टर हिन्दूवाद के लिए वह एक चुनौती बनने के बजाय एक ढाल बन जाता है । सती – प्रथा पर विवाद के सन्दर्भ में यही हो रहा है । राजपूत जाति के तलवारधारी संरक्षकगण और पुरी के शंकराचार्य के भक्त लोग आपको अपना पक्षधर मानेंगे । १९३४ के बिहार भूकम्प के दिनों में गांधीजी के बयान का तीखा विरोध रवि ठाकुर ने तो किया था , लेकिन कट्टर हिन्दूवादी लोगों की हिम्मत नहीं हुई कि गांधीजी को अपना पक्षधर मानें ।* [* १९३४ के बिहार के भूकम्प के बाद गांधीजी ने एक बयान में कहा था कि यह (भूकम्प) अछूतों के साथ किए गए दुर्व्यवहार के पापों का फल है । इस बयान पर विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि गांधीजी ऐसा कहकर अन्धविश्वासों को बढ़ावा दे रहे हैं – यह पापों का कैसा फल है जिसकी सबसे अधिक मार अछूतों पर ही पड़ी हो । ] गांधीजी की भारतीयता में जहाँ आधुनिकतावाद के खिलाफ़ धार थी वहाँ कट्टर हिन्दूवाद के खिलाफ़ भी तीखी धार थी । गांधी और रवि ठाकुर दोनों का लक्ष्य था भारतीय संस्कृति का नव सृजन । दोनों का विवाद एक ही खेमे का अन्दरूनी  संघर्ष था । दोनों से कट्टर हिन्दूवाद भयभीत था । उनके पहले स्वामी विवेकानन्द से भी कट्टर हिन्दूवाद भयभीत था ।

भारतीयता की सबसे आत्मघाती प्रवृत्ति यह है कि भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों की कल्पनाओं में वह इतना रम जाती है उसकी सारी विकृतियो , विवेकहीनताओं और जड़ताओं के प्रति भी उसे ममता होने लगती है । वह दुविधा में सोचती है ,’ दिखने में अमानवीय होने पर भी उनके पीछे जरूर कोई ब्रह्मांड विषयक सत्य रहा होगा सो उन पर प्रहार करना गलत हो सकता है ।’ आपके लेख और जनसत्ता के सम्पादकीय में इसी प्रकार की दुर्बलता छिपी हुई है । इस उद्धरण को देखें , ’ जो लोग इस जन्म को ही आदि और अन्त मानते हैं और अपने व्यक्तिगत भोग में ही सबसे बड़ा सुख देखते हैं , उन्हें सती प्रथा कभी समझ में नहीं आएगी । यह उस समाज से निकली है जो मृत्यु को सर्वथा अन्त नहीं मानता , बल्कि उसे एक जीवन से दूसरे जीवन की तरफ़ बढ़ने का माध्यम समझता है । ऐसा समाज ही सती – प्रथा के उचित होने पर कोई सार्थक बहस कर सकता है । उसी हिसाब से अब नये सिरे से सती प्रथा पर विचार होना चाहिए । मगर यह अधिकार उन लोगों को नहीं है जो भारत के आम लोगों की आस्था और मान्यताओं को समझते नहीं हैं ।ऐसे लोग कोई फैसला देंगे तो उसकी वैसे ही धज्जियाँ उड़ेंगी जैसे राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले की दिवराला में उड़ी(’दिवराला की सती’-सम्पादकीय ’जनसत्ता’ )।”

बोलने की यह शैली इस प्रकार है – ’हमारे समाज में बुराई हो सकती है , जब हमारा विवेक जगेगा तब हम इसका विरोध करेंगे । लेकिन खबरदार ! हमारे ढंग से न सोचनेवालों को कोई अधिकार नहीं है कि हमारी बुराई पर उँगली उठाए ।’ तो क्या हम भी पश्चिमी समाज की ग़लतियों पर या आदिवासी समाज के जादू – टोनों पर उँगली न उठाएँ ?  जब बाल – विवाह , बाल-विधवा , स्त्री-निरक्षरता आदि के बारे में भारतीय विवेक नहीं जगा था , तब तक ईसाई-धर्म प्रचारकों या राममोहन राय जैसे पश्चिमपरस्त लोग ही इन प्रथाओं पर उँगली उठाते थे ? जब भारतीयता पर गर्व करने वालों का विवेक जग गया और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर , विवेकानन्द , रवि ठाकुर , गांधी , अम्बेडकर जैसे लोग समाज का नेतृत्व करने लगे , तब अपनी बुराइयों को जानने के लिए हमें ईसाई प्रचारकों के लेख पढ़ने की जरूरत नहीं रह गई । आजादी के चालीस सअल बाद हम फिर से पुरानी स्थिति में चले गये हैं । पुरी के शंकराचार्य ही भारतीयतावादियों के मुखपात्र बन गये हैं । आप जैसे भारतीयतावदियों का विवेक सती प्रथा की घटना के विरुद्ध जागृत नहीं हुआ । उपरोक्त उद्धरण में आपने माना है कि सती प्रथा के विरुद्ध भी एक भारतीय दृष्टि हो सकती है । परन्तु उस दृष्टि का प्रतिनिधित्व आपने अपने लेख में नहीं किया है । उलटा उस लेख की तर्क पद्धति ऐसी है कि उसके अनुसार सती प्रथा का विरोध करनेवाला कोई भी व्यक्ति पश्चिमी संस्कृति का दलाल प्रमाणित हो जाएगा , वह ईश्वरचन्द्र विद्यासागर क्यों न हों ।  सती प्रथा के समर्थन में सैद्धान्तिक बहस का जो ढाँचा आपने बनाया है , उस ढाँचे के अन्दर बाल – विवाह और जाति – प्रथा भी ब्रह्मांड विषयक एक महान सत्य पर आधारित माने जाएँगे और उनका विरोध करनेवाले ईसाई प्रचार के शिकार मान लिए जाएँगे ।

आपका कहना है कि जन्म – मृत्यु और काल – सम्बन्धी जो भारतीय अवधारणा है , उसी को मानने वाले समाज में सती – प्रथा तर्कसंगत है । आपका यह प्रतिपादन गैरतार्किक है । यह तब तार्किक होगा जब पत्नी के मर जाने पर पति भी , राजा के मर जाने पर प्रजाकुल भी , नौकर के मर जाने पर मालिक भी सती हो जाएगा । जब तक उस जन्म – मृत्यु की अवधारणा के साथ यह धारणा भी नहीं जुड़ती है कि स्त्री को पति-सर्वस्व अनुशासन में रहना पड़ेगा और विधवा का कोई सार्थक सामाजिक जीवन नहीं हो सकता , तब तक औरत के सती होने की प्रथा नहीं बन सकती है । जिस तरह मुसलमान समाज में तलाक देने की प्रथा दूसरे समाज की तुलना में निकृष्ट है , उसी तरह विधवा के सामाजिक जीवन के मामले में हिन्दू समाज की प्रथा निकृष्ट है । यहाँ विधवा नारी का अपना कोई सामाजिक जीवन नहीं होता है । जिस समाज की विधवा नारी एक सामान्य और सम्मानपूर्ण जीवन बिता सकती हो , उसी समाज में ही सती की घटना को स्वेच्छा से प्रेरित कहा जा सकता है । आत्मोसर्ग के जिस कार्यक्रम में भीड़ जुटकर उल्लास मनाती है  , उसमें देहत्याग के व्यक्तिगत निर्णय की गंभीरता नहीं हो सकती है । अपने आप में यह एक बर्बर काण्ड है – सती की इच्छा जो भी हो । इसलिए विनोबाजीके शरीर-त्याग से सती-समारोह और तलवारधारी राजपूत संरक्षकों के कार्यक्रमों की तुलना नहीं की जानी चाहिए ( स्वेच्छा का तर्क दहेज के सम्बन्ध में भी दिया जाता है ) ।

जन्म – मृत्यु की भारतीय अवधारणा यानी आत्मा की अनन्तता के साथ अगर नारी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण जुड़ जाता है तब विधवा का क्या रूप होगा ? उसका प्रसंग रामकृष्ण परमहंस में मिलता है । यह प्रसंग सचमुच एक पवित्र क्रांतिकारी प्रसंग है । पुरी के शंकराचार्य इसको पढ़ेंगे तो उनको पसीना छूट जाएगा । रामकृष्ण की बीमारी के दिनों में  कभी शारदादेवी ने इच्छा प्रकट की थी कि वे सती होना चाहती हैं । रामकृष्ण ने कहा – हरगिज नहीं , मेरे बाद भी समाज को तुम्हारी जरूरत रहेगी । रामकृष्ण के मर जाने के बाद जब शारदादेवी प्रथानुसार अपनी देह से सारे आभूषण , सिन्दूर , कंगन , लालकिनारी वाली साड़ी उतारने जा रही थीं , रामकृष्ण का आविर्भाव उनके सामने हुआ । निर्देश मिला – ’ तुम यह सब मत उतारो । तुम क्या यह सोचती हो कि मेरा खात्मा हो गया है ?’ फिर शारदादेवी मृत्यु तक उन आभूषणों कोप पहने रहीं । कितनी कटु बातें उनको सुननी पड़ी होंगी , क्या- क्या उन्होंने झेला होगा , यह अनुमान का विषय है । हिन्दू धर्म और भारतीयतावाद का दुर्भाग्य है कि रामकृष्ण और गांधी को ठुकराकर पुरी के शंकराचार्य को पथ-प्रदर्शक माना जाए ।

जारी

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